वह साहित्य की भी अटल-आभा थे…


गिरीश पंकज

अटल बिहारी वाजपेयी अब शताब्दी पुरुष हो गए हैं। 25 दिसंबर, 1924 को उनका जन्म हुआ था। साहित्य का एक विद्यार्थी के नाते मैं जब अटल जी को देखता हूँ, तो यही सोचता हूँ कि अटलजी अगर राजनीति में नहीं होते तो संभवत: हिंदी साहित्य-जगत के एक बड़े साहित्यिक हस्ताक्षर के रूप में प्रख्यात होते। लेकिन साहित्य की आभा राजनीति के बादलों के बीच कहीं खो सी जाती है। फिर भी कभी-कभी कोई अटल-आभा रह-रहकर दीप्त भी होती है। अटलजी ऐसी ही आभा में शुमार हैं। मुझे अपनी प्रारंभिक पत्रकारिता के दिन याद आ रहे हैं, जब मैं दैनिक युगधर्म में काम कर रहा था। उस समय के संपादक बबनप्रसाद मिश्र ने मुझे दीपावली विशेषांक के संपादन का दायित्व सौंपा था। तब मैंने एक लेख के लिए वाजपेयी जी को भी पत्र लिखा था। मैं यही सोच रहा था कि शायद ही उनका कोई जवाब आए लेकिन कुछ दिन बाद मुझको संबोधित उनका पत्र मिला, जिसमें उन्होंने खेद व्यक्त किया था कि अपनी व्यस्तताओं के चलते मैं लेख नहीं भेज पाऊंगा। लेकिन विशेषांक के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएँ। कुछ और बातें भी उसमें लिखी थीं, जो आप मेरी स्मृति में नहीं हैं, लेकिन अटल जी का पत्र पाकर मेरा युवा पत्रकार मन बेहद पफुल्लित हुआ था। अटल जी के प्रति मेरी श्रद्धा और बढ़ गई थी।

एक अंतराल के बाद रायपुर प्रवास के दौरान उनसे मिलने का भी सौभाग्य मिला। तब मैंने अपना परिचय दिया कि मैं युगधर्म में कार्य करता हूं। मैंने आपको पत्र लिखा था। मेरी बात सुनकर सहमति में सिर हिलाते हुए अटल जी मुस्कुराए। बोले कुछ नहीं। बस, मेरे कंधे को थपथपाते हुए आगे बढ़ गए। मेरे कंधे पर उनका स्नेहपूर्वक हाथ रख देना आज भी रोमांचित कर देता है।

अटल जी साहित्यिक व्यक्तित्व के धनी एवं सहज-सरल राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित रहे। देख सकते हैं कि अपनी वक्तत्व कला और हिंदी प्रेम के कारण वे विश्वविख्यात भी थे। आज़ादी के बाद के कुछेक राजनेताओ में अटल जी भी शामिल हैं, जो अच्छे लेखक थे। नेहरू, लोहिया, जेपी जैसे नेताओं ने राजनीति के साथ-साथ साहित्य का दामन थामे रखा। हालांकि, अनेक लेखक-नेता गद्य लेखन पर अधिक केन्द्रित थे, पर अटलजी का काव्य-व्यक्तित्व ही अधिक सामने आता है। उनकी कविताएँ भारतीय मन मस्तिष्क को रूपायित करती हैं। वे सार्थक कविता की तरह बोधगम्य थे। उन्होने कालजयी किस्म की अनेक कविताएँ लिखीं, जिनका साहित्यिक मूल्य है। यह बहुत बड़ी बात है कि उनकी अनेक कविताएँ लोगों के मानसपटल पर अंकित हैं। इन कविताओं को हम साहित्य के निकष पर भी हम खरा पाते हैं। उनकी एक कविता काफी लोकप्रिय हुई। लोग समय-समय पर उनकी कविताएं कोट करते हैं जैसे-

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अँधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अन्तिम अस्त होती है।
दीप निष्ठा का लिए निष्कम्प
वज्र टूटे या उठे भूकम्प,
यह बराबर का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध,

आपातकाल के दौरान देश के हर बड़े विपक्षी नेता विभिन्न जेलों में ठूँस दिए गए थे। भवानीप्रसाद मिश्र जैसे अनेक क्रांतिकारी कवि भी बंद कर दिए गए थे। जेल में मिश्रजी ने कविता लेखन की त्रिकाल-संध्या की। यानी उन्होंने प्रतिदिन तीन कविताएँ लिखीं। बाद में ये कविताएँ पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुईं। मिश्रजी की तरह अटलजी को जेल में अनेक कविताएँ लिखने का अनुकूल अवसर मिला। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कविताएँ रचीं वो भी कुण्डलियां के रूप में। ये कविताएं बाद में कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित भी हुई। उसके बाद पुस्तक रूप में भी छपी। उनके संग्रह का नाम रखा गया-कैदी कविराय की कुण्डलियाँ। इस संग्रह को देखने से साहित्यानुरागियों को अटल जी की छान्दसिक प्रतिभा का भी पता चलता है। कुण्डलियां छंद लिखने का काम कोई कुशल कवि ही कर सकता है। इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के कारण देश भर में प्रशासन अन्याय-अत्याचार कर रहा था। अटल जी ने अपनी कविताओं में उस पीड़ा को उकेरा था। उनकी कविता की एक बानगी देखें-

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज,
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण,
पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण,
प्राण- प्रण से करेंगे प्रतिकार,
समर्पण की माँग अस्वीकार।
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते; टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।

