आधुनिक, परम्परा के रंगकर्मी थे हबीब तनवीर


-योग मिश्र

कला के क्षेत्र में वैसे तो हबीब तनवीर के अनेक पड़ाव रहे हैं। मंचों से उन्होंने अपनी शायरी सुनाई, फिल्मी दुनिया में अपनी क्षमता को परखा, इप्टा में शामिल होकर राजनीतिक सामाजिक दृष्टि के साथ रंगमंच की व्यवस्थित यात्रा उन्होंने शुरू की और “नया थियेटर” तो उनकी सर्वांग रचना है ही। नया थियेटर और हबीब तनवीर दोनों एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। इसी में उनके परिजन हैं, दोस्त हैं और यही उनकी संतानें हैं। हबीब तनवीर नया थियेटर मंडली के बगैर वर्कशाप नहीं करते थे। वे जहाँ वर्कशाप करने जाते वहाँ वे लोक कलाकार व नागरिक कलाकारों के संगम से वर्कशाप में नाटक तैयार करते थे। यह भी उनका शहरी कलाकारों को अपनी लोक परम्परा और संस्कृति से जोड़ने जागृत कराने का एक तरीका था ऐसा मैं मानता हूँ। विभिन्न शहरों में अपनी मंडली के साथ वर्कशाप लगा कर वे नया थियेटर से बाहर की दुनिया के साथ संवाद करते थे और उसे बदलने की ललक रखते थे, यही ललक हबीब तनवीर की सबसे अलग और असल पहचान थी। वे किसी सरकारी संस्था से बंधकर काम करने को कलर्की मानते थे वे कहते थे इससे कलाकार की सोच और कल्पनाशीलता स्थिर हो जाती है।
वे अपने गीत-गज़लों और नाटकों के गीतों से भी दुनिया बदलने की अपनी तड़फ बयान करते रहे। सूत्रधार नाटक में लिखे उनके गीत की यह पंक्तियां देखिए जिसमें उनकी जमाना बदलने की तड़प का अहसास मिलता है-
“जमाना बदल क्यों न दें संगवारी
जमाना बदल क्यों न दें..
लालच के झोंके, रिश्वत की बरखा
देख बहार का जोर..
चोरी का पेड़ लगाएगा चोर ही
फल और फूल होंगे चोर
चोरी होने लगा दाना-दाना-2
जमाना बदल क्यों न दें संगवारी
जमाना बदल क्यों न दें ।
मै सोचता हूँ हबीब साहब ने जितना भी अपने जीवन में किया है उनकी अधूरी रह गई योजनाओं की सूची शायद उससे कहीं ज्यादा बड़ी और लंबी रही होगी। हां ! इतना जरूर है कि मुक्तिबोध की कविता की पंक्तियों का यह अफसोस… “अब तक क्या किया जीवन क्या जिया”…
जैसे पछतावे की फुर्सत उनके जीवन में नहीं दिखाई पड़ती। यहाँ इसके उलट तस्वीर उभरती है-
“किया बहुत ज्यादा जिया बहुत कम”
और बहुत साल जीना था उन्हें तब शायद अपनी सारी योजनाओं को एक ही जीवन में वे पूरी कर पाते।
हबीब साहब की बात जहाँ-जहाँ चलती है, वहाँ-वहाँ, आधुनिक और परंपरागत रंगमंच का एक प्रश्न जरूर उपजता है और एक रीछ का बच्चा अचानक गाने लगता “जब हम भी चले साथ चला रीछ का बच्चा”। इस प्रश्न का सत्य उस रीछ के बच्चे के शरीर के बालों ने अपने भीतर छुपा रखा है। उसे जानना अभी बचा हुआ है ।
“आधुनिक और परंपरागत” की बहस के सामने हबीब तनवीर का थियेटर जो समाधान पेश करता है, उसके पूरे अर्थ को समझने में अभी समय लगेगा पर हबीब तनवीर पर बात करते हुए यह प्रश्न खुल सके तो एक बहुत जरूरी काम हो रहा होगा ।
