पंचम वेद कहे जाने वाले भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में उल्लेखित मापदंडों से अलग भी आज नाटकों की प्रस्तुति हो रही । कुछ ख़ास जगहों पर व्यवसायिक नाटक की प्रस्तुतियों से लोगों को रोज़गार और पैसा मिल रहा है लेकिन हिन्दी पट्टी में अभी भी बहुत से एमेच्योर थिएटर ग्रुप अपनी ज़िद और अपनी प्रतिबद्धता के चलते नाटकों से जुड़े हैं । बहुत जगह नाटक के ज़रिए फिल्म , टी वी , ओटीटी पर जाने का रास्ता तलाशा जा रहा है । जहां कहीं रेपेटरी ग्रांट मिल रहा है या रंगकर्म को राजाश्रय प्राप्त हैं वहाँ तो नाटकों का लगातार मंचन हो रहा है । लेकिन आज के दौर में युवाओं की प्राथमिकता बदल रही है वे रील बनाने में मस्त हैं या शार्टकट के ज़रिए पापुलर होना चाहते हैं । नाटक आपसे कठिन अभ्यास , रिहर्सल ,अनुशासन और सामूहिकता की मांग करता है जबकि सिनेमा , टी वी , OTT और सोशल मीडिया की प्रस्तुति में अब इसकी ज़रूरत कम महसूस हो रही है । यही वजह है की कुंभ में फूल बेचने वाली लड़की से लेकर किसी भी वजह से चर्चित चेहरों को इन प्लेटफार्म पर जगह मिल जाती है । यदि मैं मुम्बई और छत्तीसगढ़ के सिनेमा की बात करूं तो यहां बहुत कम लोग होंगे जो अभिनय की उचित ट्रेनिंग लेकर आये हों । नाटकों में नेपोटिज्म के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि यहां सब कुछ रंगमंच पर दर्शकों के सामने हैं । यहां एडिटिंग की कोई गुंजाइश नहीं है ।
सुप्रसिद्ध फिल्म और रंग समीक्षक अजित राय बताते हैं की न्यूयार्क के ब्रांड वे ,लंदन के पिकेडली सर्कस ,रूस के मास्को थियेटर की सिनेमा से ज़्यादा इकानामी है । यहां नाटकों से बड़ी कमाई होती है । हमारे देश में अभी स्थिति कम ही है ।
पूरी दुनिया में व्यावसायिक रंगमंच (थियेटर ) से सबसे ज़्यादा कमाई ब्रॉडवे, न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमेरिका) द्वारा की जाती है। ब्रॉडवे दुनिया का सबसे प्रसिद्ध व्यावसायिक रंगमंच केंद्र है। यहाँ म्यूज़िकल्स और नाटक जैसे “द लायन किंग”, “हैमिल्टन”, और “विकेड” सालाना अरबों डॉलर की कमाई करते हैं। 2018-19 सीज़न में ब्रॉडवे ने लगभग 1.8 बिलियन डॉलर का राजस्व उत्पन्न किया था, और यह आंकड़ा महामारी के बाद भी बढ़ रहा है। यहां टिकट की कीमतें 100 से 500 डॉलर तक हो सकती हैं । दूसरा बड़ा नाम वेस्ट एंड, लंदन (यूनाइटेड किंगडम) है ये लंदन का वेस्ट एंड ब्रॉडवे का यूरोपीय समकक्ष है। “ले मिज़रेबल्स”, “फैंटम ऑफ द ओपेरा” जैसे शो दशकों से चल रहे हैं और सालाना 800 मिलियन पाउंड से अधिक की कमाई करते हैं। यहाँ भी टिकट की कीमतें ऊँची होती हैं, और पर्यटक बड़ा दर्शक वर्ग बनाते हैं।
