Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – आखिर कब हटेगी गरीबी !

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

गरीबी हटाओ का नारा देश आजाद हुआ तब से हम सुनते आ रहे हैं। गरीबी ने इस कदर जकड़ा हुआ है कि इससे कब तक मुक्ति मिलेगी, कोई नहीं जनता। दरअसल इस देश से गरीबी को हटाने का नारा कई दशकों से लगाया जा रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में गरीब हटाओ का नारा दिया था। वहीं साठ के दशक के उत्तरार्ध में, यह तेजी से महसूस किया जा रहा था कि आर्थिक नीतियों के चलते न्यायसंगत आर्थिक वितरण नहीं हो रहा है। ये वहीं दौर था जब देश में नक्सलवाद भी सर उठा रहा था। समाज में व्याप्त असमानता के खिलाफ आवज बुलंद होने लगी थी। गरीबी अपने साथ कई तरह की बुराईयां लेकर आती है। मुनव्वर राणा कहते हैं :

समाजी बेबसी हर शहर को मक़तल बनाती है,
कभी नक्सल बनाती है कभी चम्बल बनाती है।।

हालांकि देश में चुनाव होते रहे नेता आते रहे-जाते रहे और गरीबी हटाने का नारा देते रहे, लेकिन गरीबी ने भी अपनी जिद नहीं छोड़ी उसने भी यहां अपना स्थाई निवास बना लिया है। आज गरीबी का जिक्र इसलिए हम कर रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी कांग्रेस की ओर से वादा कर रहे हैं कि अपने एक लाख वाले जादुई फॉर्मुले से एक झटके में गरीबी खत्म कर देंगे। दरअसल राहुल गांधी बीपीएल परिवार के एक महिला को एक लाख रुपए सालाना देने की बात कह रहे हैं और इसी योजना के दम पर गरीबी को देश से खदेडऩे की बात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी अकेले गरीबी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी दावा कर रहे हैं कि उनके शासन काल में देश से करोड़ों की तादाद में गरीब परिवार को इससे बाहर निकाला गया है। उनका दावा है कि 2014 में 10वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से सुधर कर आज 2023 में 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। सरकारी लाभ के हस्तांतरण में लीकेज को रोकने और एक मजबूत अर्थव्यवस्था के निर्माण और गरीबों के कल्याण के लिए सार्वजनिक धन के खर्च के बेहतर नतीजे मिले हैं। इसके कारण 13.5 करोड़ लोग गरीबी के जाल से निकले हैं। पीएम मोदी का कहना है कि 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक के बजट वाली मुद्रा योजना ने देश के युवाओं के लिए स्वरोजगार, व्यवसाय और उद्यम खड़े करने के मौके दिए हैं। लगभग आठ करोड़ लोगों ने नए व्यवसाय आरंभ किए हैं।
ये तो सियासी दावे और घोषणाएँ हैं। समाज में कितनी गरीबी खत्म हुई है सब जानते हैं। अगर सौ दो सौ रुपए कमाई बढ़ी है तो महंगाई ने उससे ज्यादा अपना कद बढ़ाया है। मानो लंका के रास्ते में बीच समुद्र में हनुमान और सुरसा के बीच युद्ध चल रहा हो। आज एक परिवार किसी तरह अपनी आय में कुछ रुपए की बढ़ोतरी कर भी लेता है तो महंगाई अपना रूप बढ़ाकर उसे पीछे धकेलने में कसर नहीं छोड़ती।
इस बदहाली की हालात पर अदम गोंडवी साहब कहते हैं..
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जि़न्दगी
हम गऱीबों की नजऱ में इक क़हर है जि़न्दगी

आज आजादी के इतने सालों के बाद बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझते इस देश के सामने आज भी बहुत सीधे सवाल हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं जिस तरह महंगी हो रही है वैसे-वैसे आम लोगों के पहुंच से बाहर हो रही है। भले ही प्रति व्यक्ति आय के मामले में आंकड़े बढ़े हुए दिखा रहे हैं लेकिन ये देश और राज्य का औसत है। इसमें अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई नहीं है। गरीबी को एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें व्यक्ति जीवन के निर्वाह के लिये बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ होता है। इन बुनियादी आवश्यकताओं में शामिल हैं- भोजन, वस्त्र और घर। भारत में उपभोग और आय दोनों के आधार पर गरीबी के स्तर का आकलन किया जाता है।
उपभोग की गणना उस धन के आधार पर की जाती है जो एक परिवार द्वारा आवश्यक वस्तुओं पर खर्च किया जाता है और आय की गणना उस परिवार द्वारा अर्जित आय के अनुसार की जाती है।
2017 में नीति आयोग ने गरीबी दूर करने हेतु एक विजऩ डॉक्यूमेंट प्रस्तावित किया था। इसमें 2032 तक गरीबी दूर करने की योजना तय की गई थी। इस डॉक्यूमेंट में कहा गया था कि गरीबी दूर करने हेतु तीन चरणों में काम करना होगा। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा जारी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2018 के मुताबिक, 2005-06 तथा 2015-16 के बीच भारत में 270 मिलियन से अधिक लोग गरीबी से बाहर निकले और देश में गरीबी की दर लगभग 10 वर्ष की अवधि में आधी हो गई है। भारत ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में महत्तवपूर्ण प्रगति की है। गौरतलब है कि इसी काल में देश में मनरेगा जैसी महत्वपूर्ण योजना लागू हुई। मनरेगा ने ग्रामीण इलाकों में कैश फ्लो को बनाए रखने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ऐसे में जिस दस साल में देश में गरीबी से सबसे ज्यादा लोग बाहर आए उसमें मनरेगा का भी अहम रोल रहा है। इस मनरेगा को लेकर हमारे प्रधानमंत्री ने संसद में जो बयान दिया था आज उसे भी याद करना जरूरी है।
उसी मनरेगा के बदौलत हम मंदी के साथ ही पलायन पर भी काफी हद तक काबू पाया है। करोना महामारी के दौरान भी मनरेगा ने लोगों को रोजगार देने का काम किया। पीएम मोदी जिस योजना को नाकामी का स्मारक बता रहे थे उसी का बजट उनकी सरकार में लगातार बढ़ते गई। इस बार 2023-24 के लिए मनरेगा का बजट अनुमान 60 हजार करोड़ रुपये से बढ़ाकर वित्त वर्ष 2024-25 के लिए 86 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया है। इससे समझा जा सकता है कि गरीबी को लेकर संवेदना और सियासत में कितनी दूरी है। अगर वाकई इसके लिए ईमानदार प्रय़ास होते हैं तो हम देश को एक ऐसे स्तर पर तो जरूर ला सकते हैं जहां बुनियादी जरूरत के लिए भी एक वर्ग को तरसना न पड़े। इस मोड़ पर अदम साहब की ये पंक्ति बरबरबस याद आती है ।

छेडिय़े इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खि़लाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिय़े।।

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