सुप्रीम कोर्ट का आवारा कुत्तों पर फैसला: सुरक्षा बनाम संवेदना की जंग


सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिल्ली-एनसीआर से आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर शेल्टर होम भेजने का आदेश दिया है। आदेश का मकसद साफ था, सड़क पर रह रहे इंसानों और जानवरों दोनों के लिए सुरक्षित माहौल बनाना। लेकिन फैसले के बाद जो माहौल बना, वह कानून से ज़्यादा भावनाओं और अवैज्ञानिक ‘एक्टिविज़्म’ के इर्द-गिर्द घूमने लगा।

कुत्तों से सह-अस्तित्व में रहना कोई नई बात नहीं है। भारतीय समाज ने सदियों से गली के कुत्तों के साथ जीना सीखा है। समस्या तब पैदा होती है जब कुछ लोग कुत्ता-प्रेम को एक्टिविज़्म की हद तक ले जाकर पूरी सोसायटी पर थोप देते हैं। नोएडा, गुरुग्राम और दिल्ली की दर्जनों सोसायटियों में यही हो रहा है। जहां मुश्किल से 5% लोग ‘डॉग लवर्स’ होते हैं, लेकिन 95% रेजिडेंट्स को उनके फैसलों के हिसाब से चलना पड़ता है।

सोसायटी की सच्ची कहानियां

नोएडा की लोटस जिंग सोसायटी के रेजिडेंट धर्मेंद्र सिंह ने अपने ग्रुप में लिखा, “समस्या कुत्तों से नहीं, बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा दखल देने वाले कुत्ता प्रेमियों से है। अगर कोई कह दे कि कुत्तों को थोड़ी दूर हटकर खिला दें, तो वे ऐसे भड़कते हैं जैसे किसी ने उनके जीवन का मिशन तोड़ दिया हो।”

धर्मेंद्र के शब्दों में, यह ‘मानसिक विकलांगता’ तब और खतरनाक हो जाती है जब कुत्तों की आक्रामक हरकतों की शिकायत करने वाले को ही विलेन बना दिया जाता है। नतीजा कुत्ते और बिगड़ते हैं, इंसान डर में जीता है।

मशहूर पॉडकास्ट तीन ताल के किरदार खानचा की कहानी भी इसी का सबूत है। उनकी सोसायटी में बेसमेंट में एक मेड पर कुत्ता झपट पड़ा, तो गार्ड ने डंडा दिखाकर उसे भगाया। नतीजा गार्ड को गालियां और अपमान। जब कुत्तों को शेल्टर भेजने की कोशिश हुई, तो मुट्ठीभर एक्टिविस्ट कार से पीछा कर गाड़ी को रोक लाए और कुत्तों को वापस सोसायटी में छोड़ने पर मजबूर कर दिया। भले ही वही कुत्ते पहले दर्जनों लोगों को काट चुके थे।

खतरनाक आंकड़े और अनदेखा सच

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक, दुनिया में रेबीज़ से होने वाली कुल मौतों में 36% भारत में होती हैं—जो सबसे ज्यादा है। हर साल हजारों लोग, खासकर बच्चे और बुजुर्ग, कुत्तों के काटने का शिकार बनते हैं। हाल के वर्षों में यह खतरा बढ़ा है और सोशल मीडिया ऐसे वीडियो से भरा पड़ा है, जिनमें आवारा कुत्ते हिंसक हमले करते दिखते हैं।

सवाल जो टालना मुश्किल है

क्या भावनाओं के नाम पर कुत्तों को सड़कों और सोसायटियों में छोड़ देना सही है? क्या कुछ लोगों का प्रेम, बाकी लोगों की सुरक्षा से ऊपर है? क्या सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानने के बजाय एक्टिविज़्म की आड़ में उसका विरोध करना समाज के लिए खतरा नहीं?

यह बहस सिर्फ कुत्तों की नहीं, बल्कि हमारी प्राथमिकताओं की है। एक तरफ इंसान की जान दूसरी तरफ जानवर के प्रति संवेदना। संतुलन ज़रूरी है, लेकिन जब संवेदना, विज्ञान और कानून पर भारी पड़ने लगे, तो वह संवेदना नहीं, अराजकता बन जाती है।

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