जापान का टोक्यो थिएटर डिस्ट्रिक्ट भी नाटकों के ज़रिए बड़ी कमाई करता है ।जापान में तकाराज़ुका रिव्यू और शिकी थिएटर कंपनी जैसे समूह व्यावसायिक रंगमंच में अग्रणी हैं। तकाराज़ुका, जो केवल महिलाओं द्वारा संचालित म्यूज़िकल थिएटर है, सालाना लाखों दर्शकों को आकर्षित करता है और इसके टिकट 10,000 येन (लगभग 70 डॉलर) तक हो सकते हैं। शिकी कंपनी ने “द लायन किंग” जैसे शो को जापानी भाषा में प्रस्तुत कर भारी सफलता पाई।तकाराज़ुका सालाना 20 बिलियन येन से अधिक कमाती है।यदि अपने देश की बात करें तो मुंबई का पृथ्वी थियेटर में सालभर नाटकों की गतिविधियॉं संचालित होती है । मुंबई के ही फिरोज़ हैं जो मुग़लों आज़म जैसे नाटक के शो की भारी भरकम मंहगी टिकटें लगाकर लगातार मंचन कर रहे हैं ।
यदि हम हिंदी रंगमंच की बात करें तो इसकी जड़ें प्राचीन भारत में भरतमुनि के “नाट्यशास्त्र” से जुड़ी हैं, जो नाटक और अभिनय के सिद्धांतों को स्थापित करता है। आधुनिक हिंदी रंगमंच का विकास 19वीं सदी में परसी थिएटर और लोक नाट्य परंपराओं जैसे नौटंकी और रामलीला से प्रभावित होकर हुआ। 20वीं सदी में हबीब तनवीर, बाबा कारंत इब्राहिम अल्काजी और बाद में गिरीश कर्नाड जैसे रंगकर्मियों ने इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।हिंदी का रंगमंच अपने तमाम अभाव , संघर्ष और चुनौतियों के बावजूद जीवंत है । लेकिन चुनौतियों का सामना कर रहा है। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और भोपाल जैसे शहरों में सक्रिय थिएटर समूह जैसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD), अखिल भारतीय नाट्य परिषद और स्थानीय समूह सामाजिक मुद्दों पर नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके अलावा रायबरेली, भिलाई , बिलासपुर , जगदलपुर , डोंगरगढ़ , रायगढ़ , जबलपुर , छिंदवाड़ा सीधी , आगरा , लखनऊ , आज़मगढ़ , बरेली , पटना , रांची , जैसी जगहों पर रंगमंच की सक्रिय गतिविधियाँ बनी हुई हैं।
भारत में रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी और समृद्ध है, जो वैदिक काल से लेकर भरत मुनि के नाट्यशास्त्र तक और फिर लोकनाट्य रूपों जैसे रामलीला, रासलीला, नौटंकी, और तमाशा तक फैली हुई है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद और रवींद्रनाथ टैगोर , बादल सरकार , हबीब तनवीर , मोहन राकेश देवेन्द्र राज अंकुर जैसे नाटककारों ने इसे नई ऊँचाइयाँ दीं। लेकिन आज रंगमंच का भविष्य कई चुनौतियों और संभावनाओं के बीच झूल रहा है।
सिनेमा और हाल के वर्षों में OTT प्लेटफ़ॉर्म्स (जैसे नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, और डिज़्नी+ हॉटस्टार) ने दर्शकों के मनोरंजन के तरीके को बदल दिया है। लोग अब घर बैठे उच्च गुणवत्ता वाली कहानियाँ देख सकते हैं, जिससे थिएटर जाने की प्रेरणा कम हो रही है। एक सामान्य दर्शक के लिए रंगमंच में समय और पैसा खर्च करना OTT की सुविधा के सामने कम आकर्षक लगता है।
रंगमंच को चलाने के लिए फंडिंग, प्रायोजक, और दर्शकों की भीड़ चाहिए। भारत में व्यावसायिक रंगमंच सीमित शहरों (जैसे मुंबई, दिल्ली, कोलकाता भोपाल , जयपुर तक ही केंद्रित है, और छोटे शहरों में इसे जीवित रखना मुश्किल है।
