राहुल गांधी ने सप्रमाण इन्हें वोट -चोर बताया है लेकिन फिर भी बहुत कम बताया है। बहुत ही नरम, बहुत ही छोटा-सा और बेहद ही शालीन-सा आरोप लगाया है, जिससे इनका कुछ खास बिगड़ता नहीं। ये इससे बहुत ज्यादा के हकदार हैं। राहुल गांधी ने इनका यह हक छीना है। डाकू को चोर का दर्जा दिया है, जिससे डाकू भी खुश नहीं हैं और चोर भी।
डाकू अपनी पदावनति चोर के रूप में नहीं चाहता और चोर तब खुश होता है, जब उसे डाकू माना जाए!
सच तो यह है कि राहुल जी, ये चोर और डाकू से भी बहुत आगे हैं। इनके लिए कोई नया ही शब्द गढ़ना पड़ेगा। ये न हिन्दू हैं, न सनातनी हैं। दरअसल सियारों ने शेर की खाल ओढ़ रखी है। ये जो दूसरों की नागरिकता पर सवाल उठाते हैं, खुद भी भारतीय हैं क्या? इनका भारत में जन्म लेना महज एक संयोग है, एक सुविधा है, एक तरह का वैध लाइसेंस है, ठगने का धंधा है। इससे अधिक कुछ नहीं!
सच कहें तो ये इंसान भी नहीं हैं। इनके मानव होने का एकमात्र आधार इनकी ये दो टांगे हैं, जिनसे ये चलते-फिरते हैं और इंसानों जैसी आवाज में बोलते हैं।जैसे चार टांग के सभी जीव शेर या हाथी या हिरण नहीं होते, कीड़े-मकोड़े होते हैं, उसी तरह सभी दो टांगिये भी मनुष्य नहीं होते। मनुष्य की आवाज में बोलना, मनुष्य होना नहीं है। मनुष्य की तरह कपड़े पहनना, मनुष्य होना नहीं है। कई बार तो कुछ मनुष्य रूपी ऐसे जीवों को देखकर लगता है कि मनुष्यता अगर जीव का स्वाभाविक गुण है, तो कई बार तो कुत्ते आदि पालतू जानवर इनसे अधिक मनुष्य साबित होते हैं।

जो अपने देश, अपने प्रदेश के लोगों के खून से प्यास बुझाकर आगे बढ़ते हैं, वे उस देश के कैसे हो सकते हैं?वे सिर्फ सत्ता के लिए हैं और सत्ता के लिए ही रहेंगे। सत्ता के लिए ये कुछ भी हो सकते हैं। कल इन्हें धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी लगे, तो फट से ये चोला बदल लेंगे। कल समाजवादी होने की जरूरत पड़ जाए, तो ये समाजवाद का झंडा उठाकर आगे-आगे चलने लगेंगे। ये बहुरूपिए हैं। इनका नेता बार-बार दिखाता भी है कि मैं ही नहीं, हम सब बहुरूपिये हैं। ये कुछ भी बनने के लिए कुछ भी बलिदान नहीं करते। ये दूसरों का बलिदान लेकर खुद बलिदानी बन जाते हैं।
सत्ता के लिए जो भी घपले- घोटाले इन्हें और करने होंगे, ये बेशर्मी से करेंगे। जैसे-जैसे इनके रहस्य खुलते जाएंगे, वैसे-वैसे ये और बेशर्म होते जाएंगे। ये शर्माने वाले, झिझकने वाले जीव नहीं हैं। इन्होंने संपूर्ण सत्ता के लिए लगभग 90 साल इंतजार किया है। इनके लिए जनता, चुनाव और लोकतंत्र एक बहाना है। सत्ता ही इनके लिए सत्यम, शिवम और सुंदरम है।
पोल खुलती है इनके किसी कृत्य की, तो उसे ये उस काम की वैधता का लाइसेंस मानने लगते हैं। ये लोकतंत्र, लोकतंत्र खेलना जानते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि ये लोकतांत्रिक हैं। ये देशभक्ति, देशभक्ति खेलना जानते हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि ये देशभक्त हैं। देशभक्ति और लोकतंत्र वह खाल है, जिसे ओढ़कर ये सनातनी-सनातनी खेल रहे हैं। इनका खेल वाशिंगटन से पटना तक बिगड़ता जा रहा है, इससे ये परेशान हैं, हताश हैं। चिड़चिड़े हो रहे हैं। नेहरू-नेहरू जप रहे हैं।

विष्णु नागर
राहुल गांधी ने अच्छा किया कि बंगलूरू के एक विधानसभा क्षेत्र में इन्होंने किस-किस किस्म की बेईमानियां की हैं, इसे प्रमाण सहित उजागर कर दिया। ये साबित कर दिया कि चुनाव अब शत-प्रतिशत जनता के नाम पर किया जानेवाला एक फर्जीवाड़ा है, आपका वोट अब किसी काम का नहीं, क्योंकि अपनी जीत कितने वोटों से और कहां और कब होनी है, यह इन्होंने आज ही दिल्ली में बैठकर तय कर लिया है। लोकतंत्र-लोकतंत्र खेलने के लिए कभी-कभी ये कुछ जगह स्वेच्छा से हारते भी रहे हैं। कुछ ज्यादा ही सच उजागर हो गया तो संभव है, ये बिहार में पीछे हटकर पश्चिम बंगाल में जीतने का खेल, खेलें। ये अभी लोकतंत्र-लोकतंत्र और खेलेंगे। दुनिया में सब यह खेल, खेला जा रहा है, तो ये भी भरपूर खेलेंगे। जैसे ट्रंप खेल रहा है, उस तरह ये भी खेलेंगे। जिस तरह पुतिन खेल रहा है, उस तरह ये भी खेलेंगे। और नहीं खेलने दिया, तो खेल बिगाड़ेंगे और अपने को जीता हुआ घोषित कर देंगे!
अब किसी के वोट की कोई कीमत नहीं रह गई। वोट देना अपने अहम को तुष्ट करना रह गया है। जो मर चुके हैं, उन्हें इन्होंने वोटर के रूप में जिंदा कर दिया है और जो जिंदा हैं, उनकी इन्होंने वोटर लिस्ट में अंत्येष्टि कर दी है।अगली कवायद मृतकों को चुनाव लड़वाने और उन्हें जितवाने की हो सकती है। मृतक विजेता को जीत का प्रमाण पत्र निर्वाचन आयोग नि: संकोच होकर देगा।आजादी के बाद पहली बार विजयी मृतक के जुलूस में देश के तीनों निर्वाचन आयुक्त भी शामिल होंगे और लोकतंत्र की विजय का नारा लगाते हुए सबसे आगे चलेंगे। एक दिन मृतक ही मुख्यमंत्री और मृतक ही प्रधानमंत्री होंगे। जीवितों का काम उनका पंखा झलना होगा!
