राजा निरवंशी हो सकता है, जन कलाकार नहीं

हिंदू पौराणिक परंपरा में पुत्र को पिता की सार्थकता का आधार माना गया है। यह धारणा रही है कि मृत्यु के बाद भरा-पूरा परिवार शवयात्रा में शामिल हो, कर्मकांड भव्यता से संपन्न हों और जनसमूह शोक व्यक्त करे। इसी वजह से निरवंशी होना शाप की तरह समझा गया। राजा-सामंतों की शवयात्रा इसलिए गर्व और ईर्ष्या का विषय मानी जाती थी क्योंकि वहाँ जनसमूह की भीड़ होती थी।

लेकिन यह मिथक जबलपुर के रंगकर्मी अरुण पांडे की मृत्यु ने तोड़ दिया। 31 सितंबर को उनके निधन के बाद उनकी शवयात्रा में जनगीत गूँज रहे थे। राईट टाउन गेट नंबर चार से ग्वारीघाट तक निकली इस यात्रा में परिवारजन ही नहीं, बल्कि असंख्य परिचित-अपरिचित, शिष्य और रंगकर्मी शामिल थे। यह दृश्य साबित करता है कि एक कलाकार का असली परिवार उसकी कला और उसके लोग होते हैं।

अरुण पांडे ने अपने जीवन की शुरुआत इप्टा और बाद में विवेचना रंगमंडल से की। उन्होंने देश भर में रंग कार्यशालाएँ कीं, असंख्य नाटकों का निर्देशन किया और प्रायः बिना पारिश्रमिक लिए मंचन किया। वे अपने आप में एक नाट्य विद्यालय थे। रंगकर्म की अगली पीढ़ी को गढ़ना ही उनका सबसे बड़ा ध्येय था।

उनकी निर्देशकीय यात्रा में आधे-अधूरे, अंधा युग, घासीराम कोतवाल, ताम्रपत्र और आषाढ़ का एक दिन जैसे नाटक विशेष रूप से चर्चित रहे। इन प्रस्तुतियों में उन्होंने कलाकारों को केवल अभिनय ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि भी दी। कई रंगकर्मी याद करते हैं कि कार्यशाला खत्म होने के बाद भी अरुण पांडे उन्हें घंटों बैठाकर लोकगीत, जनगीत और बस्तर की बोलियों तक समझाते थे। उनके निर्देशन में नाटक सिर्फ मंचन नहीं, बल्कि जीवन के सवालों से टकराने का माध्यम बनते थे।

जबलपुर को संस्कारधानी कहे जाने की परंपरा भी ऐसे ही व्यक्तित्वों से बनी है। हरिशंकर परसाई, रामेश्वर गुरु, आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी, ज्ञानरंजन, अलखनंदन और अब अरुण पांडे—इन सबकी जीवनधारा आने वाली पीढ़ियों के लिए संस्कार की तरह बहती रही है। परसाई ने लिखा था कि एक शहर की पहचान उसके लोगों से बनती है। अरुण पांडे ने यह कथन अपने जीवन से सिद्ध किया।

कलाकार के लिए उसकी कला ही उसकी संतान है। वही उसे अमर करती है, जाति-धर्म की परिधि से परे एक नई पहचान देती है। अरुण पांडे की शवयात्रा और देशभर से उमड़ी श्रद्धांजलि ने यह साबित कर दिया कि कला व्यक्ति को कितना व्यापक परिवार और सच्चा सम्मान देती है। बड़े-बड़े धनपति और सत्ता-पुरुष भी ऐसी सच्ची श्रद्धांजलि के आकांक्षी रह जाते हैं।

व्यक्ति की लोकप्रियता का असली आकलन उसकी मृत्यु के बाद की प्रतिक्रियाओं से होता है। अरुण पांडे इस अर्थ में सचमुच जीवित रहेंगे—अपने नाटकों, अपने जनगीतों और अपने शिष्यों की स्मृति में।

स्मृति शेष -मित्र अरूण पांडे

जबलपुर रंगमंच के पितामह

सन 2000 का शुरुआती वर्ष। वो हमारे रंगमंच के शुरुआती दशक थे। हमने अभी रंगमंच के क्षेत्र में आंख खोलना शुरू ही किया था कि हमने एक नाटक देखा, परसाई जी की रचना थी और निर्देशक थे अरुण पांडे। हम व्यक्तिगत रूप से उन्हें नहीं जानते थे लेकिन उस नाटक का प्रभाव आज तक है। यही एक सच्ची कला की सार्थकता है कि वो देखनेवालों की स्मृतियों में सदा के लिए अंकित हो जाए। अरुण पांडे द्वारा परिकल्पित विवेचना की ऐसी अनगिनत नाट्य कृतियां हैं जो दर्शकों के स्मृतियों पर अंकित हैं।
वो उस ज़माने के रंगकर्मी हैं जब रंगमंच करना घर फूंक तमाशा देखने का उपक्रम हुआ करता था। उन्होंने न केवल ज़मीन बनाई बल्कि उस स्थान को इतना ज़्यादा उर्वरक बना दिया कि आने वाली पीढ़ी वहां इत्मीनान से लहलहाती फ़सल उगा सके। बेफिक्र, बेलौस, जीवन का जम कर लुत्फ़ उठानेवाले अरूण पांडे सर का ना जीवन और घर रंगमंच से अलग था और ना ही रंगमंच घर और जीवन से अलग। रंगकर्म के अनगिनत पौधों को लगाने, उगाने, उसे पोषित करनेवाले रंगकर्मी का नाम था अरुण पांडे। यह कहा जाए तो शायद कहीं से कोई अतिश्योक्ति न होगी – जबलपुर रंगमंच के पितामह थे अरुण पांडे।

-पुंज प्रकाश,रंगकर्मी, पटना

भारतीय रंगमंच के सच्चे साधक थे

अरुण पांडे जी भारतीय रंगमंच के सच्चे साधक थे। अपने साथी रंगकर्मियों से अगाध प्रेम करने वाले। उनके बुलावे पर हमने जबलपुर में कई नाटकों के प्रदर्शन किए। पूरे देश में सबसे बढ़कर जबलपुर में हमें दर्शकों का प्यार मिला।

बेहतरीन दर्शक वर्ग बनाया था अरुण जी ने अपने अथक प्रयास से। अलग अलग कवियों की कविताओं की प्रस्तुतियां जो अरुण जी ने की शायद ही किसी ने किया हो। जब तक जिय नाटक के लिए जिये जब तक नाटक किए तब तक जिये। नाटक का किसान, मिट्टी का लाल, मिट्टी में समाहित हो गया। अलविदा भाई साहब

विजय कुमार,फिल्म एंव नाट्य अभिनेता निर्देशक, मुंबई

हमें रंगमंच की जमीन से जोड़ा और सिखाया

“अरुण भाई सिर्फ गुरु नहीं, एक आंदोलन थे। उन्होंने हमें रंगमंच की ज़मीन से जोड़ा और सिखाया कि कलाकार को जनता से बड़ा रिश्ता निभाना होता है।”

भूपेंद्र साहू , रंगकर्मी

न की कार्यशाला किताबों से ज्यादा जीवन की पाठशाला थीं

“हमारे लिए अरुण पांडे सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक जीवित संस्था थे। उनकी कार्यशालाएँ किताबों से ज्यादा जीवन की पाठशाला थीं।”

रचना मिश्रा, नाट्य निर्देशिका

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *