Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – पाठ्यक्रम में बदलाव से इतिहास नहीं बदलेगा

Editor-in-Chief

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Change in curriculum will not change history

सुभाष मिश्र

देश की सीबीईएससी के लिए पाठ्यक्रम बनाने वाली संस्था एनसीईआरटी कक्षा 10वीं और 12वीं के कला साहित्य और सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में से कुछ चेप्टर हटा रही है जिनमें मुगलकालीन भारत का इतिहास, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता, फिऱाक गोरखपुरी की कविता को हटाया गया है। इस पूरे मामले को लेकर देश की सोशल मीडिया और राजनीतिक क्षेत्र में अच्छी ख़ासी बहस छिड़ी हुई है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर इरफ़ान हबीब कहते हैं कि मुग़ल पीरियड को अगर नहीं पढ़ायेंगे तो दो सौ साल के इतिहास के बारे में लोगों की जानकारी पूरी तरह शून्य हो जायेगी। यदि मुग़लों का इतिहास नहीं होगा तो ताजमहल भी नहीं होगा। उतरप्रदेश सरकार ने बक़ायदा पाठ्यक्रम में बदलाव की सूचना जारी करते हुए कहा है कि अब मुग़लों का इतिहास नहीं पढ़ायेंगे। कुछ लोग पाठ्यक्रम से मुग़लों का इतिहास हटाये जाने का समर्थन कर रहे हैं उनमें भाजपा के कपिल मिश्रा जैसे नेता भी हैं जो कह रहे हैं कि हमारे बच्चे अकबर, शाहजहां को तो जान गये लेकिन महाराणा प्रताप, शिवाजी, सिख गुरुओं और ना जाने कितने नायकों को नहीं जान पाये हैं। अभी मुग़ल इतिहास को हटाया जा रहा है अगले चरण में उनका सच बतायेंगे।
कुछ विद्वानों का मानना है कि आठवीं सदी से मुस्लिम हमलावरों ने अपने हिसाब से इतिहास लिखवाया। इतिहास मुख्यत: उनके दरबारियों ने लिखा। स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि एकांगी थी। फिर भी आज जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह इन दरबारियों द्वारा लिखित इतिहास पर बहुत सीमा तक निर्भर है। इसके अतिरिक्त मध्यकाल में आए विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृत्तांत पर भी हमारा इतिहास निर्भर है।
वहीं कुछ लोगों का कहना है कि वर्तमान को बर्बाद करने वाले इतिहास बदल रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं कि कवि रहीम, बीरबल, बैजूबावरा, टोडरमल, राजा मानसिंह के बारे में क्या बतायेंगे? क्या अकबर के बिना इनकी कहानी पूरी होगी।
मोदी सरकार को लगता है कि मुगलकाल का इतिहास मुग़लों को महिमामंडित करने वाला इतिहास है जिसे तत्कालीन शासकों ने अपने हिसाब से अपनी प्रशस्ति में लिखवाया है। जो लोग इतिहास को मिटाना या भूलना चाहते हैं वे शायद नहीं जानते कि इतिहास में फेरबदल संभव नहीं है। इतिहास सिफऱ् पाठ्यपुस्तकों में ही नहीं वह हमारी कला और संस्कृति में भी जीवित रहता है। आप मुगलकाल को विलोपित कर इसे कला और संस्कृति के साथ उस समय के स्थापत्य जिनमें ताजमहल, लालकि़ले से लेकर बहुत सी इमारतें शामिल हैं उन्हें कैसे मिटायेंगे। पाठ्यक्रम में बदलाव की इस बहस के बीच हमें यह भी समझना होगा कि हमारे देश में पाठ्यक्रम बनाने का काम कौन-कौन सी संस्थाएँ करती हैं और कौन-कौन से बोर्ड परीक्षा लेते हैं। हमारे देश की विद्यालयीन शिक्षा को पांच से अधिक बोर्ड संचालित करते हैं। इसलिए हमारी शिक्षा प्रणाली में एकरूपता का अभाव है। सबसे अधिक छात्र राज्य माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अंतर्गत आते हैं ये पाठ्यक्रम राज्य की संस्था एससीईआरटी बनाती है। इसके बाद सी.बी.एस.सी, आई.सी.एस.आई और एन.आई.एस.ओ तो हैं ही, साथ ही दो अंतरराष्ट्रीय बोर्ड भी हैं। देश में कुल विद्यालयीन छात्रों की संख्या 26 करोड़ है जो सारे विश्व में सर्वाधिक है। हमारे देश में विद्यालयीन छात्रों को उपलब्ध की जा रही पाठ्यपुस्तकों के मुख्यत: तीन स्रोत हैं — 1. एस.सी.ई.आर.टी (राज्य सरकार), 2. एन.सी.ई.आर.टी (केंद्र सरकार) और 3. निजी या प्राइवेट प्रकाशक परन्तु प्रभाव की दृष्टि से एन.सी.ई.आर.टी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एन.सी.ई.आर.टी पूरे बारह वर्ष की विद्यालयी अवधि के लिए पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराने का काम करती है। सामान्यतया एन.सी.ई.आर.टी नये सिरे से पुस्तक-निर्माण के स्थान पर विभिन्न पुस्तकों के अंशों का संकलन और सम्पादन का काम करती है। फिर भी इतिहास जैसे विषयों के लिए पुस्तकलेखन का काम भी करती है। जहां एन.