Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – ‘भटकाव’ का एजेंडा

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र
From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Agenda of ‘disorientation’
-सुभाष मिश्र

शरहदों पर तनाव है क्या… जरा पता तो करो चुनाव है क्या… राहत इंदौरी साब ने बहुत पहले ये शेर कही थी… दरअसल उनका इशारा इन पंक्तियों के माध्यम से ये था कि कैसे चुनाव के वक्त बड़े नेता और राजनीतिक दल मुख्य मुद्दों से आम जनता को भटकाते हैं. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में 7 और 17 नवंबर को मतदान होना है. इसके साथ ही पूरे देश का माहौल भी एक तरह से चुनावी रंग में रंगने लगा है. हम देख रहे हैं इस दौरान मुख्य मुद्दों से इतर दूसरी बातें बहुत हो रही हैं. भारत और इंडिया, इजराइल औप फिलिस्तिन जैसे विषय पर राजनीतिक दल के सोशल मीडिया वॉरियर्स देशभर में कई खेमों में अलग अलग तरह से लोगों के बीच जिरह करा रहे हैं… और लोग इन मुद्दों पर आपस में बंटकर लड़ रहे हैं. छत्तीसगढ़ में पूरा दिन मीडिया ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के वीडियो गेम खेलने पर बहस करता रहा सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी रही. ऐसा लगने लगा छत्तीसगढ़ में कोई और मुद्दा ही नहीं है… सभी समस्याओं से प्रदेश को मुक्ति मिल गई है…तमाम सुविधाएं मुहैया करा दी गई है ऐसे में जनता किसी नेता के वीडियो गेम खेलने को लेकर बहस कर रही है… कहीं न कहीं इस तरह की उथली बातों पर मीडिया भी आज फँस रहा है और वो भी पॉलटिकल सोशल मीडिया वॉरियर्स के भटकाव एजेंडा में भटक रहा है.
कुछ इसी तरह मध्यप्रदेश में भी सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक श्राद्ध वाले पोस्ट को लेकर होता रहा. मुख्यमंत्री शिवराज पर हुए इस पोस्ट के खिलाफ उनके पुत्र का एक पोस्ट आया जिस पर दिन भर बहस और आरोप-पत्यारोप होते रहे. कहीं न कहीं इस तरह के मुद्दों को हवा देकर चुनाव के वक्त मुख्य मुद्दों से दूर करने का प्रयास हो रहा है. हाल ही में हमने कर्नाटक चुनाव में देखा था जब राज्य के चुनाव में अचानक बजरंगबली का मुद्दा हावी होने लगा था. यहां तक देश के प्रधानमंत्री तक इसको लेकर कांग्रेस पर निशाना साधते नजर आए… देशभर में बहस मीडिया डिबेट का दौर चल पड़ा था. दरअसल हमारा समाज ऐसे लोगों से बना है जो भावनात्मक रूप से राजनीतिक फैसला लेते हैं. ऐसे में लोगों की भावना को भड़काकर आसानी से मुख्य मुद्दों पर पर्देदारी कर दी जाती है और चुनाव के वक्त अपना काम निकाल लेते हैं.
कट्टर राष्ट्रवाद, जाति के आधार पर देश के भविष्य तलाशना, धार्मिक कट्टरता इसके लिए सबसे लोकप्रिय मार्ग हैं इन विषयों पर राजनेता आसानी से बहुत बड़ी आबादी को उलझा लेते हैं. आजकल जमाना डिजिटल प्टेटफॉर्म का है. पहले एक घर एक टीवी होता था और जरूरत के हिसाब से दिन में दो या तीन समाचार बुलेटिन इंसान देखता था बाकी समय मनोरंजक कार्यक्रमों के लिए होता था. फिर 24 घंटे न्यूज प्रसारित करने वाले चैनल का दौर आया इन चैनल्स में भी जैसे ही डिबेट के कार्यक्रमों की बढ़ोतरी हुई. इन कार्यक्रमों से शुरू में बुद्धिजीवी वर्ग के दर्शक भी जुड़े. लेकिन बाद में देखने को मिलने लगा कि अंतहीन बहस जो बिना किसी निष्कर्ष के चलती है का दौर ज्यादा दिखने लगा. बाद में ये न्यूज एंकर और प्रवक्ताओं के लड़ने एक दूसरे पर चिल्लाने का मंच बनकर रह गया है. अब इससे बहुत लोग ऊब चूके हैं ऐसे में अब समाज में लोगों के बीच धारणा बनाने बिगाड़ने में बेहद अहम रोल अदा कर रहा है सोशल मीडिया. और ये माध्यम हमारे राजनीतिक दलों को भी पसंद आ रहा है. अपनी बात थोड़े शब्दों में लोगों तक पहुंचाने और उस बर दिन भर डिबेट-बहस कराने के लिए बेहद कारगर है इसके माध्यम से असल मुद्दे से लोगों को भटकाना आसान होजाता है. दरअसल हमारी राजनीतिक प्रणाली का व्यवहार समाज के प्रति उनकी प्रतिक्रिया है। इस राजनीतिक प्रणाली को सुधारने के लिये समाज और उसके तंत्रों में सुधार की आवश्यकता है। यहीं से चुनावी सुधार महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में यह आवश्यक है कि देश में सुशासन के लिये सबसे अच्छे नागरिकों को जन प्रतिनिधियों के रूप में चुना जाए। इससे जनजीवन में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है, साथ ही ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ती है जो सकारात्मक वोट के आधार पर चुनाव जीतते हैं। लोकतंत्र की इस प्रणाली में मतदाता को उम्मीदवार चुनने या अस्वीकार करने का अवसर दिया जाना चाहिये जो राजनीतिक दलों को चुनाव में अच्छे उम्मीदवार उतारने पर मजबूर करे। कोई भी लोकतंत्र इस आस्था पर काम करता है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। यह चुनाव प्रक्रिया ही है जो चुने गए लोगों को गुणवत्ता और उनके प्रदर्शन के माध्यम से हमारे लोकतंत्र को प्रभावी बनाती है। हमें और सतर्क होने की जरूरत है नहीं भटकाव के एजेंडा के भंवर से हमें कोई नहीं बचा सकता.

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