अटल जी के जीवन में पारदर्शिता थी। अनेक बातें उन्होंने संकेतों में भी कहीं। समझने वाले उन्हें समझते भी थे। वे राजनीतिक जीवन में शुचिता और समरसता के उदाहरण थे। उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व में देश को एक दिशा दी। भारत को विकास के नूतन आयाम दिए। पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध बने, इस दिशा में उनकी पहल को पूरी दुनिया ने सराहा। आज भारत उसी का अनुसरण करने की कोशिश कर रहा है। अटल जी आस्था के कवि थे। वे हारने से भी निराश नही होते थे। मुसीबतों का डट कर मुकाबला करने का संदेश देते हैं। उनकी इस कविता का संदेश यही है-
बाधाएँ आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

अटलजी का हिन्दी प्रेम भी सब जानते हैं। पहली बार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी गूँजी थी। इसका श्रेय अटल जी को ही जाता है। जनता पार्टी सरकार में अटलजी विदेश मंत्री थे, तब वे अमरीका प्रवास में गए थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा को हिंदी में संबोधित किया था। यह एक तरह से हिंदी की गौरवध्वजा थी, जो विश्व में लहराई थी, जिसके लिए लोहिया जी भी अपने समय में सतत संघर्ष करते रहे। संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी के भाषण के बाद से ही भारत की यह मांग जोर पकडऩे लगी कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषा बनें। अभी केवल छह भाषाओं को मान्यता मिली हुई है। हिंदी अब तक संघर्ष कर रही है। अटल जी की पहल से हिंदी के पक्ष में एक सकारात्मक माहौल तो बना। वे अपने अधिकांश भाषण हिंदी में ही देते थे। उनके भाषण इतने रंजक होते थे कि विपक्षी नेता भी सुनकर वाह-वाह कर उठते थे। यह अनोखी बात है कि उनकी चुनावी सभाओं में विपक्षी भी उनका भाषण सुनने जाया करते थे। उनके भाषणों में तथ्य

होते थे, सच्चाई होती थी। लालित्य होता था। परिहास भी प्रचुर मात्रा में होता था। वे अपने विरोधियो की आलोचना करते वक्त भी हमेशा भाषा की मर्यादा का ध्यान रखते थे। इसीलिए आज सब उन्हें आदर से याद करते हैं। वे हमेशा याद किए जाएंगे। उनकी एक और महत्वपूर्ण कविता है जो भारत की महिमा का गान प्रस्तुत करती है-

मैं अखिल विश्व का गुरू महान,
देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग
मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर,
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार
क्या कभी सामने सका ठहर?

आज राजनीति अलग दिशा में बह रही है। सत्ता पाने के बाद नेताओ का ग़ुरूर देखने लायक होता है। छुटभैया भी बड़भैया बन जाता था। अटल जी इस चरित्र को समझते थे। इसीलिए वे अपनी कविता में कहते हैं-

सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती/सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बँटा/ शून्य में अकेला खड़ा होना/पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है/ ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है/ जो जितना ऊँचा,उतना एकाकी होता है,हर भार को स्वयं ढोता है/चेहरे पर मुस्कानें चिपका,मन- ही- मन रोता है/ज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, जिससे मनुष्य, ठूँठ-सा खड़ा न रहे/औरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले, किसी के संग चले/ भीड़ में खो जाना,यादों में डूब जाना,स्वयं को भूल जाना,अस्तित्व को अर्थ,जीवन को सुगंध देता है/धरती को बौनों की नहीं, ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है/ इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें/ किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं कि पाँव तले दूब ही न जमे, कोई काँटा न चुभे,कोई कली न खिले/न वसंत हो, न पतझड़, हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, मात्र अकेलेपन का सन्नाटा/मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, ग़ैरों को गले न लगा सकूँ/ इतनी रुखाई कभी मत देना।

अटल जी के व्यक्तित्व को मैं इन शब्दों में रेखांकित कर रहा हूँ,
नवल रहे हैं धवल रहेंगे
हर पल ही वे अटल रहेंगे
अटलबिहारी नाम है जिसका
कीचड़ में भी कमल रहेंगे
कौन हिला पाया पर्वत को
अटल हमेशा अचल रहेंगे
उन पर दाग लगाने वाले
विफल रहे औ विफल रहेंगे
साहित्य से राजनीति में सक्रिय श्रीकांत वर्मा का कवि के रूप में मूल्यांकन होता रहता है, लेकिन हिंदी आलोचना ने अटलजी के साहित्यिक अवदान की उपेक्षा की। उनकी कविताओं पर काम होना चाहिये। लता मंगेशकर और जगजीत सिंह जैसे कुछ गायको ने उनकी रचनाओं को स्वर दिया पर आलोचकों ने उन्हें अनदेखा किया। लेकिन अब यह भूल-गलती सुधारी जानी चाहिए। राजनीति में अजेय योद्धा की तरह जीवन जीने वाले अटल जी अंतिम समय में अपने स्वास्थ्य को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन जीवन के सत्य को वह भली-भांति जानते थे। अपनी एक कविता में वह इसे स्वीकार करते हुए कहते हैं-

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।

अटल जी के लिए देशवासी यही चाहते थे कि ये साँझ अभी न आये, कभी न आए. लेकिन वो आई और अटल जी हमें छोड़ कर चले गए। मगर उनका राजनीतिक, साहित्यिक अवदान सदैव अविस्मरणीय बना रहेगा।

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