उस दिन तक जीवित रहने की प्रार्थना अपने ईश्वर से कीजिए, ताकि ‘लोकतंत्र’ का यह नज़ारा आपकी आंखों के सामने से गुजरे! आप जल्दी ही अपनी रवानगी ऊपर मत डालिएगा। यह दृश्य देखकर ही जाइएगा। कोशिश तो मेरी भी यही रहेगी।
(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
- मोदी जी और चुनाव आयोग – ये रिश्ता क्या कहलाता है! : राजेंद्र शर्मा
राहुल गांधी ने चुनाव आयोग की पोल खोली। उसे काफी भला-बुरा कहा। और तो और ‘‘वोट चोर’’ तक कह दिया। पर चुनाव आयोग ने मुंह नहीं खोला। उसकी तरफ से बोले भी, तो सिर्फ सूत्र बोले। बेशक, सूत्र थोड़ा नहीं, खूब बोले। और तो और, ‘‘वोट चोर’’ की गाली के जवाब में, उतने ही जोर से ‘‘माफी मांगो’’ भी बोले — शपथ पत्र दो, नहीं तो माफी मांगो! फिर भी, सूत्र तो सूत्र ही होते हैं। सूत्र तो जैसे अनदेखे प्रकट होते हैं, वैसे ही संदेश कारगर नहीं हो, तो अनदेखे ही गायब भी हो जाते हैं।
सूत्रों से आने वाला जवाब तो कोई जवाब नहीं है, बच्चू। जवाब वह है जो, सवाल चुनाव आयोग से होता है, तो जवाब आता है किरण रिजीजू और संबित पात्रा का यानी मोदी पार्टी का। देश जानना चाहता है कि ये रिश्ता क्या कहलाता है? वैसे ऐसा रिश्ता अक्सर मियां-बीवी का होता है, वह भी पुराने मियां-बीवी का। बीवी से सवाल पूछो, तो मियां जी खुद ब खुद जवाब देने लग जाते हैं। और मियां से कुछ कह दो, तो बीवी नाराज हो जाती है, गरियाने पर उतर आती है। तो क्या यह वही रिश्ता है? वैसे ऐसा मामला सहजीवन का भी हो सकता था, लेकिन वह मोदी पार्टी को मंजूर नहीं होगा। आखिरकार, संस्कारी पार्टी है। तो क्या यह रिश्ता बाकायदा जन्म-जन्मांतर वाला गठबंधन ही कहलाता है यानी साझा राज, साझा संपत्ति, साझा घर। होने को तो साझा सरनेम भी, मगर वह कंपल्सरी नहीं है, बल्कि अब तो कुछ-कुछ आउट ऑफ फैशन सा हो चला है।

और इस रिश्ते में पब्लिक कहां आती है। बिहार की पब्लिक इस समय खासतौर पर परेशान है, चुनाव आयोग और अपने रिश्ते को लेकर। सिद्धांत यह कहता है कि गठबंधन वाला रिश्ता होना तो वास्तव में पब्लिक और चुनाव आयोग का चाहिए। वह भी परंपरागत गठबंधन वाला। यानी पब्लिक का आसन ऊंचा और चुनाव आयोग का आसन उससे ठीक-ठाक नीचे। पर यह सिर्फ सिद्धांत कहता है। विरोधियों की मानें तो मोदी पार्टी, पब्लिक और चुनाव आयोग के गठबंधन को तुड़वाकर, चुनाव आयोग को ले उड़ी है और सिर्फ ले ही नहीं उड़ी है, उसके साथ बाकायदा घर बसाकर भी बैठ गयी है।
बेशक, यह कोई यूं ही नहीं हो गया। इसके लिए मोदी पार्टी को काफी मेहनत भी करनी पड़ी है। बाकी चीजों के अलावा बाकायदा चुनाव आयोग का दिल जीतना पड़ा है। इसके लिए खासतौर पर चुनाव आयुक्तों के ही चयन का तरीका बदलना पड़ा है। बीच में सुप्रीम कोर्ट ने टांग अड़ा दी थी। उसका कहना था कि आयोग वही जो मोदी मन भाए, डैमोक्रेसी में नहीं चलेगा। ऐसा आयोग, पब्लिक और चुनाव आयोग के रिश्ते के लिए ठीक नहीं था। पर मोदी जी ने अपनी पार्टी और आयोग के रिश्ते के रास्ते की हरेक बाधा को ही मिटाने मन बना लिया था। कानून बनाकर, झटपट सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को अपने और चुनाव आयोग के बीच से हटा दिया। एक बार फिर इसका इंतजाम कर दिया कि चुनाव आयोग वही, जो मोदी मन भाए।
