-सुभाष मिश्र
भारत में नए आपराधिक कानून लागू हो गए हैं। अंग्रेजों के जमाने के भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम अब समाप्त हो गए हैं। अब इनकी जगह भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ने ले ली है। आपको बता दें कि इन कानूनों से जुड़े विधेयक को बीते साल संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा से पास करवाया गया था। इस कानून के लागू होने के बाद से कई धाराएं और सजा के प्रावधान आदि में बदलाव आया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने इस अवसर पर कहा कि अंग्रेजों के बनाए दंड विधानों से हम न्याय विधानों की ओर उन्मुख हो चुके हैं। उन्होंने दावा किया कि नये कानूनों की प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार व्यापक परिवर्तन किया गया है, जिससे पीडि़तों को त्वरित न्याय दिलाया जा सके। ऐसा करने से न्याय प्रणाली में आम जनता का विश्वास और मजबूत होगा।
देखा जाए तो इन कानूनों के लागू होने के बाद जो सबसे अहम बदलाव आ रहे हैं उनमें ‘जीरो एफआईआरÓ है। इसके तहत अब कोई भी व्यक्ति किसी भी पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज करा सकता है, भले ही अपराध उस थान क्षेत्र में नहीं हुआ हो। नये कानून में जुड़ा एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि गिरफ्तारी की सूरत में व्यक्ति को अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को अपनी स्थिति के बारे में सूचित करने का अधिकार दिया गया है। इससे गिरफ्तार व्यक्ति को तुरंत सहयोग मिल सकेगा।
कानून में जो बदलाव हुए हैं उसके तहत जहां भारतीय दंड संहिता, 1860 के स्थान पर भारतीय न्याय संहिता, 2023, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के स्थान पर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के स्थान पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 को नये सिरे से नये कलेवर में प्रस्तुत किया गया है। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि इन कानूनों को भारतीयों ने, भारतीयों के लिए और भारतीय संसद द्वारा बनाया गया है तथा यह औपनिवेशिक काल के न्यायिक कानूनों का खात्मा करता हैं। नये कानूनों के तहत आपराधिक मामलों में फैसला मुकदमा पूरा होने के 45 दिन के भीतर आएगा और पहली सुनवाई के 60 दिन के भीतर आरोप तय किए जाएंगे। दुष्कर्म पीडि़ताओं का बयान कोई महिला पुलिस अधिकारी उसके अभिभावक या रिश्तेदार की मौजूदगी में दर्ज करेगी और मेडिकल रिपोर्ट सात दिन के भीतर देनी होगी। कानूनों में संगठित अपराधों और आतंकवाद के कृत्यों को परिभाषित किया गया है, राजद्रोह की जगह देशद्रोह लाया गया है। इसके अलावा सभी जघन्य अपराधों के वारदात स्थल की अनिवार्य वीडियोग्राफी जैसे प्रावधान शामिल किए गए हैं। इसके अलावा मॉब लिंचिंग के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान किया गया है।
इन कानूनों को लेकर कानूनी विशेषज्ञों की अपनी-अपनी राय है। कई कानूनी जानकारों की ये भी दलील है कि नए आपराधिक कानूनों में, कानून प्रवर्तन एजेंसियों को बिना किसी नियंत्रण और संतुलन के निरंकुश शक्तियां दी गई हैं जिससे खतरा भी हो सकता है। राजनीतिक स्तर पर भी नए आपराधिक कानून को लेकर विरोध के स्वर उभर रहे हैं। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इस कानून का विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दलों का कहना है कि इस कानून को बिना किसी व्यापक चर्चा के लागू किया गया है। विपक्ष ने मांग की है कि संसद नए आपराधिक कानूनों की फिर से जांच करे, उनका दावा है कि ये देश को पुलिस राज्य में बदलने की नींव रखते हैं। देश की जानी-मानी अधिवक्ता और पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने हाल ही में पत्रकार करन थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर तीन नए आपराधिक क़ानून एक जुलाई को लागू होगा तो हमारे सामने बड़ी न्यायिक समस्या खड़ी होगा। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अभियुक्त की जि़ंदगी और आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है।
इंदिरा जयसिंह ने क़ानून मंत्री के साथ-साथ देश के सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं से सार्वजनिक रूप से अपील की है कि वो तीनों आपराधिक क़ानूनों पर तब तक रोक लगा दें, जब तक कि उन पर और चर्चा नहीं हो जाती। उनका कहना है कि एक बार फिर से बारीकी से विचार किया जाए। इसके साथ ही बड़े वर्ग ने इसका स्वागत किया है। कहीं न कहीं इससे पुलिस को अपनी कार्य शैली में बड़ा बदलाव लाना होगा और उस पर नतीजा देने का दबाव भी बढ़ेगा। जहां पुलिस पर कार्य शैली में बदलाव करने की जरूरत होगी वहीं जजों के सामने भी एक ही तरह की चुनौती होगी। 30 जून से पहले दर्ज सभी मामलों का ट्रायल, अपील पुराने कानून के अनुसार ही होगा। देश की अदालतों में लगभग 5.13 करोड़ मुकदमे पेंडिंग हैं, जिनमें से लगभग 3.59 करोड़ यानी 69.9फीसदी क्रिमिनल मैटर्स हैं। इन लंबित मामलों का निपटारा पुराने कानून के मुताबिक ही किया जाएगा। नए कानून में मुकदमों के जल्द ट्रायल, अपील और इसके फैसले पर जोर दिया गया है। पुराने मुकदमों में फैसलों के बगैर नए मुकदमों पर जल्द फैसले से जजों के सामने नई चुनौती आ सकती है। इसके अलावा एक ही विषय पर जजों को दो तरह के कानून में महारथ हासिल करनी पड़ेगी, जिसकी वजह से कन्फ्यूजन बढऩे के साथ मुकदमों में जटिलता बढ़ सकती है।
अब वकीलों को दोनों तरह के कानूनों की जानकारी रखनी होगी। नए कानून में मुकदमों के जल्द फैसले के प्रावधान हैं, लेकिन पुराने मुकदमों के निपटारे के बगैर नए मुकदमों पर जल्द फैसला मुश्किल होगा। ऐसे में क्लाइंट और लिटीगैंट की तरफ से वकीलों और जजों पर कई तरह के दबाव बढ़ेंगे। कानून की पढ़ाई करने वाले छात्र अब नए कानून का अध्ययन करेंगे, लेकिन इसके लिए उन्हें रिसर्च मटेरियल और केस लॉ की कमी रहेगी। वकालत में आने के बाद उन्हें पुराने कानून की भी जानकारी नए सिरे से हासिल करनी होगी। नए कानूनों में पुलिस की हिरासत की अवधि में बढ़ोतरी जैसे नियमों से पुलिस उत्पीडऩ के मामले और आम लोगों की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
जिला अदालतों का नियंत्रण हाईकोर्ट के अधीन होता है, लेकिन अदालतों के लिए इन्फ्रा, कोर्ट रूम, जजों का वेतन आदि का बंदोबस्त राज्य सरकारों के माध्यम से होता है। इन्फ्रा की कमी की वजह से जिला अदालतों में लगभग 5,850 जजों के पदों पर भर्ती नहीं हो पा रही है। इसलिए नए कानूनों की सफलता राज्यों के सहयोग पर निर्भर रहेगी। इस तरह नए कानून के साथ नई उम्मीदें और नई चुनौतियां सामने खड़ी हैं।