कई प्रतिभाशाली कलाकार रंगमंच से सिनेमा या OTT में चले जाते हैं, क्योंकि वहां बेहतर आय और पहचान मिलती है। उदाहरण के लिए, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के कई पूर्व छात्र जैसे नसीरुद्दीन शाह , पीयूष मिश्रा और पंकज त्रिपाठी जैसे लोग अब फिल्मों में ज्यादा सक्रिय हैं।NSD और उस जैसी नाट्य संस्थाएं कलाकारों के लिए फ़िल्मों और OTT प्लेटफ़ॉर्म पर जाने का रास्ता बनता जा रहा है जिसकी बड़ी वजह पैसा और प्रसिद्धि है। नाटकों में उतना पैसा और ग्लैमर नहीं है। वह तो देश के अधिकांश हिस्सों में जुगाड़ संस्कृति से जीवित हैं। सरकारें एजेंडा बैंस नाटकों की प्रस्तुति चाहती है। अब सरकारों को इतिहासबोध कराने वाले नाटक और छावा, कश्मीर फ़ाइल्स , केरल फ़ाइल्स जैसी फ़िल्में चाहिए जिससे उनका काम आसान हो सके। नाट्य मंडलियों का स्थान भजन संध्या , जसगीत ने ले लिया है। दरअसल हर नाटक अपने मंचन के बाद दर्शकों के बीच कुछ सवाल छोड़ता है। और सवाल पूछना या करना इस समय मंज़ूर नहीं है।
ये भी इतना ही सही है की सरकार और बहुसंख्यक समाज की तमाम उपेक्षाओं के बावजूद रंगमंच अपनी जीवंतता और प्रत्यक्षता के कारण कभी खत्म नहीं हो सकता। यह दर्शकों के साथ सीधा भावनात्मक जुड़ाव बनाता है, जो स्क्रीन पर संभव नहीं। भारत में क्षेत्रीय रंगमंच (जैसे मराठी, बंगाली, और कन्नड़) अभी भी मजबूत है और स्थानीय कहानियों को जीवित रख सकता है।रंगकर्म में नई तकनीक का उपयोग करके इसे डिजिटल मंचों के साथ रंगमंच का संयोजन (जैसे लाइव स्ट्रीमिंग या हाइब्रिड प्रदर्शन) से नए दर्शकों तक पहुंचा सकता है।चीन का ड्रामा बाक्स इसका ताज़ा उदाहरण है ।यदि हम दुनिया भर में रंगमंच की स्थिति की बात करें तो पश्चिमी देशों में ख़ासकर यूरोप और अमेरिका में तो वहाँ रंगमंच यहाँ एक सम्मानित कला रूप है, खासकर ब्रॉडवे (न्यूयॉर्क) और वेस्ट एंड (लंदन) जैसे केंद्रों में। ये व्यावसायिक रूप से सफल हैं और हर साल लाखों दर्शकों को आकर्षित करता है ।एशियाई और अफ्रीका के देशों में विशेषकर जापान में काबुकी और नोह जैसे पारंपरिक रंगमंच अभी भी लोकप्रिय हैं, लेकिन आधुनिक रंगमंच को सिनेमा से प्रतिस्पर्धा मिलती है। चीन में भी रंगमंच सरकारी समर्थन पर निर्भर है।अफ्रीका में रंगमंच सामुदायिक कहानियों और सामाजिक मुद्दों को उठाने का माध्यम है, लेकिन संसाधनों की कमी इसे सीमित करती है।
विश्व रंगमंच दिवस की शुरुआत
रंगकर्म से जुड़े लोगों के लिए रंगमंच दिवस के मायने उसी तरह से हैं जैसे हमारे देश में मनाये जाने वाले बाक़ी दिवस। यदि हम बात करें विश्व रंगमंच दिवस की शुरुआत की तो 1961 में इंटरनेशनल थिएटर इंस्टीट्यूट (ITI) से हुई ।फिनलैंड के राष्ट्रपति अरवी किविमा ने ITI की 9वीं विश्व कांग्रेस में प्रस्ताव रखा जिसके बाद विश्व रंगमंच दिवस की शुरुआत हुई । रंगकर्म को लेकर सुप्रसिद्ध रंगकर्मी पद्मश्री से सम्मानित प्रो रामगोपाल बजाज कहते हैं कि रंगमंच आत्मा का विस्तार है,अनुभूतियों के तादाम्य का विस्तार है और यह संस्कार हमे बाल्यकाल से ही प्राप्त होते हैं ।