यूं तो छत्तीसगढ़ बहुत शांत राज्य है किन्तु नक्सली गतिविधियों की वजह से यह पिछले तीन दशकों से ख़ासी चर्चा में रहा। अब सरकार मार्च 26 तक नक्सलवाद के ख़ात्मे का ऐलान कर चुकी है और कार्रवाई भी तेज़ है, ऐसे में लोगों को लगता है कि नक्सलवाद तो खत्म हो जायेगा किन्तु इससे पहले से चली आ रही धर्मांतरण की समस्या जिसे स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव घर वापसी कार्यक्रम के ज़रिए खत्म करना चाहते थे, वह समस्या यथावत बनी हुई है। पहले सरगुजा क्षेत्र में और अब बस्तर से धर्मांतरण को लेकर टकराव की खबरें आती हैं। अभी हाल ही में दुर्ग स्टेशन पर छत्तीसगढ़ में 3 महिलाओं को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण और तस्करी के आरोप में 2 नन को गिरफ्तार किया गया है। घटना 25 जुलाई 2025 को दुर्ग रेलवे स्टेशन पर बजरंग दल कार्यकर्ताओं की शिकायत पर जीआरपी पुलिस ने दो कैथोलिक नन सिस्टर प्रीसिंला नन के साथ मारपीट, गिरफ़्तारी की अनुगूंज लोकसभा तक में सुनाई दी। मामला न्यायालय में है, जिसकी 1 अगस्त को एनआईए कोर्ट में सुनवाई हुई। 2 अगस्त के लिए कोर्ट ने ननों की जमानात पर फैसला सुरक्षित रखा है। ये नन केरल की असीसी सिस्टर्स ऑफ मैरी इमैक्युलेट (एएसएमआई)से जुड़ी हुई थी और तीन आदिवासी महिलाओं को आगरा ले जा रही थीं, जहां उन्हें नर्सिंग ट्रेनिंग या नौकरी के लिए जाना था। महिलाओं के माता-पिता की सहमति थी, लेकिन हिंदू संगठनों जैसे बजरंग दल ने स्टेशन पर प्रदर्शन किया और आरोप लगाया कि यह जबरन रूपांतरण का मामला है। ननों को जेल भेजा गया है। यह घटना राजनीतिक विवाद का कारण बनी, जहां कांग्रेस ने इसे फर्जी केस बताया और ईसाई समुदाय ने इसे उत्पीडऩ का उदाहरण मानते हुए संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय अदालत का रुख किया। ईसाई संगठनों का कहना है कि ऐसे आरोप अल्पसंख्यकों को डराने के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं।
भारत में धर्मांतरण विरोधी कानून (एंटी-कन्वर्जन लॉ) 12 राज्यों में लागू हैं, जिनमें छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। ये कानून जबरन, धोखे या लालच से धर्म परिवर्तन को रोकते हैं और सजा 10 साल तक की जेल या आजीवन कारावास तक हो सकती है। छत्तीसगढ़ में यह कानून 2000 से लागू है, लेकिन हाल के वर्षों में कई राज्यों ने इसे सख्त बनाया है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र ने दिसंबर 2025 में और सख्त कानून लाने की घोषणा की है, जबकि राजस्थान ने फरवरी 2025 में नया बिल पेश किया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राज्यों में इन कानूनों के प्रावधानों पर रोक लगाई है, क्योंकि इन्हें धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ माना जाता है। आलोचक कहते हैं कि ये कानून ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं, जबकि समर्थक इन्हें हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए जरूरी बताते हैं। 2025 में संयुक्त राष्ट्र ने भी इन कानूनों पर चिंता जताई है।
देश के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मांतरण को लेकर तनाव बढ़ रहा है। कभी ‘लव जिहादÓ के नाम पर (जहां आरोप लगता है कि मुस्लिम युवक हिंदू लड़कियों को फंसाकर धर्म बदलवाते हैं), कभी देवी-देवताओं या मंदिरों के नाम पर झड़पें हो रही हैं। उदाहरण उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लव जिहाद कानून के तहत कई केस दर्ज हुए, लेकिन कई फर्जी साबित हुए। छत्तीसगढ़ में ही जुलाई 2025 में एक ईसाई परिवार को गांव से निकाला गया, क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म अपनाने से इनकार किया। हाल के महीनों में अरुणाचल प्रदेश में 2 लाख ईसाइयों ने एंटी कन्वर्जन कानून के खिलाफ प्रदर्शन किया। ये घटनाएं हिंदू संगठनों की ओर से घर वापसी अभियानों और अल्पसंख्यकों की ओर से उत्पीडऩ की शिकायतों से जुड़ी हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे मुद्दों पर बहस तेज है, जहां कुछ लोग हिंदू राष्ट्र और सख्त कानून की मांग करते हैं, जबकि अन्य इसे संविधान की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ मानते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) और समाजवादी (सोशलिस्ट) शब्द 1976 के 42वें संशोधन से जोड़े गए थे। हाल में आरएसएस नेताओं (जैसे दत्तात्रेय होसबले) और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इन शब्दों को हटाने की मांग की, कहते हुए कि ये इमरजेंसी के दौरान थोपे गए और मूल संविधान में नहीं थे। उनका तर्क है कि ये शब्द अनावश्यक हैं, क्योंकि संविधान पहले से ही समानता और न्याय पर आधारित है। हालांकि, सरकार ने 24 जुलाई 2025 को संसद में स्पष्ट किया कि इन शब्दों को हटाने की कोई योजना या संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2024 में ऐसे याचिकाओं को खारिज किया। विपक्ष जैसे सीपीआई (एम) इसे आरएसएस की हिंदुत्व वाली सोच का हिस्सा मानता है, जहां एक धर्म या विचारधारा को प्रमुख बनाकर विविधता को दबाया जाए। आलोचक कहते हैं कि यह एकाधिकार (मोनोपॉली) की मानसिकता है, जो अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकती है। लेकिन समर्थक इसे मूल संविधान की बहाली बताते हैं। विविध भारत में ये शब्द समानता और सामाजिक न्याय की रक्षा करते हैं और इन्हे हटाना संवैधानिक मूल्यों को चुनौती दे सकता है। बहस जारी है, लेकिन कोई बदलाव फिलहाल नहीं हो रहा।