Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – लोकतंत्र बनाम लाल आतंक ! 

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

नारायणपुर जिले में नक्सलियों ने भाजपा के जिला उपाध्यक्ष रतन दुबे की हत्या कर दी। इस वारदात से चुनाव से पहले सनसनी फैल गई है। चुनाव करीब आते ही लगातार नक्सली स्थानीय जनप्रतिनिधियों को, ग्रामीणों को निशाना बना रहे हैं। इसी हफ्ते कांकेर जिले में मुखबिरी के आरोप में 3 ग्रामीणों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। नक्सलियों ने बकायदा जनअदालत लगाकर इस वारदात को अंजाम दिया था। इसी तरह बीजापुर में भी एक ग्रामीण की हत्या की गई थी। मध्यप्रदेश के बालाघाट में भी एक पूर्व सरपंच की हत्या कर दी। लांजी थाना क्षेत्र के ग्राम भक्कू टोला में नक्सलियों ने इस कायराना वारदात को अंजाम देकर लोगों में चुनाव के वक्त दहशत फैलाने की कोशिश की है।
इन खूनी वारदातों के अलावा नक्सली लगातार धमकी भरे पर्चे जारी कर अपना लोकतांत्र के विरोधी चेहरे को सामने ला रहे हैं। चुनाव के समय नक्सलियों ने फरमान जारी कर कहा था कि चुनाव ड्यूटी में लगे कर्मचारी गांव से दूरी बनाकर रखें, चुनाव में सहयोग ना करें। ऐसा नहीं करने पर नक्सलियों ने गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी। इस वजह से इस बार कई मतदान केंद्र गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर बनाए गए हैं।

इस धमकी भरे माहौल के बीच सुकमा और नारायणपुर जिले में अंदरूनी इलाकों के लिए मतदान दल रवान हो गए हैं। वे लोकतंत्र के इस महापर्व में लोगों को वोट डालने के लिए मौका देने के लिए ये जोखिम ले रहे हैं। इन बहादुर मतदानकर्मियों की बदौलत हमारा लोकतंत्र और समृद्ध होता है।

बस्तर में चुनाव के पहले जिस तरह से ग्रामीणों के साथ ही जनप्रनिधियों को नक्सली निशाना बना रहे हैं। इस पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सियासी बयानबाजी भी हो रही है। भाजपा जहां इसे टारगेट किलिंग बता रही है, वहीं कांग्रेस का दावा है कि पिछले पांच साल में नक्सलियों को बैकफुट पर रखा गया है।

नक्सली छत्तीसगढ़ में पहले भी जनप्रनिधियों को निशाना बनाते रहे हैं। 2013 में हुई झीरम घाटी की वारदात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला करते हुए वीसी शुक्ल, नंदकुमार पटेल, महेन्द्र कर्मा समेत कई नेताओं की हत्या कर दी थी। एक तरह से प्रदेश से कांग्रेस नेतृत्व की हत्या कर दी गई थी। 2019 लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे दंतेवाड़ा से भाजपा विधायक भीमा मंडावी को भी नक्सलियों ने लैंड माइन विस्फोट कर मारा था। इस तरह जब जब मौका मिला नक्सलियों ने अपना लोकतंत्र विरोधी चेहरा सामने लाया है। 90 सीट वाले छत्तीसगढ़ में दो चरणों में चुनाव इसीलिए कराया जा रहा है ताकी नक्सल प्रभावित इलाकों में पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था के बीच चुनाव संपन्न कराया जा सके। यहां पहले चरण में 7 नवंबर को 20 सीटों पर चुनाव कराए जाएंगे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण संभाग बस्तर है, जहां 12 सीटें आती हैं। इसके अलावा राजनांदगांव, मोहला-मानपुर, खैरागढ़ और कवर्धा जिले में भी नक्सल हलचल और सीमवर्ती इलाकों में इनकी मौजूदगी के चलते चुनाव कराया जा रहा है।

