Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – नक्सलवाद समस्या कानूनी या विषमता

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

– सुभाष मिश्र

नक्सल समस्या पर बड़ा सवाल यह है कि नक्सलवाद कानूनी समस्या है या विषमता से उत्पन्न लावा। विचारकों का एक वर्ग जहां नक्सलवाद को आतंकी गतिविधियों से जोड़कर इसे देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती मानता है, तो दूसरा वर्ग इसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमताओं एवं दमन-शोषण की पीड़ा से उपजा एक स्वत: स्फूर्त विद्रोह समझकर इसका पक्षपोषण करता है।
भारत में वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था, वहीं आज का माओवाद चीन से प्रभावित है। ये मौजूदा माओवाद हिंसा और ताकत के बल पर समानांतर सरकार बनाने का पक्षधर है। इसके अलावा अपने उद्देश्य के लिये ये किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं। गत कुछ वर्षों में शहरी नक्सलवाद या अर्बन नक्सलिज़्म शब्द बड़ी तेजी से सामने आया है। शहरी नक्सलवाद से मतलब, उन शहरी आबादी में रहने वाले लोगों से हैं जो प्रत्यक्ष तौर पर तो नक्सलवादी नहीं है, लेकिन वो नक्सलवादी संगठनों के प्रति और उनकी गतिविधियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं।
नक्सलियों का कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं, जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है। वे ज़मीन के अधिकार एवं संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। नक्सल प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहाँ जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। यहां न सड़कें हैं, न पीने के लिए पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं और न ही रोजग़ार के अवसर। नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सली सरकार के विकास कार्यों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं होने देते और उन्हें सरकार के खिलाफ भड़काते हैं। वे लोगों से वसूली करते हैं एवं समांतर अदालतें लगाते हैं। प्रशासन तक पहुंच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग नक्सलियों के अत्याचार का शिकार होते हैं। अशिक्षा और विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मज़बूत बनाया है।
सामाजिक विषमता ही वर्ग संघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिए यह एक बड़ा मानसिक हथियार है। शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है, जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नई पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छा बहाना मिल जाता है। आम जनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बंद करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेशमात्र भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय होता है यानी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने का काम संबंधित राज्य का होता है, लेकिन नक्सलवाद की विकटता को देखते हुए 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसको राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती बताया। उसके बाद गृह मंत्रालय में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिये एक अलग प्रभाग बनाया गया। सरकार वामपंथी चरमपंथ से प्रभावित क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे, कौशल विकास, शिक्षा, ऊर्जा और डिजिटल कनेक्टिविटी के विस्तार पर काम कर रही है। इसके अलावा वामपंथी अतिवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें बनाने की योजना पर तेज़ी से काम कर रही है, और 2022 तक 48,877 किमी. सड़कें बनाने का लक्ष्य रखा गया है। इसी तरह वर्ष 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी, ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जि़लों में युवाओं को रोजग़ार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके। वर्ष 2017 में नक्सल समस्या से निपटने के लिये केंद्र सरकर ने ‘आठ सूत्रीय समाधान नाम से एक कार्ययोजना की शुरुआत की है।
एक तरफ जहां नक्सल समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है, वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है। यही कारण है कि जानकारों की नजऱों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक ‘चुनावी तवा है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है। क्योंकि हमारी सरकारें लगातार संविधान की पाँचवीं अनुसूची को तरजीह देने से कतराती रही हैं।
गौरतलब है कि इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले आते हैं। पांचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में ट्राइबल एड्वाजरी कौंसिल की स्थापना की बात की गई। इन क्षेत्रों में एडवायजरी कौंसिल एक तरह की पंचायत है जो आदिवासियों को अपने क्षेत्रों में प्रशासन करने का अधिकार देती है। इस कौंसिल में अधिकतम 20 सदस्य होते हैं जिनके तीन-चौथाई सदस्य वे होते हैं जो संबंधित राज्य की विधानसभा में अनुसूचित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सार्वभौमिक सत्य है कि हिंसा से प्राप्त व्यवस्था ज़्यादा दिन तक चल नहीं पाती और अंतत: टूट जाती है। दूसरी ओर सरकार को भी कानून-व्यवस्था की समस्या से ऊपर उठकर इनकी मूलभूत समस्याओं को दूर करने के प्रयास करने चाहिये।

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