Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – आज की राजनीति और नीतीश कुमार

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

पिछले दो दशक से बिहार की सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार कई बार खुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके हैं। नीतीश कुमार के पास कभी पूर्ण बहुमत नहीं होता कि वो अकेले दम बिहार में सरकार बना सके लेकिन इसके बाद भी कभी भाजपा के साथ तो कभी लालू और कांग्रेस को साथ मिलकर वो सत्ता के समीकरणों को साधने में कामयाब होते हैं। साफ जाहिर है कि उनकी निष्ठा किसी सहयोगी दल के साथ न होकर कुर्सी के साथ बंधी हुई है। कुछ दिनों पहले तक नीतीश कुमार विरोधी दलों का एक गठबंधन बनाकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खड़ा करते नजर आ रहे थे जिसे बाद में ‘इंडियाÓ गठबंधन नाम दिया गया था। विपक्षी दलों द्वारा चल रही इस कवायद की अगुवाई नीतीश कुमार करते नजर आ रहे थे। हालांकि बाद में कई राज्यों में क्षेत्रीय छत्रपों के साथ तालमेल बैठाने में कठिनाई और कई तरह की खींचतान के चलते इंडिया का भविष्य खटाई में पड़ते नजर आने लगा था। इस बीच कांग्रेस और कुछ छोटे दलों के द्वारा ये कहना कि इंडिया की कमान या कहें चेहरा राहुल गांधी होंगे तब से ममता बनर्जी, शरद पवार जैसे प्रमुख नेताओं ने भी इससे दूरी बना ली थी। अब भाजपा के सामने थोड़ी बहुत चुनौती के साथ नीतीश कुमार खड़े थे उन्हें तोडऩे से एक तो एनडीए को बिहार में कुछ फायदा होता नजर आ रहा था, दूसरा इंडिया के नाम पर चली विपक्षी कवायद को पूरी तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए..इसी रणनीति पर काम करते हुए भाजपा ने नीतीश कुमार को तोडऩे की बिसात बिछा दी और नीतीश बाबू कुर्सी मोह में इस बिसात में उलझते चले गए।
दरअसल, भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने के बाद अब नीतीश स्वत: ही इंडिया गठबंधन से बाहर हो गए हैं। उन्होंने पहले ही मणिपुर से निकली राहुल गांधी की यात्रा में शामिल नहीं होने का ऐलान कर दिया था। राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि नीतीश के इंडिया गठबंधन छोडऩे से इस गठबंधन के समीकरण बिगड़ जाएंगे और इसका सीधा असर उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों में देखने को मिल सकता है। बात आम आदमी पार्टी की करें तो केजरीवाल और कांग्रेस के बीच की टकराहट किसी से छिपी नहीं है। ममता बनर्जी ने भी अकेले चुनाव लडऩे की बात कह दी है…। इस तरह बड़ी ही चतुराई के साथ नीतीश के बहाने भाजपा थिंकटैंक ने विपक्ष के पूरी कवायद को धराशाई कर दिया।
इसके अलावा नीतीश के बहाने भाजपा ने हाल फिलहाल में राहुल गांधी के द्वारा हवा दी जा रही ओबीसी राजनीति को भी बहुत हद तक साधने का काम किया है। भाजपा को इस लक्ष्य को भेदने नीतीश की मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहने की तलब ने आसान कर दिया। इस बीच केन्द्र सरकार ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कपूर्री ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान कर एक और मास्टर स्टोक मारा। नीतीश कुमार को जब लालू का साथ छोडऩा होता है तो परिवारवाद और भ्रष्टाचार का राग अलापते हैं और कहीं जब भाजपा का साथ छोडऩा होता है तो सेक्युलर बन जाते हैं।
सभी जानने लगे हैं कि इसके लिए नीतीश कुमार लगातार पलटी मारने से भी बाज नहीं आते। गौर करने वाली बात यह है कि 1995 से ही नीतीश ने न तो विधायक का चुनाव लड़ा है और न ही उनके दल को बहुमत या जनादेश प्राप्त हुआ। इसके बावजूद नीतीश कुमार लगातार बिहार की सत्ता की बागडोर संभाल रहे हैं, यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार में नीतीश सरकार हमेशा से जुगाड़ के भरोसे चलती रही है। खास बात ये भी है कि इस दौरान वे ज्यादातर वक्त भाजपा के समर्थन से सरकार चलाए हैं और जब जब भाजपा से उनकी दूरी हुई है तो उसकी वजह नरेन्द्र मोदी को बताया गया है। अब नीतीश एक बार फिर भाजपा के साथ है और आज भाजपा का मतलब मोदी है ये सब जानते हुए भी नीतीश भाजपा के साथ हैं वे दिल से भले न कह सकें लेकिन उनकी सियासी जुबां मजबूरी में ही सही ये जरूर कहेंगी कि मोदी है तो मुमकिन है। अब जहां राजनीति में सुचिता की बात होती है। विचारधारा की

बात कही जाती है ऐसे दौर में नीतीश कुमार क्यों प्रासंगिक हैं आखिर बार बार उनकी अगुवाई में सरकार क्यों बनाई जाती है…क्या ये बात दूसरे दलों समझ नहीं आ रही है क्यों इस बात को राजनीति की नब्ज को बुहत बेहतर तरीके समझने वाली बिहार की जनता नजरअंदाज कर रही है..क्या जातिगत राजनीति का मायाजाल खड़ाकर इसी तरह सत्ता को साझा जा सकता है या फिर लालू काल जिसे कई बार जंगल राज की उपमा दी गई वो इतना खतरनाक था कि लोग नीतीश को ही स्थाई इलाज मानकर चल रहे हैं, या फिर दूसरे दलों की कमजोरी का फायदा बेहतर तरीके से नीतीश उठाने में कामयाब हो रहे हैं…वे क्रिकेट के कुशल कैप्टन की तरह औसत निकालकर बल्लेबाजी कर रहे हैं कहां उन्हें बड़ी हिट लगानी है और कब डिफेंस खेलना वो जानते हैं। अब कुछ दिन नीतीश कुमार डिफेंस मोड में नजर आए जैसा कि भाजपा के साथ आने परह उनका रवैया रहा….. लालू और कांग्रेस के साथ होने पर वो कुछ मुखर और अपनी राष्ट्रीय पॉलटिक्स में मौजूदगी दर्ज कराते हैं….लेकिन भाजपा उन्हें एक क्षेत्रीय या कहें राज्य के नेता के तौर पर बांध देती है। अब एक बार फिर हुए गठबंधन और आने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि आज की राजनीति में नीतीश कुमार कितने प्रासंगिक हैं…। मुक्तिबोध कहते थे कि पार्टनर तुम्हारी पॉल्टिक्स क्या है ? ये सवाल नीतीश से जरूर पूछा जा सकता है..।

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