Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

चंदा जब जेहन में आता है तो सबसे पहले चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा गाना याद आता है, किन्तु चुनाव के समय बहुत से चंदा मामा दिखने लगते हैं। चुनाव हो या कोई सार्वजनिक उत्सव चंदा मांगने वालों की तादात अचानक बढ़ जाती है। आज के दौर में अगर ये कहा जाए कि चुनावी चंदा भ्रष्टाचार की पहली सीढ़ी है तो गलत नहीं होगा। क्योंकि बिना स्वार्थ कोई भी किसी को गुप्त चंदा क्यों देगा? रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।।
तो राजनीतिक दलों और बड़े औद्योगिक घरानों के बीच बिना स्वार्थ के प्रीति हो ही नहीं सकती। यहां हम बड़े औद्योगिक घराना इसलिए कह रहे हैं क्योंकि बहुत बड़ी राशि इन्हीं से प्राप्त हो सकती है। वैसे तो हमारा देश-दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हम गर्व से इस बारे में दुनियाभर के मंचों से बात करते हैं। लोकतंत्र यानि जनता का तंत्र जनता की इच्छा से उसके चुनाव से बनने वाली सरकार इस देश को चलाती है। यानि हमारे सिस्टम में जनता ही जब सर्वशक्तिमान है, निर्णायक है तो उसके साथ अधिकतम पारदर्शिता बरती जानी चाहिए। लेकिन केन्द्र सरकार का कहना है कि जनता को चुनावी चंदे का स्त्रोत जानने का अधिकार नहीं है, केंद्र सरकार ने ये सुप्रीम कोर्ट में एक जवाब में कहा है। इलेक्शन बॉड के संबंध में चल रही इस सुनवाई में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमनी ने कहा कि जनता को राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे के सोर्स के बारे में जानने का अधिकार नहीं है। अटॉर्नी जनरल ने अदालत में चार पेज का लिखित जवाब दिया है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इलेक्ट्रॉल बॉन्ड योजना में चंदा देने वाले को गोपनीयता का लाभ मिलता है। जबकि सुप्रीम कोर्ट इससे पहले ये निर्देश जारी कर चुका है कि सभी दलों को चुनावी चंदे की पूरी जानकारी चुनाव आयोग को सौंपनी होगी।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड योजना के तहत मिलने वाले धन के स्त्रोत के बारे में नागरिकों को जानने का अधिकार नहीं है। सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत लोगों को सूचना पाने का अधिकार नहीं है। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम किसी कानून या अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ ने 31 अक्टूबर से मामले की सुनवाई शुरू की है। अटार्नी जनरल ने शीर्ष न्यायालय से कहा कि जिस योजना की बात की जा रही है, वह अंशदान करने वाले को गोपनीयता का लाभ देती है। यह इस बात को सुनिश्चित और प्रोत्साहित करता है कि जो भी अंशदान हो, वह काला धन नहीं हो।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने चुनावी बॉन्ड के मुद्दे पर केंद्र सरकार पर तंज कसते हुए कहा था कि भाजपा ने अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है कि वह अपारदर्शी तरीके से बड़े कॉरपोरेट्स से धन जुटाएगी। चिदंबरम के आरोपों पर पलटवार करते हुए भाजपा कांग्रेस से अधिक पारदर्शी और लोकतांत्रिक राजनीतिक फंडिंग प्रणाली सुनिश्चित करने के किसी भी प्रयास की आलोचना करती है। मालवीय ने कहा कि सच्चा लोकतंत्र तब होता है जब छोटे व्यवसायों और कॉर्पोरेट दानदाताओं को किसी भी पार्टी को दान देने की आजादी होती है। अगर कोई अलग पार्टी सत्ता में आती है तो प्रतिक्रिया का डर नहीं होगा। राजनीतिक दलों को मिलने वाले गुप्त चंदे यानी चुनावी बांड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर मंगलवार (31 अक्टूबर) को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो गई। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जेपी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ इन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।
