Hareli- लोक-संस्कृति , प्रकृति,परंपरा और परिश्रम का छत्तीसगढ़ी उत्सव हरेली तिहार

पूरे ग्रामीण क्षेत्रो में धूमधाम से मनाया गया

दिलीप गुप्ता
सरायपाली :-
सावन का महीना प्रारंभ होते ही चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है नदी-नाले प्रवाहमान हो जाते हैं तो मेंढकों के टर्राने के लिए डबरा-खोचका भर जाते हैं जहाँ तक नजर जाए वहाँ तक हरियाली रहती है

आँखों को सुकून मिलता है तो मन-तन भी हरिया जाता है यही समय होता है श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में अमावश्या को “हरेली तिहार” मनाने का नाम से ही प्रतीत होता है कि इस त्यौहार को मनाने का तात्पर्य भीषण गर्मी से उपजी तपन के बाद वर्षा होने से हरियाई हुई धरती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ही होता है, तभी इसे हरेली नाम दिया गया

मूलत: हरेली कृषकों का त्यौहार है, यही समय धान की बियासी का भी होता है। किसान अपने हल बैलो के साथ भरपूर श्रम कृषि कार्य के लिए करते हैं, तब कहीं जाकर वर्षारानी की मेहरबानी से जीवनोपार्जन के लिए अनाज प्राप्त होता है उत्सवधर्मी मानव आदि काल से ही हर्षित होने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता और खुशी प्रकट करने, रोजमर्रा से इतर पकवान खाने की योजना बना ही लेता है, यह अवसर हमारे त्यौहार प्रदान करते हैं

हरेली के दिन सबेरा होते ही चरवाहा गाय-बैल को कोठा से निकाल कर गौठान में पहुंचा देता है गाय-बैल के मालिक अपने मवेशियों के लिए गेंहु के आटे को गुंथ कर लोंदी बनाते हैं,अरंड या खम्हार के पत्ते में खड़े नमक की पोटली के साथ थोड़ा सा चावल-दाल लेकर चारागन में आते हैं जहाँ आटे की लोंदी एवं नमक की पोटली को गाय-बैल को खिलाते हैं तथा चावल-दाल का “सीधा” चरवाहा को देते हैं इसके बदले में राउत (चरवाहा) दसमूल कंद एवं बन गोंदली (जंगली प्याज) देता है जिसे किसान अपने-अपने घर में ले जाकर सभी परिजनों को त्यौहार के प्रसाद के रुप में बांट कर खाते हैं,

इसके बाद राऊत और बैगा नीम की डाली सभी के घर के दरवाजे पर टांगते हैं, भेलवा की पत्तियाँ भी भरपूर फ़सल होने की प्रार्थना स्वरुप लगाई जाती हैं जिसके बदले में जिससे जो बन पड़ता है, दान-दक्षिणा करता है इस तरह हरेली तिहार के दिन ग्रामीण अंचल में दिन की शुरुवात होती है

ग्रामीण अंचल में बैगाओं को जड़ी-बूटियों की पहचान होती है परम्परा से पीढी-दर-पीढी मौसम के अनुसार पथ्य-कुपथ्य की जानकारी प्राप्त होते रहती है कौन सी ॠतु में क्या खाया जाए और क्या न खाया जाए

कौन सी जड़ी-बूटी, कंद मूल बरसात से मौसम में खाई जाए जिससे पशुओं एवं मनुष्यों का बचाव वर्षा जनित बीमारियों से हो सर्व उपलब्ध नीम जैसा गुणकारी विषाणु रोधी कोई दूसरा प्रतिजैविक नही है इसका उपयोग सहस्त्राब्दियों से उपचार में होता है
वर्षा काल में नीम का उपयोग वर्षा जनित रोगों से बचाता है। दसमूल (शतावर) एवं बन गोंदली (जंगली प्याज) का सेवन मनुष्यों को वर्ष भर बीमारियों से लड़ने की शक्ति देता है। साथ ही (अरंड पत्ता) एवं खम्हार पान (खम्हार पत्ता) पशुओं का भी रोगों से वर्ष भर बचाव करता है उनमें विषाणुओं से लड़ने की शक्ति बढाता है पहली बरसात में जब चरोटा के पौधे धरती से बाहर आते हैं तब उसकी कोमल पत्तियों की भाजी का सेवन किया जाता है हम बचपन से ही गाँव में रहे
हरेली तिहार की प्रतीक्षा बेसब्री से करते थे क्योंकि इस दिन चीला खाने के साथ “गेड़ी” चढने का भी भरपूर मजा लेते थे जो ऊंची गेड़ी में चढता में उसे हम अच्छा मानते थे,

ध्यान यह रखा जाता था कि कहीं अधिक ऊंची न हो और गिरने के बाद चोट न लगे गेड़ी के बांस के पायदान की धार से पैर का तलुवा कटने का भी डर रहता था तब से ध्यान से ही गेड़ी चढते थे
गेड़ी पर चढकर अपना बैलेंस बनाए रखते हुए चलना भी किसी सर्कस के करतब से कम नहीं है इसके लिए अपने को साधना पड़ता है, तभी कहीं जाकर गेड़ी चलाने का आनंद मिलता है अबरा-डबरा को तो ऐसे ही कूदते-फ़ांदते पार कर लेते थे
बदलते समय के साथ अब गांव में भी गेड़ी का चलन कम हो गया परन्तु पूजा के नेग के लिए गेड़ी अभी भी बनाई जाती है छोटे बच्चे मैदान में गेड़ी चलाते हुए दिख जाते हैं
इस दिन किसान अपने हल, बैल और किसानी के औजारों को धो मांज कर एक जगह इकट्ठा करते हैं फ़िर होम-धूप देकर पूजा करके चावल का चीला चढा कर जोड़ा नारियल फ़ोड़ा जाता है जिसे प्रसाद के रुप में सबको बांटा जाता है। नारियल की खुरहेरी (गिरी) की बच्चे लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं
टमाचर, लहसून, धनिया की चटनी के साथ गरम-गरम चीला रोटी के कहने ही क्या हैं, आनंद आ जाता है पथ्य और कुपथ्य के हिसाब से हमारे पूर्वज त्यौहारों के लिए भोजन निर्धारित करते थे सभी त्यौहारों में अलग-अलग तरह का खाना बनाने की परम्परा है

भोजनादि से निवृत होकर खेलकूद शुरु हो जाता है। इन ग्रामीण खेलों की प्रतीक्षा वर्ष भर होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हरेली परम्परा में रचा बसा पूर्णत: किसानों का त्यौहार है।

खेल कूद के लिए ग्रामीण मैदान में एकत्रित होते हैं और खेल कूद प्रारंभ होते हैं जिनमें नगद ईनाम की व्यवस्था ग्राम प्रमुखों द्वारा की जाती है। कबड्डी, गेड़ी दौड़, टिटंगी दौड़, आंख पर पट्टी बांध कर नारियल फ़ोड़ना इत्यादि खेल होते हैं। गाँव की बहू-बेटियां भी नए कपड़े पहन कर खेल देखने मैदान में आती हैं, तथा उनके भी खेल होते हैं,
किसानों ने हरेली तिहार के रुप में परम्परा से चली आ रही अपनी सामुहिक मनोरंजन की प्रथा को वर्तमान में भी जीवित रखा है। हरेली तिहार के दिन का समय तो देवताओं के पूजा पाठ और खेल कूद में व्यतीत हो जाता है फ़िर संध्या वेला के साथ गाँव में मौजूद आसुरी शक्तियां जागृत हो जाती हैं।

ओड़िया एवं छत्तीसगढ़ी लोककला संस्कृति के जानकार साहित्यकार श्री विद्याभूषण सतपथी ने बताया कि गांवों में मान्यता यह है कि अमावश की काली रात टोनहियों की सिद्धी के लिए तय मानी जाती है

यह सदियों से चली आ रही मान्यता है कि हरेली अमावश को टोनही अपना मंत्र सिद्ध करती हैं, सावन माह मंत्र सिद्ध करने के लिए आसूरी शक्तियों के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। शहरों के आस-पास के गाँवों में अब टोनही का प्रभाव कम दिखाई देता है लेकिन ग्रामीण अंचल में अब भी टोनही का भय कायम है। हरियाली की रात को कोई भी घर से बाहर नहीं निकलता, यह रात सिर्फ़ बैगा और टोनहियों के लिए ही होती है।
ग्राम तोषागांव के पूर्व मालगूजारीन माता जी गौंटिया घर में गांव भर के बच्चों के नाभि के निचे गर्म हंसिया के नोक से दाग लगाती थी गर्म टांका लगाती थीं मौसमी बीमारी से बचने के लिए टोनही को लेकर ग्रामीणों के मानस में कई तरह की मान्यताएं एवं किंवदंतियां स्थाई रुप से पैठ गयी हैं। विद्युतिकरण के बाद भूत-प्रेत और टोनही दिखाई देने की चर्चाएं कम ही सुनाई देती हैं। टोनही के अज्ञात भय से मुक्ति पाने में अभी भी समय लगेगा।

सतपथी ने बताया कि ग्रामीण अंचल के लोग भी अब धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं, एवं मोबाइल एवं इंटरनेट के दौर में ग्रामीण लोगों में अंधविश्वास से धीरे-धीरे जागृति आ रही है।

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