:मनीषा तिवारी:
(जेंडर व बाल अधिकार कार्यकर्ता)
अक्टूबर 2025 में घोषित नोबेल शांति पुरस्कार मारिया कोरिना मचाडो को दिया गया। उन्होंने वेनेज़ुएला में लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बहाली के लिए लंबा संघर्ष किया। मारिया का चयन निश्चित रूप से इस बात का प्रतीक है कि विश्व राजनीति के कठोर मंच पर एक महिला का आवाज़ उठाना कितना कठिन है ! परंतु जब वही महिला अपने विचारों और संघर्षों से पायी पहचान को पूरा-पूरा अपने कंधे पर उठाने के बजाय उस राजनेता के कंधे का सहारा लेतीं हैं जो कोई और नहीं बल्कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं तब यह शांति स्थापना से बढ़कर शक्ति संतुलन का व्यापार हो जाता है | यह जग जाहिर है कि अमेरिका वैश्विक स्तर पर हथियारों और युद्ध रणनीतियों का सबसे बड़ा व्यापार करता रहा है, और आज भी कर रहा है |

जबकि दूसरी ओर अक्टूबर 2025 में विश्व स्तर पर लिंग असमानता का तालिबानी सिद्धांत तब एक प्रयोग से गुज़रा जब नई दिल्ली में तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी भी महिला पत्रकार को प्रवेश नहीं दिये जाने पर भारत की महिला पत्रकारों ने इस प्रयोग को अस्वीकार किया और अपनी आवाज़ से सत्ता और तालिबान दोनों को गलती सुधारने पर मजबूर कर दिया।
इस तरह भारत की आधी आबादी ने यह साबित किया कि एक लोकतन्त्र में “लिंग समानता विकल्प नहीं, अधिकार है और इसे वह खुद के दम पर लेना पसंद करेंगी”| भारतीय महिलाओं द्वारा यह प्रतिरोध तालिबान की सोच और भारत में उसकी परछाई को जहाँ एकओर बेनकाब कर गया वहीं दूसरी ओर महिला पत्रकारों की एकजुटता ने यह दर्शाया कि लोकतंत्र में जवाबदेही और शांति दोनों ही स्त्री और पुरुष की बराबरी से तय होते हैं।
इस घटना से विश्व को यह संकेत गया कि नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली अंतरराष्ट्रीय हस्तियों की उपलब्धियाँ प्रतीकात्मक हैं, लेकिन भारत की महिला पत्रकारों की यह “जीत” प्रायोगिक और सामाजिक प्रभाव से भरपूर है।
महिला पत्रकारों ने जब उन्होंने तालिबानी सोच का बहिष्कार किया तो उन्होंने न केवल तालिबानी सोच को चुनौती दी, बल्कि यह भी याद दिलाया कि “भारत में महिलाएँ दर्शक नहीं बल्कि संवाद की दिशा तय करने वाली आधी आबादी हैं।” यह वही क्षण है जहाँ भारत की महिलाएँ यह दिखाती हैं कि शक्ति का मतलब सत्ता नहीं, सत्य के साथ धैर्य और शांति से खड़ा रहना है।