Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – जंगल में ही हाशिए पर ‘आदिवासी’

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

वनवासी यानि एक ऐसा समाज, जहां के लोग जो शहरी चकाचौंध से कोसों दूर हैं। सीमित जरूरतें वह भी कृत्रिम नहीं बल्कि प्रकृति से जुड़ी हुई हैं। वनवासी समाज ने अपनी सभ्यता और सांस्कृतिक धरोहरों को युगों से संजोया हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के विकास में इनकी भूमिका मुख्यधारा से कहीं अधिक पुरानी है, साथ ही वास्तविक भी। फिर भी आज ये लोग मुख्यधारा से अलग अस्तित्व व पहचान के संकट से जूझ रहे हैं। अगर इसकी मूल वजह खोजी जाये तो इंसान का अति विकास और अतिक्रमणवादी स्वभाव ही आदिम सभ्यता को नष्ट कर रहा है।
बहरहाल, वनवासियों के हित में बातें तो खूब होती है लेकिन वनवासियों की समस्याएं जस की तस हैं। हाल ही में महासमुंद जिले के ग्राम लोहारडीह में एक ऐसा ही एक मामला सामने आया, जिसने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या वनवासियों को जल, जंगल और जमीन का अधिकार उन्हें वाकई मिल रहा है। वास्तव में हुआ यूँ कि वन भूमि पर अवैध कब्जा करने के आरोप में 117 आदिवासी महिलाओं को वन अमले ने गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया। इनमें कई महिलाएं ऐसी थी जो अपने दुधमुँहे बच्चों को लेकर कोर्ट में जमानत के लिए सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक बैठी रहीं। खबर यह भी है कि कुछ महिलाएं गर्भवती भी थीं। इन महिलाओं को दिन भर खाना तक मयस्सर नहीं हुआ। गिरफ्तार आदिवासी महिलाओं का कहना था कि उनके पास जमीन नहीं है। गांव वाले वन विकास निगम की जमीन पर कब्जा कर खेती कर रहे हैं, इसलिए वे लोग भी खेती के लिए मेढ़ बना रहीं थीं। इस मामले से ये बात एक फिर सच साबित होती नजर आती है कि हम विकास के कई सोपान भले पार कर गए हों, लेकिन हम अभी भी जंगल और आदिवासी को समझने में चूक कर रहे हैं। चाहे छत्तीसगढ़ हो या नार्थ ईस्ट हो या फिर अफ्रीका का कोई देश, हम विकास के नाम पर तो कभी जंगल के रक्षक बनकर आदिवासी बस्तियों को उजाड़ देते हैं। जबकि ये किसी से छुपा नहीं कि जंगल के सबसे बड़े रक्षक आदिवासी हैं। ये प्रकृति के सबसे करीब रहते हैं और उसी को अपना सब कुछ मानते हैं। इसीलिए इन्हें प्रकृति के उपासक भी कहा जाता है, लेकिन आज हम तथाकथित प्रकृति के रक्षक प्रकृति पुत्रों पर भारी पड़ रहे हैं। मामला कहीं न कहीं बाजारवाद से जुड़ा नजर आता है। जब जंगल में आदिवासी हाशिए पर रखे जाएंगे तो जंगल कब तक सुरक्षित रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।
आदिवासियों की इसी पीड़ा को कवि विनोद कुमार शुक्ल अपनी इस कविता के माध्यम से कहते हैं-
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इक्कठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है।।

कुछ नगरों को रोशन करने के लिए हसदेव जंगल की बेतरतीब कटाई की जा रही है। कई दशकों से खड़े पेड़ों ने न जाने कितने जीवों को छाँव पहुंचाई होगी। जेठ की तपती गर्मी में राहत दी होगी और पूरा जीवन लोगों को प्राणवायु देने में गुजार दिया होगा, लेकिन आखिरकार मानव की महत्वाकांक्षा के आगे दम तोड़ रहे रहे हैं। हम शहरी समाज के लोग भले ऐसी चीजों की चिंता न करें लेकिन आदिवासी समाज के लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। वे आज भी जंगल बचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए आदिवासियों का संघर्ष जारी है। हो भी क्यों नहीं आखिर जंगल उनके लिए सब कुछ है ,वे उसे उजड़ता कैसे देख सकते हैं। जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को खत्म होते हुए उन्होंने देखा है। वनवासियों ने एक नहीं अनेकों बार विस्थापन की मार भी झेली है। चाहे वह हसदेव बांगो बांध से विस्थापन का मामला हो या फिर सलवा जुडूम के कारण तेलंगाना और ओडिशा जैसे सीमावर्ती राज्यों में शरण लिए छत्तीसगढ़ के वनवासियों का दर्द। जहां भगवान राम ने 14 वर्षों तक विस्थापित होकर वनवास भोगा था। वहीं ये वनवासी पिछले 18 सालों से विस्थापन की मार झेल रहे हैं। ये आदिवासी परिवार अब भी घर वापसी की उम्मीद संजोये हुए हैं। उदंती-सीतानदी और अचानकमार टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में रहने वाले कई सौ गांवों के लोग इस चिंता में डूबे रहते हैं कि न जाने कब उन्हें उस जंगल से बेदखल कर जाए जहां वे पीढ़ी दर पीढ़ी से रहते आ रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि जो वनवासी समाज, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को बचने के लिए कई सौ किलोमीटर की यात्रा तय कर विरोध जताने नंगे पांव राजधानी आ सकता है, क्या वह जंगल का दुश्मन बन जायेगा। जिसका जीवन ही जंगलों से चलता हो, वह कब से जंगल का भक्षक बन गया।
वनवासियों के प्रति सरकारी अमले का रवैया किसी से छुपा नहीं है। वैसे तो वन विभाग ने आदिवसियों के साथ मिल जुलकर काम करने के लिए अनेक समितियां बनाई हुई हैं, इनमें संयुक्त वन प्रबंधन जैसी समिति भी शामिल है। इसके आलावा हजारों की संख्या में फॉरेस्ट गार्ड जंगल की रक्षा में तैनात है। इन सबके बावजूद वन ग्राम में रहने वाले आदिवासियों पर जंगल उजाडऩे के आरोप लगते रहे हैं। आदिवासी समाज हमेशा इस बात पर जोर देता रहा है कि 5वीं अनुसूची को कड़ाई से लागू करने में शासन स्तर पर नीतियां स्पष्ट होनी चाहिए। सर्वआदिवासी समाज लगातार 6वीं अनुसूची लागू करने की मांग करते चले आ रहे हैं।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ में इस बार आदिवासी समाज से जुड़े व्यक्ति के मुख्यमंत्री बनने से वनवासी समाज को काफी उम्मीदें हैं। आदिवासी समुदाय इस बात को लेकर खुश हैं कि अब सरकार उनके हक और कल्याण के लिए कार्य करेगी। हालांकि यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि आने वाले दिनों में सरकार की नीतियां वनवासियों के लिए कितनी फायदेमंद होंगी। फि़लहाल तो उनकी समस्याएं वह यथावत हैं।

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