वे रंगमंच को आरंभिक शिक्षा से जोड़ने की बात करते हुए कहते हैं कि हमारी मनोरंजनकारी कलाएं हमारी संवेदना का विस्तार करती है। सिद्ध निर्देशक पद्मश्री से सम्मानित प्रो वामन केंद्रे कहते हैं कि ने कहा कि हमारा भाषाई रंगमंच ही हमारा राष्ट्रीय रंगमंच है। जिसकी अपनी भाषा होगी अपनी संवेदनाएं होंगी वही श्रेष्ठ रंगमंच होगा और इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हबीब तनवीर हैं। वरिष्ठ पत्रकार व रंग समीक्षक गिरिजाशंकर ने कहा कि रंगमंच में ह।मेशा से दो धाराएं दिखाई देती है एक लोक की और दूसरी नागर की।
फ़िल्म व रंगमंच के सुप्रसिद्ध अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता का कहना है कि रंगमंच अपने मूलरूप में स्थानीय होता वह उस समाज उस शहर का होता है जहाँ उसकी जड़े होती हैं।
सुप्रसिद्ध नाट्य लेखिका निर्देशिका प्रो त्रिपुरारी शर्मा का मानना है कि ने विचार प्रकट करते हुवे कहा कि हमेशा से ही हमारी थिएटर कम्युनिटी का समाज के प्रति उत्तरदायित्व बना रहता है। लोक व रंगमंच का कलाकार केवल कहानी नही दिखाता बल्कि वह टिप्पणी भी करता है।
भारतीय रंगमंच के सुप्रसिद्ध परिकल्पक (डिज़ाइनर ) एवं निर्देशक प्रो. सत्यव्रत राउत का मानना है कि कला का स्वरूप बहुआयामी होता है उसका कोई एक परिप्रेक्ष्य नही होता है।
वे युवा रंगकर्मियो से कहते हैं की खुद से सवाल करते रहिए कि मैं क्यों हूं और मेरे जीवन का क्या मकसद होना चाहिए. ।नाटककार हमेशा चुनौती का सामना करता है क्योंकि वह क्रांतिकारी होता है. जब भी डॉयलाग बोलेगा, विसंगति के खिलाफ बोलेगा इसीलिए सरकारों को पसंद नही. जबकि अन्य विधाओं गायन—नृत्य में यह खतरा नही है. । उनका मानना है की रंगकर्मियों को पुस्तकें जरूर पढ़ते रहना चाहिए जिससे उनका ज्ञान बढ़ता है. खासकर रंगकर्म से जुड़े कलाकारों की पुस्तकें और जीवनगाथाओं को पढ़े और अधिक से अधिक रिसॅर्च करें ताकि नाटक के लिए नये-नये आइडियाज मिल सकें.
यदि हम हिंदी रंगमंच की बात करें तो इसकी जड़ें प्राचीन भारत में भरतमुनि के “नाट्यशास्त्र” से जुड़ी हैं, जो नाटक और अभिनय के सिद्धांतों को स्थापित करता है। आधुनिक हिंदी रंगमंच का विकास 19वीं सदी में परसी थिएटर और लोक नाट्य परंपराओं जैसे नौटंकी और रामलीला से प्रभावित होकर हुआ। 20वीं सदी में हबीब तनवीर, बाबा कारंत इब्राहिम अल्काजी और बाद में गिरीश कर्नाड जैसे रंगकर्मियों ने इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
यदि हम हिंदी रंगमंच की बात करें तो वह अपने तमाम अभाव , संघर्ष और चुनौतियों के बावजूद जीवंत है । लेकिन चुनौतियों का सामना कर रहा है। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ और भोपाल जैसे शहरों में सक्रिय थिएटर समूह जैसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD), अखिल भारतीय नाट्य परिषद और स्थानीय समूह सामाजिक मुद्दों पर नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके अलावा रायबरेली, भिलाई , बिलासपुर , जगदलपुर , डोंगरगढ़ , रायगढ़ , जबलपुर , छिंदवाड़ा सीधी , आगरा , लखनऊ , आज़मगढ़ , बरेली , पटना , रांची , जैसी जगहों पर रंगमंच की सक्रिय गतिविधियाँ बनी हुई हैं ।