हबीब तनवीर की लोक से संबद्ध, लोक से परिभाषित होने वाली आधुनिकता, परंपरागत आधुनिकों की आलोचना से हमेशा जूझती रही है। वह नये-पुराने पुरातनपंथियों का निशाना भी बनी है। छत्तीसगढ़ के लोकरंग का एक धड़ा उनका घोर विरोधी रहा है। संभवतः इसी कारण वे दिल्ली से छूटे तो भोपाल में बस गए। इस पर भी कभी अलग से चर्चा जरूर होनी चाहिए । दरअसल आधुनिक रंगमंच पढ़े-लिखों का रंगमंच है। उसके कलाकार सुप्रशिक्षित होते हैं। इसके अलग हबीब तनवीर का रंगमंच जिसके अधिकांश कलाकार नाचा से थे जिन्होंने कहीं से विधिवत प्रशिक्षण नही लिया था। और कला का जो भी रूप उन अनपढ़ लोक कलाकारों के पास था वह लोक परंपरागत विरासत से ही उन्हें मिला था।
रंग संसाधन की दृष्टि से देखें तो नया थियेटर और हबीब तनवीर रंगसाधन विपन्न रहे हैं। जो साधन उनके समकालीन इब्राहिम अलकाजी को एन एस डी से प्राप्त थे, उस लिहाज से हबीब तनवीर साधनों के अभाव में थियेटर कर रहे थे।
इस अभाव को हबीब साहब ने एक तरह की थियेटर की नई रंगनीति में रूपान्तरित कर रंगमंच में अभिनेता के अभिनय को रंगमंच का मूल तत्व बनाकर प्रस्तुत किया और भारी साज-सज्जा, कास्टियूम की तड़क-भड़क के खर्चे के बोझ से रंगमंच को मुक्त कर दिया । उन्होंने उपलब्ध संसाधन पर रंगमंच पर बेहतर प्रभाव पैदा करके दिखाया। यह उनका आधुनिकता से भरापूरा रंगमंच था जो आधुनिक रंगमंच के तय शुदा रंगमंच के मानक उपकरण, साधन, प्रपंच से बहुत दूर था । इसलिए यह एक तरह की चुनौती भी थी ।
हबीब साहब का रंगमंच इसलिए भी हमेशा विवादास्पद रहा। क्योंकि हबीब तनवीर विदेशों में सीखे गए रंगमंच के सारे फार्मूले को झुठला रहे थे और विदेश में सीखे पढ़े ज्ञान को खारिज कर रहे थे। तो स्वाभाविक है जो विदेशों से सीखे गए रंगमंच के फार्मूले पर यहाँ रंगमंच कर रहे थे वे हबीब तनवीर के काम पर लगातार सवाल खड़ा कर उनके काम को खारिज करते जा रहे थे ।
ऐसे में अपने काम पर और खुद पर विश्वास बनाए रखना कोई आसान बात नहीं थी। यह पूरे विश्व के रंगमंच के गहन विश्लेषण से ही संभव था।
हबीब तनवीर ने विदेशों से नाटक सीखकर देशी फार्मूला अपनाया जबकि उनके समकालीन इब्राहीम अल्काजी ने विदेशों में सीखे फार्मूलों को जस का तस उतारकर बड़ी जल्द ख्याति अर्जित कर ली थी। अल्काजीजी के भव्य नाटकों की तर्ज पर भारत के नगर-कस्बों और महानगरों की रंगमंडलियों में अल्काजी के फार्मूले खूब अपनाये गये और अपने नाटकों के भव्य सेट और लकदक वेशभूषा से दर्शकों को आरम्भ में इस नकल ने खूब लुभाया भी। लेकिन शौकिया रंगसमूहों में बिना सरकारी मदद के अल्काजी के नाटकों की नकल करते हुए नाटकों का खर्च निकाल पाना कस्बाई रंगकर्मियों को भारी पड़ने लगा था।
वहीं दूसरी तरफ अल्काजी जी की तरह रायल एकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट लंदन की अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ स्वदेश लौटे हबीब तनवीर ने बहुत मामूली स्टेज क्राफ्ट और अप्रशिक्षित लोक कलाकारों से भव्य नाटक रच दिये थे। भारत में उस दौरा में लोकप्रियता के शिखर पर वही लोग थे जिनकी कला का सूरज पश्चिम से निकलता था। उनके बीच हबीब तनवीर अपने नाटकों से कह रहे थे कि वह रंगमंच जो किसी अन्य संस्कृति की नकल करने की कोशिश करता है, वह वास्तविक रंगमंच नहीं है। वह केवल पाखण्ड है। रंगमंच ऐसा होना चाहिये, जिसमें स्थान विशेष के समाज और संस्कृति की सुगन्ध हो। चरणदास चोर की सफलता पर हबीब तनवीर ने कहा भी था कि “हम दूसरे देशों के रंगमंच को भी पसन्द करें, उनमें भी महानता के तत्व हो सकते हैं, पर जैसे ही हम उनकी नकल करने की कोशिश करेंगे, उसी क्षण वह अपना जादू खो देगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वह रंगमंच जो स्थानीय बाधाओं से मुठभेड़ करता हुआ वैश्विक स्तर तक जाने की क़ाबिलियत रखता है, वह वही रंगमंच है, जिसने अपनी स्थानीयता बचा कर रखी।”
हबीब साहब ने चरणदास चोर में एक पेड़ की टहनी और ८ x ८ के चबूतरे से प्रभावी नाटक रचकर दिखा दिया। उन्होंने संस्कृत का क्लासिक प्ले मृच्छकटिकम्, छत्तीसगढ़ी में ‘माटी की गाड़ी’ नाम से किया तो लोगों ने उस पर भी खूब आपत्ति उठाई थी कि हबीब साहब संस्कृत नाटकों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। वे संस्कृत नाटक की गरिमा नष्ट करने संस्कृत के क्लासिक नाटक गंवई कलाकारों के साथ करवा रहे हैं। लेकिन जब मिट्टी की गाड़ी स्टेज पर आया तब लोग हैरत में पड़ गये की कोई पौराणिक नाटकों की भव्यता को इतने सहज और सरल रूप से भी पेश कर सकता है वह भी बिना उसकी भव्यता नष्ट किये उसे ऐसे भी प्रदर्शित किया जा सकता है इससे पहले यह बात लोगों की कल्पना में भी उस समय नहीं आ सकती थी।
मिट्टी की गाड़ी में 6 x 6 के गोल तख़्त के पीछे हाथी घोड़े के प्रिंट वाले पीले और काले रंग के कपडे़ से महल के भव्य परकोटे का आभास करा कर नाटक के दृश्यों में असर पैदा किया गया था। ‘माटी की गाड़ी’ देखने वाले किसी भी दर्शक को यह नहीं लगा कि उससे अधिक स्टेज क्राफ्ट की नाटक में कोई जरुरत भी थी। वहीं बसंत सेना का महल बन जाता था। वहीं चारूदत्त का घर, वहीं न्यायमंदिर बनता और फैसला होता, वहीं चंदनक, बीरक, जुआरी, भिक्षुक सब आते थे। साधारण मंच उपकरणों में सहज अभिनय से सारा अदृश्य मंच पर उपस्थित करने में छत्तीसगढ़ी नाचा के लोक कलाकार सिद्धस्त होते हैं। अपने कलाकारों के साथ हबीब तनवीर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से सहज जुड़ जाते थे। और अपने नाटको से भरतमुनि की अवधारणा स्पष्ट करते रहते थे कि “अभिनेता का अभिनय नाटक का मूल तत्व है।” छत्तीसगढ़ी लोक कलाकार अपनी धारणा से किसी भी अदृश्य को दृश्य में बदलने समर्थ थे। वे अपने पात्र के साथ खेलते थे। एक ही रोल को कई-कई तरह से करना जानते थे। इन लोक कलाकारों से ही हबीब साहब ने नाटक के असली अर्थ ‘प्ले’ की अवधारणा को अच्छी तरह समझ लिया था।
नाटक को अंग्रेजी में ‘प्ले’ (Play) कहते हैं। हबीब तनवीर एक सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह अपने नाटको के साथ खेलते रहते थे। हरेक शो में कुछ नया जोड़ देते कई बार तो शो के पहले कलाकार के रोल आपस में बदल देते थे। वे ऐसा शायद इसलिए भी करते थे कि रिहर्सल करते हुए जब कोई रट्टू जैसा लगता तो उसे शो में बदल कर दूसरा रोल करने कहते, जिससे अभिनेता सहज हो जाता था। नाटक के प्रति उनके इस खिलंदड़े रवैये से ही उनके गंभीर नाटको में भी सहज रवानगी नज़र आती थी। चाहे वो नजीर अकबराबादी की नज़मों पर आधारित आगरा बाज़ार हो या संस्कृत नाटक मृक्छ्कटीकम् जैसा क्लासिक। नाट्यशास्त्र में जिस लोकधर्मी रंगधारा की मांग भरत मुनि ने की थी, उसे हमारे समय में हबीब तनवीर ने अपने नाटकों से रचा है।
हबीब साहब ने यह रंग दृष्टि सीधे-सीधे नही पा ली थी। उन्होंने रंग प्रशिक्षण लंदन में पाया था । यूरोप का आधुनिक रंगमंच उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। उन्हें ब्रेख्त के रंग प्रयोगों का पता था। वे मुंम्बई इप्टा में रह चुके थे। उनके अनुभवों की इस विपुलता ने ही उन्हें अपनी जड़ों की ओर ढकेला था। वे रायपुर वापस आए यहाँ की नृत्य संगीत नाट्य की लोक परंपरा में और छत्तीसगढ़ी नाचा के कलाकारों के अभिनय कौशल का अदम्य जादू उन्होंने देखा। 10 × 10 के नाचा के मंच पर बिना किसी सेट, साधारण लाईट में, बिना मानक ड्रेस के जो छत्तीसगढ़ी लोक कलाकार रच रहे थे, वह देख कर हबीब साहब अचंभित रह गये थे। उनके सामने वह रंग-संभावना खुल रही थी, जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी। कुछ अलग कुछ बिरला करने की उनकी ख्वाईश को यहाँ से पंख लग गए। और उन्होने आधुनिकता और लोक-परंपरा के अन्तर्विरोध को अपनी इस उड़ान से लाँधने की ठान ली थी। उन्हें लगा कि लोक रंग के पास नगरीय व्यवसायिक और आधुनिक कहलाती पश्चिम की नकल पर आधारित वर्षों से गुलाम सभ्यता को कुछ अच्छा और नया देने के लिए अभी भी बहुत कुछ शेष है। हमारे लोक कलाकारों के पास वह मन, वह चित, वह आत्मा अभी भी बची है जिससे वह पाश्चात्य की आधुनिकता से अटे भारतीय रंगमंच के अवसादी मन में उल्लास के कुछ रंग भर सकते हैं।
उन्हें लगा की नाचा के इन कलाकारों और उनकी इस लोकशैली से पश्चिम मिश्रित नकल की आधुनिकता के भारतीय रंगमंच में लोक की आनंदवृत्ति का मेल मिलाप कर एक अद्भुत आनंद सृजित किया जा सकता है। लेकिन हबीब तनवीर की इस समझ से निकला रंगमंच आधुनिक कहे जाने वाले पश्चिम की नकल के रंगमंच को बिल्कुल सिरे से किनारे लगा देता था जिसमें अब तक लोककला और लोक कलाकारों को पिछड़ा, परिष्कारहीन और आधुनिक अभिप्रायों के लिए सर्वथा अपर्याप्त माना जाता था। वह आधुनिक कहा जाने वाला रंगमंच, कभी कभार अलंकरण-विभूषण के लिए भले ही कुछ लोकतत्वों का इस्तेमाल सरकारी आयोजनों में कर लेता था पर उसे केन्द्रीयता देने के लिए वह कभी तैयार नही था। न रंगमंच में इस विषय पर हबीब तनवीर के पहले कभी किसी ने सोचा था, न कोई उत्सुक था ।
इतनी विपरीत परिस्थितियों में और विपुल विरोध के बाद भी हबीब तनवीर अपने विचार में अडिग रह पाये थे क्योंकि उन्होंने विदेश में रंगमंच के प्रशिक्षण के दौरान ही इस भेड़ चाल से अलग कुछ नया करने का मन बना लिया था।
लेनिन ने कहा था कि “आदमी अपने ज्ञान और योग्यता से बहुत ऊपर उठता है। बड़ा काम है यह। इससे भी बड़ा काम है हजारों को एक हाथ ऊपर उठाना।” हबीब साहब ने लोक को ऊपर उठाया। छत्तीसगढ़ के निरक्षर कलाकारों को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।
हबीब साहब एक नायक रंगकर्मी थे। नायक वह जो दूसरों को रास्ता दिखाए। हबीब तनवीर का काम रंगमंच पर हमेशा जोखिम उठाने की हिम्मत देता रहेगा। इस नाते वे रंगकर्मियों की दुनिया में रंगकर्मियों के दिलों में नायक बन कर सदैव राज करते रहेंगे। उनके कार्यों का पुण्य स्मरण करते हुए उनके सम्पूर्ण जीवन को हमें प्रणाम करना चाहिए।

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