अगर नक्सलवाद के सफर पर नजर डाले तो ये एक जन आंदोलन से दहशगर्दी तक कैसे पहुंचती? कैसे आम लोगों की बात करने वाला माओवादी बस्तर में अपने हाथ आम लोगों के खून से रंगने लगता है? कभी मुखबिरी के नाम पर तो कभी चुनाव लडऩे के नाम पर लोगों को सरेआम कत्ल किया जाना यहां आम बात हो गई है। इस चुनाव से पहले अचानक नक्सली जिस तरह से अपनी बौखलाहट बयां कर रहे हैं वो बेहद खतरनाक है।

भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जि़ले के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई थी। नक्सलबाड़ी गाँव के नाम पर ही उग्रपंथी आंदोलन को नक्सलवाद कहा गया। ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों पर किये जा रहे के उत्पीडऩ पर अंकुश लगाने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ नेता सामने आए। इन नेताओं में चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी का नाम शामिल है। ये आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की नीतियों पर आधारित था, इसीलिये इसे माओवाद भी कहा जाता है।

इसका प्रथम चरण मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवाद पर आधारित था। इसका मतलब ये ‘वैचारिक और आदर्शवादीÓ आंदोलन का चरण रहा है। 18 मार्च 1967 से जारी इस सशस्त्र गतिविधि को 1971 तक सुरक्षा बलों ने ध्वस्त कर दिया। इसके बचे नेताओं को भूमिगत होकर काम करना पड़ रहा था।

इसका दूसरा चरण ये दौर ज़मीनी अंदाज़ा, ज़रुरत और अनुभव के आधार पर चलने वाला क्षेत्रीय नक्सली गतिविधियों का दौर था। इस चरण में नक्सलवाद का व्यवहारिक विकास हुआ। इनका क्षेत्रीय प्रभाव और विस्तार भी देखने को मिलता है। इसके तीसरा चरण में नक्सलियों का ‘राष्ट्रीय स्वरूप उभरा और ‘विदेशी संपर्क बढ़े और नक्सलवाद राष्ट्र की ‘सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती बनकर उभरा। साल 2004 नक्सली संघर्ष की सैन्य और राजनीतिक ताकत और जनाधार के प्रदर्शन का साल रहा। इस दौरान संसदीय जनतंत्र के खिलाफ चुनाव बहिष्कार और नक्सलियों का दक्षिण एशिया के सशस्त्र वामपंथी संगठनों के बीच बढ़ते समन्वय को भी देखा जा सकता था। 2004 में ही पीपुल्सवार और एमसीसीआई का एकीकरण हुआ। किसी भी राज्य या सरकार के खिलाफ इतनी बड़ी हिंसा लगातार कई सालों से बिना फंड के नहीं चलाया जा सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि नक्सलियों के पास हथियार और पैसे कहां से आते हैं। दरअसल इसका जवाब है नक्सलियों के पैसे का मुख्य स्रोत वसूली करना है। जब बड़ी कंपनियां या सरकार कोई प्रोजेक्ट लेकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाती है तो नक्सली इन कंपनियों (ठेकेदार) से मोटी रक़म कमाते हैं। इसके लिए वे कभी अपहरण, तो कभी हत्या जैसेे कदम भी उठाते हैं। नक्सलियों को अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क और दूसरे उग्रवादी संगठनों से भी फंडिंग होती है।

नक्सलवाद की समस्या को सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला मान कर सिर्फ फोर्स के दम पर हल नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके प्रभावित इलाकों में जहां आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, खेती की दुर्दशा, शिक्षा का अभाव, बेरोजगारी की स्थिति है, उससे भी समनांतर लड़ाई लडऩी होगी। तभी इस समस्या से पार पाया जा सकता है। कुछ नक्सल मामलों के जानकार बताते हैं कि जिस तरह से नक्सलियों के केन्द्रीय कमेटी के सदस्य बूढ़े और कमजोर हो रहे हैं, वैसे-वैसे इनका संगठन से पकड़ कमजोर हो रही है। ऐसे में संगठन के कई गुट में बंटने का भी खतरा मंडरा रहा है। ऐसी स्थिति में गैंगवार की स्थिति भी बन सकती है। इन तमाम हालातों पर नजर रखते हुए लोकतंत्र के लिए नासूर बने नक्सलियों को उखाड़ फेंकना होगा।

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