सी.ई.आर.टी द्वारा निर्मित पाठ्यपुस्तकों का प्रयोग केंद्र सरकार के अधीन आने वाले विद्यालयों द्वारा किया जाता है, वहीं एससीईआरटी द्वारा निर्मित पाठ्यपुस्तकों का प्रयोग राज्यों के अधीन आने वाले विद्यालयों द्वारा किया जाता है। अमेरिका और बहुत सारे देशों में, जहां की शिक्षा-प्रणाली श्रेष्ठ मानी जाती है, वहां पाठ्यपुस्तकों को लेकर सरकार की कोई नीति ही नहीं है। यूनेस्को, जिसे विश्व में शान्ति की स्थापना, निर्धनता-उन्मूलन तथा सतत विकास के लिए शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति, संचार तथा सूचना को बढ़ावा देने का दायित्व सौंपा गया है, का मानना है कि जिन देशों में व्यापक स्तर पर पाठ्यपुस्तकों के निर्माण की सुदृढ़ परम्परा और दीर्घ अनुभव है, उनके यहांँ लेखकों तथा प्रकाशकों के मध्य प्रतिस्पर्धा होती है। इसके फलस्वरूप शिक्षकों को अपने विद्यालयों के लिए सर्वोत्तम पुस्तकों के चयन की सम्भावना बनी रहती है। परन्तु बहुत ऐसे देश भी हैं जहां एक विषय के लिए एक ही पाठ्यपुस्तक उपलब्ध होती है। सामान्यतया पाठ्यपुस्तकों को हम तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं- 1. विज्ञान, 2. कला या सामाजिक विज्ञान तथा 3. वाणिज्य की पुस्तकें। वैसे तो इस प्रकार का स्पष्ट वर्गीकरण ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षाओं के लिए है, परन्तु छोटी कक्षाओं में भी इन्हीं वर्गों के अलग-अलग विषय पढ़ाए जाते हैं। भाषा और साहित्य एक ऐसा विषय है जो लगभग सभी कक्षाओं में पढ़ाया जाता है।
उत्तरप्रदेश के गोरखपुर स्थित दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय द्वारा हिन्दी विभाग की नई शिक्षा नीति के तहत स्नातक कक्षाओं के चौथे सेमेस्टर में लोकप्रिय साहित्य के नाम से गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफ़ी को शामिल कर पढ़ाया जायेगा। इस निर्णय को लेकर भी साहित्य जगत में खासी बहस छिड़ी हुई है। कुछ लोगों का मानना है कि लोकप्रिय साहित्य सामाजिक भ्रम भी है। लोकप्रिय साहित्य पाठक समुदाय की कल्पना को कुंद करके उसके कलात्मक अनुभव की क्षमता को नष्ट करता है। इस साहित्य के माध्यम से कल्पना का संगठन और शासन समाज पर नियंत्रण करने वाली शक्तियों के हाथों में होता है। कुछ लोगों को इस बात पर भी गहरा ऐतराज है कि कबीरदास, मीराबाई, ऐन फ्रेंक, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, रामनरेश त्रिपाठी, कृष्णनाथ, सैयद हैदर रज़ा, गजनान माधव मुक्तिबोध, फिऱाक गोरखपुरी, विष्णु खरे, रजिय़ा सज्जाद ज़हीर आदि को कक्षा 11 और 12 के हिंदी पाठ्यक्रम से हटाया गया है तब लोगों ने इतनी बहस प्रतिक्रिया नहीं दी। उनका मानना है कि निराला जी तो कक्षा 8, 10, और 12 की पाठ्यपुस्तक में हैं। उन्हें किसी एक कक्षा से हटा दिए जाने से अधिक गंभीर है, नमक जैसी महान कहानी और ऐन फ्रेंक की डायरी का हटा दिया जाना। हम सब भांप ही रहे हैं कि आज के भारत में पाकिस्तान से घृणा के बहाने जर्मनी से जो जो सीखने की क़वायद चल रही है निराला को तो एक कक्षा से ही हटाया गया। इस पर हाय तौबा करने वाले क्या थोड़ा सा अकादमिक होकर भी सोच सकते हैं कि एक लेखक कवि को कितनी कक्षाओं के पाठ्यक्रम में होना चाहिए?
यहां सवाल यह भी है कि हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता, बच्चों की पढ़ाई के स्तर, स्कूलों की दुर्दशा को लेकर कम बात होती किन्तु कुछ लोगों को लगता है कि वे पाठ्यक्रम में बदलाव करके बहुत कुछ बदल सकते हैं। मध्यप्रदेश की सरकार ने एमबीबीएस प्रथम वर्ष की पढ़ाई को लेकर हिन्दी में पाठ्यक्रम तैयार करवाकर किताबें तैयार करवाई पर किसी मेडिकल छात्र ने इन किताबों को नहीं खऱीदा। उल्टे सरकार ने बहुत प्रचार प्रसार कर इसे अपनी बड़ी उपलब्धि बताया। अब उसे ही सात सौ किताबें खऱीदनी पड़ी। एनसीईआरटी द्वारा भी पाठ्यसामग्री का जो अनुवाद कराया जाता है उसका स्तर भी छात्र-छात्राओं के अनुरूप नहीं होता। बस्ते का बोझ कम करने की बहुत बात होती है बावजूद इसके राज्य सरकारें बहुत सारी स्थानीय बातों का समावेश करवाती है। प्रायवेट स्कूल भी निजी प्रकाशकों की किताबें बच्चों से खऱीदवाते हैं। लायब्रेरी के लिए होने वाली सरकारी खऱीद में भी घटिया किताबें खऱीदी जाती है। ऐसी सारी जगह नेताओं, साहित्यकारों की चुप्पी भी चुभती है।

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