रायपुर: सनातन परंपरा में मातृशक्ति की पूजा का विशेष महत्व है, और नवरात्रि का पांचवां दिन मां स्कंदमाता को समर्पित है। इस स्वरूप में देवी अपनी गोद में छह मुख वाले कार्तिकेय को लिए हैं, जो संसार की रक्षा के लिए जन्मे। स्कंदमाता का यह रूप मां की भूमिका को दर्शाता है, जो संरक्षण, पालन-पोषण और प्रेरणा का प्रतीक है।
मां का महत्व: संरक्षण और प्रेरणा
मां अपने बच्चे को जन्म देती है, उसका पालन करती है और जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करती है। जब तक संतान सक्षम न हो, मां उसकी रक्षा करती है। स्कंदमाता की प्रतिमा में कार्तिकेय, जो देवताओं के सेनापति बने, उनकी गोद में हैं। यह दर्शाता है कि संतान की हर उपलब्धि मां की प्रेरणा और शक्ति से संभव होती है। चाहे संतान कितनी भी ऊंचाइयों को छू ले, मां की गोद में वह हमेशा बालक ही रहता है।
ललिता देवी: स्कंदमाता का आध्यात्मिक स्वरूप
स्कंदमाता को आध्यात्मिक रूप में ललिता देवी, त्रिपुरसुंदरी या षोडशी के नाम से जाना जाता है। वे सौंदर्य, शक्ति और ज्ञान का संगम हैं। दस महाविद्याओं में से एक, ललिता देवी त्रिदेवी (सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती) का हिस्सा हैं और श्री विद्या तंत्र की प्रमुख देवी मानी जाती हैं। उनका स्वरूप 16 वर्षीय कन्या का है, जो चार भुजाओं में पाश, अंकुश, गन्ने का धनुष और फूलों के तीर धारण किए कमल पर विराजती हैं। हंस या तोते की सवारी करने वाली यह देवी पवित्रता, विवेक और आध्यात्मिक जागृति की प्रतीक हैं। उनकी साधना भौतिक सुख और आत्मिक मुक्ति दोनों प्रदान करती है।
पौराणिक कथाएं
ब्रह्मांड पुराण, कालिका पुराण और देवी महात्म्य में ललिता देवी की कथाएं वर्णित हैं। कालिका पुराण के अनुसार, वे दो भुजाओं वाली, गौर वर्ण, रक्त कमल पर विराजमान हैं और दक्षिणमार्गी शाक्तों में चंडी के समान पूजनीय हैं। देवी महात्म्य में उनकी कथा त्रिपुरासुर के संहार से जुड़ी है। त्रिपुरासुर ने तीनों लोकों पर कब्जा कर लिया था। तब ललिता देवी ने शिव के भीतर सूक्ष्म रूप में रहकर त्रिपुर का विनाश किया। इसीलिए शिव त्रिपुरारी और देवी त्रिपुरसुंदरी कहलायीं। यह कथा अज्ञान से आत्मज्ञान की ओर यात्रा का प्रतीक है।
ललिता देवी सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार की शक्ति हैं। ललितोपाख्यान में वे शिव की अर्धांगिनी के रूप में सृष्टि की लीला रचती हैं। उनकी साधना कुंडलिनी जागरण से जोड़ी जाती है, जो साधक को असीम ऊर्जा, मानसिक शांति और बाधाओं से मुक्ति देती है। तंत्र परंपरा में उन्हें “शिवा” कहा जाता है, जो शिव के साथ एकता का प्रतीक है। उनकी आराधना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पूजा विधि
ललिता देवी की पूजा सरल और समर्पण से भरी है। उपांग ललिता पंचमी, गुप्त नवरात्रि का तीसरा दिन और ललिता जयंती (माघ पूर्णिमा) उनके प्रमुख पूजा दिवस हैं। ललिता सहस्रनाम का पाठ, जिसमें उनके 1000 नाम जैसे “अम्बिका”, “त्रिपुरसुंदरी” शामिल हैं, शांति और सफलता देता है। मंत्र जप के लिए “ॐ श्री महा त्रिपुर सुंदरी महामन्त्राय नमः” या षोडशी मंत्र का 108 बार जप करें। पूजा के लिए शांत स्थान, लाल वस्त्र, चंदन-कुमकुम का तिलक, दूध, शहद और गुलाबजल से अर्घ्य अर्पित करें। ब्रह्म मुहूर्त में जप और फलाहार व्रत से सिद्धि मिलती है।
आध्यात्मिक महत्व
ललिता देवी की साधना साधक को सांसारिक सुख, समृद्धि, साहित्यिक उत्कृष्टता और साहस प्रदान करती है। वे भुवनेश्वरी और मातंगी जैसी सौम्य देवियों का प्रतीक हैं, जो नैतिकता और सदाचार सिखाती हैं। उनकी कृपा से जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति और समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं। आज के तनावपूर्ण युग में उनकी आराधना प्रेम, भक्ति और आनंद का संचार करती है।
ललिता देवी की पूजा जीवन को दिव्य ऊर्जा से भर देती है। उनकी कथाएं प्रेरणा देती हैं, उनका महत्व जीवन को दिशा देता है, और उनकी साधना मुक्ति का मार्ग खोलती है।