जैन समाज का आत्मशुद्धि और संयम का महापर्व प्रयुषण आज से आरंभ हो गया है। यह पर्व केवल धार्मिक आयोजन ही नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, करुणा और क्षमा का जीवंत संदेश है।

प्रयुषण का अर्थ और महत्व
‘प्रयुषण’ का अर्थ है – आत्मा में ठहरना। इसका उद्देश्य है कुछ समय के लिए सांसारिक मोह-माया से दूर होकर आत्मशुद्धि और मोक्ष की ओर बढ़ना।
पर्व की अवधि
- श्वेतांबर समाज – 8 दिन तक अष्टान्हिका पर्व।
- दिगंबर समाज – 10 दिन तक दशलक्षण पर्व।
इन दिनों में श्रद्धालु व्रत, उपवास, स्वाध्याय और ध्यान करते हैं। मंदिरों में विशेष पूजन और प्रवचन का आयोजन होता है।
व्रत और तपस्या की परंपरा
श्रद्धालु अपनी क्षमता के अनुसार उपवास करते हैं –
- कोई पूर्ण उपवास करता है।
- कोई एकासना (दिन में एक बार भोजन) करता है।
- कुछ लोग केवल जल या फलाहार ग्रहण करते हैं।
यह तपस्या आत्मिक शक्ति को जागृत करने का माध्यम मानी जाती है।
धार्मिक गतिविधियाँ
पूरे पर्व के दौरान जिनालयों में पूजा, प्रवचन और जप-ध्यान का माहौल रहता है। साधु-साध्वियाँ अहिंसा, संयम और क्षमा का महत्व बताते हैं।
क्षमा और ‘मिच्छामी दुक्कड़म्’
पर्व का सबसे भावुक क्षण होता है अंतिम दिन की क्षमा याचना। जैन समाज के लोग एक-दूसरे से कहते हैं –
“मिच्छामी दुक्कड़म्” अर्थात यदि मुझसे कोई भूल हुई हो तो कृपया क्षमा करें।
मानवता का संदेश
प्रयुषण पर्व सिखाता है –
- क्रोध, लोभ और अहंकार का त्याग।
- करुणा, क्षमा और अहिंसा को अपनाना।
- आत्मा को शुद्ध कर मोक्ष की ओर बढ़ना।
आने वाले आठ-दस दिनों तक भक्ति, संयम और क्षमा का यह उत्सव पूरे समाज में भाईचारे का वातावरण बनाए रखेगा।