जगदलपुर। विश्वप्रसिद्ध बस्तर दशहरा की अहम रस्म मावली परघाव देर रात दंतेश्वरी मंदिर प्रांगण में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ सम्पन्न हुई। दो देवियों के मिलन का यह अनोखा आयोजन सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार इस साल भी धूमधाम से हुआ। बारिश ने थोड़ी बाधा जरूर डाली, लेकिन श्रद्धालुओं का उत्साह कम नहीं हुआ।
शक्तिपीठ दंतेवाड़ा से माता मावली की डोली और छत्र को परंपरा अनुसार जगदलपुर लाया गया। यहां राजपरिवार के सदस्य और हजारों श्रद्धालुओं ने आतिशबाजी और पुष्पवर्षा के बीच देवी का स्वागत किया।
नवरात्र की नवमी पर होने वाली यह रस्म करीब 600 वर्षों से लगातार निभाई जा रही है। माना जाता है कि इसकी शुरुआत बस्तर रियासत के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह के समय हुई थी। मावली देवी मूलतः कर्नाटक के मलवल्य गांव की मानी जाती हैं, जिन्हें छिंदक नागवंशीय शासकों ने बस्तर लाकर स्थापित किया और बाद में चालुक्य राजा अन्नम देव ने उन्हें कुलदेवी का दर्जा दिया। तभी से मावली परघाव की परंपरा शुरू हुई।
इस मौके पर राजा, राजगुरु और पुजारी नंगे पांव राजमहल से मंदिर प्रांगण तक जाकर देवी की डोली का स्वागत करते हैं और दशहरे की समाप्ति पर विदाई की रस्म निभाते हैं।