-सुभाष मिश्र
इक्कीसवीं सदी एक चौथाई बीतने जा रही है। पिछली सदी पर नजऱ डालने पर इक्कीसवीं सदी पूरी तरह से बदली नजऱ आने लगती है। विज्ञान, तकनीक, विश्वव्यापी बाज़ार के आक्रामक फैलाव के साथ मानव संबंध और सामाजिक मूल्य भी बदलते जा रहे हैं। बल्कि चीज़ें अब इतनी बदल चुकी हैं कि अपनी पहचान खोने लगी है। गांवों के नगरीकरण और नगरों के अपार विस्तार के साथ खेती-किसानी से जुड़ी संस्कृति बिखरने लगी है। पर्यावरण का प्रदूषण समाज और संस्कृति के प्रदूषण को अंजाम दे रहा है। मानवीय संबंध बाज़ार के द्वारा, यानी नफ़ा नुकसान के गणित से, स्वार्थ से तय होने लगे हैं। मनुष्य उपभोक्ता पशु में तब्दील हो गया है।
उपभोग आज सर्वाधिक वैध मानवीय क्रिया है। हर चीज़ जो धरती पर मौजूद है, उपभोग के लिए है, यह नई जीवन पद्धति का सार है। मनुष्य भी मनुष्य के उपभोग के लिए है। वह मानव संसाधन है। वीरभोग्या वसुंधरा अब सर्वभोग्या है। मनुष्य की भोगलिप्सा विकराल रूप ले चुकी है। उपभोग में वह हिंसक है। इस हिंसक वृत्ति का चरम हम दो विश्वयुद्धों के भयंकर विनाश में पिछली सदी में देख चुके हैं। कभी हिंसा में सिफऱ् राज्यसत्ता लिप्त होती थी। आज हिंसा मनुष्य के भीतर घर कर चुकी है। वह कहीं भी कारण-अकारण कभी भी प्रकट हो सकती है। अमेरिका में बच्चों द्वारा स्कूल में गोलियों की अंधाधुंध बौछार करना या भारत में भीड़ की हिंसा, निर्दोषों की मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं आखिऱ किस मनोवृत्ति की देन है।
पिछले वर्षों में खासतौर पर कोरोना महामारी के बाद जो बदलाव हुए उनके चलते बहुत कुछ ऐसा जो पहले असामान्य माना जाता था, बिल्कुल सामान्य हो गया। इसे न्यू नॉर्मल कहा गया। हिंसा आज का न्यू नॉर्मल है। नफऱत न्यू नॉर्मल है। सामाजिक विद्वेष न्यू नॉर्मल है। धार्मिक कट्टरता न्यू नॉर्मल है।
अजीब बात है कि शिक्षा, समृद्धि और भौतिक विकास के साथ समाज में जागरूकता, मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता का प्रसार नहीं हो रहा, उलटे धर्म, जाति, भाषा पर आधारित सामाजिक पहचान का आग्रह तीव्र होता जा रहा है। बल्कि वह कट्टरता में बदल गया है। विडम्बना है कि धर्म जहांं मनुष्य को नैतिक और मानवीय होने का रास्ता दिखाता है, वहीं उसके अंध अनुयायी कर्मकांड को ही धर्म समझ बैठे हैं और धार्मिक अस्मिता के आधार पर संगठित होने के राजनैतिक कुचक्र में फंसकर नफऱत के उत्पादन में जुटे हैं।
पूँजी ने जो उत्पादन तंत्र रचा है, उसने मनुष्य को ही मुनाफ़े का साधन बना लिया है। क्या यही कारण नहीं कि भारत के उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी अमेरिका की ओर हसरत से देखते हैं और अमेरिकी संस्थानों में नौकरी पाने को लालायित हैं। वे सस्ते तकनीकी मजदूर यानी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों के मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल होने वाले उपकरण है लेकिन भारतीय दृष्टिकोण से वे कमाऊ पूत हैं। उनकी आमदनी उपभोग और मौज-मस्ती में खप जाती है। यह तकनीकी कामगार वर्ग हमारे युवाओं का आदर्श और प्रेरणा स्रोत है। उनके ज़रिए अमरीकी उपभोक्ता संस्कृति भारत में भी फल-फूल रही है।
नतीजा यह है कि भारत में परिवार का ढांचा बदल रहा है। एकल परिवार औद्योगिकीकरण के दौर में अस्तित्व में आया था। आज उत्तर औद्योगिक समय में लिव इन संबंधों के रूप में उसके रूपांतर की शुरुआत हो गयी है। आज का नया दौर नए मानवीय रिश्तों का दौर है। ये विरोधाभासों में बने रिश्ते हैं। एक तरफ़ व्यक्ति की अबाध स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा की स्थापना की मांग है, जो दलित, स्त्री, एलजीबीटी आदि की सामुदायिक पहचान और उनके मानवीय अधिकारों की मान्यता का आग्रह करती है, दूसरी तरफ मानव गरिमा के निर्बाध हनन की करतूतें हैं जो दलितों, स्त्रियों और वंचित जनों के नागरिक अधिकारों के हनन में चरितार्थ होती है।
इस विरोधाभास में समाज जी रहा है। यह उसका स्वाभाविक जीवन नहीं है। पूंजी, तकनीक और बाज़ार के संयुक्त उद्यम में मनुष्य की एक नयी प्रजाति फल-फूल रही है। वह वास्तविक दुनिया से ज़्यादा आभासी दुनिया, डिजिटल दुनिया में बसी हुई है। तकनीक ने नई धरती बना डाली है। यह आज के मनुष्य का स्थायी पता है। तमाम नकारात्मकता के बावजूद कुछ तो ऐसा है जो हमारी जिजीविषा को बनाये, बचाये रखता है।
मेरे प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल जिनका आज जन्मदिन है, उनके स्वस्थ और रचनात्मक रहते हुए दीर्घायु जीवन की कामना के साथ प्रसंगवश उनकी कविता-
जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के
जाते जाते जाया जा सकेगा उस पार
जाकर ही वहॉं पहुंचा जा सकेगा
जो बहुत दूर संभव है
पहुंच कर संभव होगा
जाते जाते छूटता रहेगा पीछे
जाते जाते बचा रहेगा आगे
जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में
सब कुछ होना बचा रहेगा
यह चेतावनी है
कि एक छोटा बच्चा है।
यह चेतावनी है
कि चार फूल खिले हैं।
यह चेतावनी है
कि खुशी है
और घड़े में भरा हुआ पानी
पीने के लायक है,
हवा में सांस ली जा सकती है।
यह चेतावनी है
कि दुनिया है
बची दुनिया में
मैं बचा हुआ
यह चेतावनी है
मैं बचा हुआ हूं।
किसी होने वाले युद्ध से
जीवित बच निकलकर
मैं अपनी
अहमियत से मरना चाहता हूं
कि मरने के
आखिरी क्षणों तक
अनंतकाल जीने की कामना करूं
कि चार फूल है
और दुनिया है।