बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने राजनीति विज्ञान के सहायक प्राध्यापक के निलंबन आदेश को अवैध करार देते हुए निरस्त कर दिया है। न्यायमूर्ति सचिन सिंह राजपूत की एकलपीठ ने टिप्पणी की कि यह कार्रवाई न केवल सेवा नियमों के विपरीत थी, बल्कि “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन” भी है। अदालत ने निलंबन को दुर्भावनापूर्ण और व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाला बताया।

23 साल की निष्कलंक सेवा, अचानक निलंबन
याचिकाकर्ता कमलेश दुबे, शासकीय बृजलाल वर्मा महाविद्यालय पलारी में सहायक प्राध्यापक के रूप में 23 वर्षों से सेवाएं दे रहे थे। उनका सेवा रिकॉर्ड पूरी तरह निष्कलंक रहा। मामला तब शुरू हुआ जब 11 सितंबर 2015 को मानदेय पर कार्यरत कंप्यूटर शिक्षिका प्रीति साहू को नियमित नियुक्ति के बाद कार्यमुक्त कर दिया गया। इसके विरोध में छात्रों ने आंदोलन शुरू कर उनकी पुनर्नियुक्ति की मांग की।
17 सितंबर 2015 को छात्र संघ ने कॉलेज प्रशासन को ज्ञापन सौंपा, जिसमें कैंटीन, वाई-फाई, स्वच्छता, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी की शिकायतें थीं। इस ज्ञापन में कहीं भी सहायक प्राध्यापक के खिलाफ आरोप नहीं थे।
अखबार की खबर बनी आधार
इसके कुछ दिन बाद एक स्थानीय अखबार में खबर प्रकाशित हुई, जिसमें प्राध्यापक पर छात्राओं से दुर्व्यवहार का आरोप लगाया गया। इस रिपोर्ट के आधार पर कॉलेज प्रशासन ने 21 सितंबर को एकपक्षीय जांच करवाई और कुछ छात्राओं के बयान दर्ज कर लिए। बिना प्राध्यापक को नोटिस दिए या उनका पक्ष सुने, 23 सितंबर 2015 को निलंबन आदेश जारी कर दिया गया।
याचिकाकर्ता की दलील
अधिवक्ता मतीन सिद्दीकी ने तर्क दिया कि पूरा घटनाक्रम पूर्व-नियोजित और दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होता है। न तो पहले कभी छात्राओं की कोई शिकायत थी और न ही प्रीति साहू ने कार्यकाल के दौरान कोई आरोप लगाया। केवल अखबार की खबर के आधार पर छवि धूमिल करना और फिर निलंबन जैसे कदम उठाना पूरी तरह असंवैधानिक है।
राज्य का पक्ष और अदालत की टिप्पणी
राज्य शासन की ओर से कहा गया कि छात्राओं की शिकायतों को देखते हुए निलंबन आवश्यक था। लेकिन हाईकोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि —
- केवल शिकायतें या समाचार पत्र की रिपोर्ट निलंबन का वैध आधार नहीं हो सकतीं।
- उचित जांच, प्रमाण और सुनवाई के बिना यह कार्रवाई न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
- भले ही निलंबन दंडात्मक कार्रवाई न हो, लेकिन यह व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्थिति पर गहरा असर डालता है।
अदालत का फैसला
अंततः न्यायालय ने 23 सितंबर 2015 का निलंबन आदेश अवैध ठहराते हुए रद्द कर दिया। साथ ही कहा कि याचिकाकर्ता पहले से ही अंतरिम आदेश के तहत सेवा में वापस आ चुके हैं।