Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – बिलकिस बानो केस के बहाने राजनीति

Editor-in-Chief

-सुभाष मिश्र

बिलकिस बानो का नाम एक बार फिर चर्चा में है। अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ उन्हें दो-दो बार शीर्ष कोर्ट में लड़ाई लडऩी पड़ी। हालांकि दोनों ही बार वे अपने साथ गैंगरेप करने वाले दोषियों को सजा दिलवाने में कामयाब हुईं, लेकिन ये इतना भी आसान नहीं था। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो केस के 11 दोषियों की सजा माफी को रद्द कर दिया और इसे सुप्रीम कोर्ट के साथ धोखाधड़ी करार दिया।
पहले आपको बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा। जस्टिस नागरत्ना ने फैसले में प्लेटो को कोट करते हुए का कहा था कि सजा प्रतिशोध के लिए नहीं बल्कि सुधार के लिए है। क्यूरेटिव थ्योरी में सजा की तुलना दवा से की जाती है, अगर किसी अपराधी का इलाज संभव है, तो उसे मुक्त कर दिया जाना चाहिए। यह सुधारात्मक सिद्धांत का आधार है, लेकिन पीडि़त के अधिकार भी महत्वपूर्ण हैं। पीडि़ता नारी सम्मान की पात्र है। वह किसी भी धर्म और संप्रदाय की हो सकती है। क्या महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों में छूट दी जा सकती है?
दरअसल, गुजरात सरकार ने गैंगरेप और हत्या और मारपीट के 11 दोषियों को समय से पहले रिहा कर दिया था। हाईकोर्ट ने इन दोषियों के खिलाफ जो टिप्पणियां की थी, वह भी सुप्रीम कोर्ट से छिपाई गई थी। इससे भी बड़ी बात ये कि इनके खिलाफ पूरी सुनवाई महाराष्ट्र में हुई, लेकिन आचरण और चाल-चलन ठीक बताकर गुजरात सरकार ने इन्हें रिहा कर दिया। जबकि यह अधिकार अगर किसी को था भी तो वह महाराष्ट्र सरकार को था।
अब सवाल ये कि आखिर गुजरात सरकार ने ऐसा क्यों किया। क्या चुनावों में लाभ पाने के लिए। यहां एक बात बताना जरूरी है कि जब आरोपियों को रिहा किया गया तो कई लोगों ने उनका फूल मालाओं के साथ सम्मान किया था। इससे समाज में ये मैसेज गया कि अपराध करने के बाद सजा माफ हो जाती है और सम्मानित भी हो जाते हैं। अपराध के लिए अपराध की वृत्ति को बढ़ावा देने के लिए यह एक उदाहरण बनाने की परिपाटी बनाने जैसा था।
कोर्ट ने फैसले में कहा कि इस तरह आज़ादी के अमृत महोत्सव के तहत कोई सरकार किसी गंभीर अपराध के दोषी को रिहा नहीं कर सकती। हालांकि मामला दो राज्यों के बीच का था, इसलिए इसमें केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास भी अपील या फ़ाइल तो जानी ही चाहिए थी, लेकिन क्या हुआ, कैसे हुआ, यह कोई नहीं जानता। वास्तविकता में, अपराध का स्थान और कारावास का स्थान ज़्यादा महत्व नहीं रखता। कम से कम उस स्थान पर पदस्थ राज्य सरकार को भी वह कोई अधिकार तो नहीं ही मिलता। असल हक़दार वह सरकार है जिसके राज्य में अपराधियों के खिलाफ केस चल रहा है या सुनवाई चल रही है और सजा का आदेश हुआ है।
यह मामला 2002 का है, जब गुजरात में दंगे हुए थे। दाहोद जि़ले की लिमखेडा तहसील के रंधिकपुर गांव में दंगाइयों की भीड़ बिलकिस बानो के घर में घुस गई थी। बिलकिस तब जान बचाने के लिए अपने परिवार के साथ खेत में छिप गई थी। दंगाई वहां भी पहुंच गए। बिलकिस के साथ गैंगरेप किया। तब बिलकिस की उम्र 21 साल थी और वे 5 महीने की गर्भवती थीं। दंगाइयों ने बिलकिस का गैंगरेप किया। उनकी मां और तीन और महिलाओं का भी रेप किया गया। इस हमले में उनके परिवार के 17 सदस्यों में से 7 लोगों की हत्या कर दी गई थी। 6 लोग लापता पाए गए, जो कभी नहीं मिले। हमले में सिर्फ बिलकिस, एक शख्स और तीन साल का बच्चा ही बचे थे।
मूलभूत प्रश्न है कि क्या राजनीति का मुख्य ध्येय सत्ता ही है? क्या राजनीति का मुख्य लक्ष्य परिजनों को लाभ पहुंचाना ही है। राजनीति लोकमंगल का कर्मक्षेत्र है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा कि सर्वप्रथम राजा को चाहिए कि रानियों और पुत्रों, परिजनों से बचें, लेकिन यहां साफ दिख रहा है कि विचार के गोलबंदी और चुनाव में लाभ के लिए न्याय से खिलवाड़ किया गया। साथ ही देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी गलत जनाकारी दी गई। सत्ता का मूल कत्र्तव्य है संविधान की रक्षा करना और उसे अपने हर नागरिक को उपलब्ध कराना, लेकिन बिलकिस मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि राजनैतिक लाभ के लिए सत्ता ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। बल्कि अधिकारों पर अतिक्रमण किया है। पूरा देश इन दिनों अयोध्या में भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उत्साहित है। हमारे देश के सैकड़ों साल के इतिहास में कई राजा आए जिनमें कुछ अवतारी थे, कुछ जन्म से पराक्रमी थे, लेकिन इन सब के बीच राजा राम को ही समाज में आदर्श के तौर पर देखते हैं। आम जनमानस में राम राज्य को लेकर कल्पना होती है, लेकिन जब सत्ता इस तरह स्वार्थ और लालच के रंग में रंग जाए तो क्या मर्यादा पुरुषोत्तम की असली भक्ति हो पाएगी। जिस राम का नाम हम गर्व से लेते हैं वो त्याग की मूर्ति थे। उनके राज में एक-एक जनता की इच्छा सर्वोपरि थी। आज बिलकिस मामले ने एक सवाल जरूर उठा दिया है कि क्या हमारे भीतर राम पथ में चलने का साहस बचा है या नहीं।

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