प्रशांत भूषण ने कहा कि केन्द्रीय सत्तारूढ़ दल को कुल योगदान का 60 प्रतिशत से अधिक मिला है, अन्य महत्वहीन हो गए हैं। अगर किसी नागरिक को उम्मीदवारों, उनकी संपत्ति, देनदारियों, उनके आपराधिक इतिहास आदि के बारे में जानने का अधिकार है तो नागरिकों को ये भी जानने का अधिकार है कि इन राजनीतिक दलों को कौन फंड कर रहा है। पार्टियों को 10वीं अनुसूची के तहत भी अधिकार है। उन्होंने कहा कि सरकार का कहना है कि ऐसा अधिकार उचित प्रतिबंधों के अधीन है, लेकिन यहां प्रतिबंधों को पहले स्थान पर उचित होने की आवश्यकता है। चुनाव आयोग ने खुद कहा था कि इससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए फर्जी कंपनियों के इस्तेमाल की संभावनाएं खुलती है। राजनीतिक दलों के पास शेल कंपनियों के माध्यम से काला धन आ रहा है। प्रशांत भूषण ने कहा कि केवल एसबीआई और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को ही फंडिंग के स्रोत के बारे में पता चलेगा और यह पूरी तरह से नागरिकों के अधिकार को खत्म करता है।
इलेक्टोरल बॉन्ड दरअसल चुनावी चंदा देने का तरीका है। अगर कोई किसी राजनीतिक दल को चंदा देना चाहता है तो इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दे सकता है, ये बॉन्ड 15 दिन तक ही वैलिड होता है। इसे स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकते हैं। एक हजार, 10 हजार, एक लाख, 10 लाख और 1 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड उपलब्ध है. इसे कोई भी व्यक्ति, समूह या फिर कंपनी खरीद सकती है। इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले या फिर उसे पाने वाली राजनीतिक पार्टी की जानकारी कहीं भी साझा नहीं की जाती है। यही वजह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड 2018 के बाद से ही विवादों में है।
दरअसल चुनाव नियमों के मुताबिक, यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2,000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है। हालांकि, चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है। अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी। इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ। इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है। इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है। सबसे पहले तो स्वयं चुनाव आयोग ने 2017 में योजना को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की। इसके बाद 2018 से इनकी वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं।
शीर्ष अदालत दो बार योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर चुकी है। एक तरफ सरकार की एजेंसियां किसी संस्था पर उसे मिलने वाले फंड को लेकर छापा डाल सकती है। हाल ही में एक मीडिया समूह से जुड़े पत्रकारों को अचानक उठा लिया गया था और उनसे पूछताछ की गई। हम मानते हैं कि पादर्शिता हर क्षेत्र में होनी चाहिए। तभी भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और समाज का निर्माण हो सकता है।
एक तरफ राजनीतिक दलों की संपत्ति लगातार बढ़ रही है। साल 2021-22 के दौरान 8 राजनीतिक दलों की संपत्ति 8 हजार 8 सौ 29 करोड़ रुपए थी। वित्त वर्ष 2020-21 में बीजेपी ने 4 हजार 9 सौ 90 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की थी, जो 2021-22 में 21.17 प्रतिशत बढ़कर करीब 6 हजार 46 करोड़ रुपये हो गई। इसी तरह कांग्रेस ने 2020-21 में 691.11 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की थी, जो 2021-22 में 16.58 प्रतिशत बढ़कर 805.68 करोड़ रुपये हो गई। इसी तरह वित्त वर्ष 2021-22 के लिए कांग्रेस फिर से 41.95 करोड़ रुपये की देनदारियों के साथ शीर्ष पर थी। इसके बाद माकपा और बीजेपी ने क्रमश: 12.21 करोड़ रुपये और 5.17 करोड़ रुपये की देनदारियों की घोषणा की।
कहीं न कहीं देश की राजनीति में चुनाव सिस्टम में धन बल हावी हो रहा है उस पर लगाम लगाने के लिए इस सिस्टम में पारदर्शिता लाने की जरूरत है। नहीं तो लोकतंत्र के मायने बदल जाएगा ये धनतंत्र में बदल जाएगा।
आज जिस तरह से राजनीति सोशेबाजी में बदल गई है, उससे पहले ही आम जनता के लिए काम करने के लिए धन की बहुत जरूरत हो रही है और राजनीति करना धनाड्य वर्ग का शगल बनते जा रहा है। आज पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में जिस तरह से लगभग सभी पार्टियों से करोड़पति उम्मीदवारों की भरमार है। उससे भी इस बात का अंदाजा लग रहा है कि चुनावी राजनीति में आर्थिक रूप से सक्षम उम्मीदवार पर दांव ज्यादा लगाया जा रहा है।

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