भारत में रंगमंच की परंपरा बहुत पुरानी और समृद्ध है, जो वैदिक काल से लेकर भरत मुनि के नाट्यशास्त्र तक और फिर लोकनाट्य रूपों जैसे रामलीला, रासलीला, नौटंकी, और तमाशा तक फैली हुई है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद और रवींद्रनाथ टैगोर , बादल सरकार , हबीब तनवीर , मोहन राकेश देवेन्द्र राज अंकुर जैसे नाटककारों ने इसे नई ऊँचाइयाँ दीं। लेकिन आज रंगमंच का भविष्य कई चुनौतियों और संभावनाओं के बीच झूल रहा है।
सिनेमा और हाल के वर्षों में OTT प्लेटफ़ॉर्म्स (जैसे नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, और डिज़्नी+ हॉटस्टार) ने दर्शकों के मनोरंजन के तरीके को बदल दिया है। लोग अब घर बैठे उच्च गुणवत्ता वाली कहानियाँ देख सकते हैं, जिससे थिएटर जाने की प्रेरणा कम हो रही है। एक सामान्य दर्शक के लिए रंगमंच में समय और पैसा खर्च करना OTT की सुविधा के सामने कम आकर्षक लगता है।
रंगमंच को चलाने के लिए फंडिंग, प्रायोजक, और दर्शकों की भीड़ चाहिए। भारत में व्यावसायिक रंगमंच सीमित शहरों (जैसे मुंबई, दिल्ली, कोलकाता भोपाल , जयपुर तक ही केंद्रित है, और छोटे शहरों में इसे जीवित रखना मुश्किल है।
रंगमंच अपनी जीवंतता और प्रत्यक्षता के कारण कभी खत्म नहीं हो सकता। यह दर्शकों के साथ सीधा भावनात्मक जुड़ाव बनाता है, जो स्क्रीन पर संभव नहीं। भारत में क्षेत्रीय रंगमंच (जैसे मराठी, बंगाली, और कन्नड़) अभी भी मजबूत है और स्थानीय कहानियों को जीवित रख सकता है।
रंगकर्म में नई तकनीक का उपयोग करके इसे डिजिटल मंचों के साथ रंगमंच का संयोजन (जैसे लाइव स्ट्रीमिंग या हाइब्रिड प्रदर्शन) से नए दर्शकों तक पहुँचा सकता है।चीन का ड्रामा बाक्स इसका ताज़ा उदाहरण है ।
भारत में रंग मंच का भविष्य
भारत में रंगमंच का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितना अनुकूलन कर पाता है। अगर यह डिजिटल युग के साथ तालमेल बिठा सके और अपनी अनूठी पहचान बनाए रखे, तो यह जीवित रहेगा। वैश्विक स्तर पर रंगमंच अभी भी प्रासंगिक है, लेकिन इसे OTT और सिनेमा की चुनौतियों से पार पाने के लिए नवाचार चाहिए। रंगमंच कभी पूरी तरह खत्म नहीं होगा, क्योंकि यह एक जीवंत, मानवीय अनुभव है, जो स्क्रीन पर दोहराया नहीं जा सकता। लेकिन इसका स्वरूप और पहुँच निश्चित रूप से बदल रही है।नाटक अपनी हर प्रस्तुति में नया होता है । पहली प्रस्तुति ज़रूरी नहीं है की दूसरी प्रस्तुति से कमतर हो , हाँ अलहदा ज़रूर हो सकती है । नाटकों की प्रस्तुति में अक्सर स्थान यानी प्रेक्षागृह जिसे थियेटर के नाम से ज़्यादा जाना जाता है , स्थान , दर्शक , कलाकार और पूरी टीम का सामूहिक प्रदर्शन से नाटक हर बार नया और प्रभावी या अप्रभावी होता है । अच्छी स्कीप्ट और नाटक के निर्देशक पर भी नाटक बहुत कुछ निर्भर करता है ।