अब बिहार में पब्लिक को पता चल रहा है, चुनाव आयोग से नाता टूटने का नतीजा। मोदी पार्टी की नयी-नयी वफादारी के चक्कर में आयोग ने पब्लिक के सिर पर सर की आफत डाल दी। 65 लाख पुराने वोटरों के नाम कट गए। और कटे भी ऐसे, जैसे उनके नाम कभी लिस्ट में थे ही नहीं। अब जिसको नाम चाहिए, नये सिरे से वोटर के रूप में भर्ती के लिए पर्चा दाखिल करो, दस्तावेज लगाओ, तब अगर बड़े बाबू संतुष्ट हुए तो वोट का अधिकार मिल सकता है, वर्ना भूल जाओ! वोट देना कोई मौलिक अधिकार थोड़े ही है! और दूसरे करोड़ों के नाम दस्तावेज जमा न होने के चक्कर में अधर में अटक गए हैं। किस का वोट रहे और किस का कट जाए, कोई नहीं जानता। यह भी बड़े बाबू के रहमो-करम पर है, किस का क्या दस्तावेज जरूरी हो जाए और किस का क्या दस्तावेज काफी हो जाए, कोई नहीं जानता। और अब सुप्रीम कोर्ट के आगे चुनाव आयोग ने साफ कह दिया है, जिन पैंसठ लाख के नाम कट गए, उनकी कोई सूची नहीं दी जाएगी। पब्लिक को ऐसी सूची मांगने-पाने का हक ही नहीं है। पब्लिक को यह जानने का भी हक नहीं है कि किस का नाम किसलिए काटा गया है। पब्लिक का ना जानकारी का हक और चुनाव आयोग का नहीं बताने का हक ही, सबसे ऊपर हैं।
वैसे विपक्ष वाले नाहक चुनाव आयोग और मोदी पार्टी के रिश्ते को अवैध कहकर बदनाम करते हैं। इस रिश्ते का कम से कम यह मतलब नहीं है कि आयोग और विपक्षी पार्टियों का रिश्ता, दुश्मनी का ही रहेगा। राज करने वालों की जुगल-जोड़ी देखकर, विपक्ष का जलना भी तो कोई सही बात नहीं है। सच पूछिए तो चुनाव आयोग तो अब भी विपक्ष का भी उतना ही ख्याल रखता है, जितना किसी और का। विपक्ष वालों के मांगने पर, वे जिस मशीन से पढ़े जाने लायक रूप में वोटर लिस्ट चाहते हैं, उस रूप में अगर आयोग नहीं दे रहा है, तो क्यों? जाहिर है कि इसीलिए कि विपक्षी पार्टियों के लोग, जो चुनाव नतीजे आ चुके, उन पर माथाफोड़ी में अपना टैम और इनर्जी बर्बाद नहीं करें।
बिहार में भी, मसौदा सूची मशीन से पढ़े जाने वाले रूप में मुहैया कराने के हफ्ते भर बाद ही चुनाव आयोग ने अपनी गलती को सुधार लिया और मसौदा सूची को भी मशीन से पढ़ने का रास्ता बंद कर दिया। आखिर क्यों? मशीन के भरोसे विपक्षी तो विपक्षी, इक्का-दुक्का पत्रकार भी, इतने बड़े काम में तरह-तरह से खोट निकालने में अपनी एनर्जी बर्बाद कर रहे थे और कभी शून्य पते वाले वोटरों के बहाने, तो कभी एक-एक घर में दो-दो सौ वोटरों, एक-एक परिवार में चालीस-पचास सदस्यों के होने या मर चुके लोगों के नाम सूची में पहुंच जाने के बहाने, समाज में नेगेटिविटी फैला रहे थे। यह चुनाव आयोग से देखा नहीं गया। और जो विपक्ष के कहने पर मतदान के खास समय की वीडियो रिकार्डिंग नहीं देने, बल्कि नष्ट करने की चुनाव आयोग ने ठान रखी है, तो आयोग के पिछले मुखिया राजीव कुमार पहले ही बता चुके थे, इस फुटेज को देखने में तो किसी को भी 273 साल लग जाएंगे। आयोग नहीं चाहता है कि पब्लिक का समय बेकार में ऐसी चीजों में बर्बाद हो। पब्लिक से चुनाव आयोग का रिश्ता भले ही एक्स यानी पूर्व का कहलाता हो, आयोग को अब भी पब्लिक की परवाह है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)