-सुभाष मिश्र
भारतीय शिक्षा प्रणाली में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा किए जा रहे पाठ्यक्रम और किताबों में बदलाव लगातार विवादों का केंद्र बने हुए हैं। विशेष रूप से मुगल शासकों से जुड़े अध्यायों में कटौती या संशोधन ने इतिहास, कला और संस्कृति के क्षेत्र में विचारोत्तेजक बहस छेड़ दी है। 2023 से शुरू हुए इन परिवर्तनों ने 2025 तक तीव्र और बड़ा रूप धारण कर लिया है। विपक्ष इसे ‘इतिहास की तोड़-मरोड़’ और ‘हिंदुत्ववादी एजेंडे’ का विकास बता रहा है, जबकि सत्ता पक्ष इसे ‘भारतीय केंद्रित’ और ‘बोझ कम करने’ का प्रयास करार दे रहा है।
यदि यह बदलाव ‘भारतीयत केंद्रित’ है तो मुगलकाल भी भारतीय जीवन, समाज और संस्कृति का हिस्सा था। अच्छा-बुरा जैसा भी था, वह भारतीय इतिहास का हिस्सा है। उस कॉल कालखंड का विवेक सम्मत विश्लेषण होना चाहिए। उस समय की कमियों-कमजोरियों के साथ उपलब्धियां भी इतिहास में दर्ज होनी चाहिए। इतिहास कभी भी एकतरफा नहीं होता है। किसी विचार विशेष से संचालित नहीं होता है। वह सच और तथ्यों पर आधारित होता है। यदि मुगल काल का एक बड़ा हिस्सा इतिहास से हटा दिया जाएगा तो भारतीय इतिहास अधूरा रहेगा। पूरी तरह इतिहास से उसको पृथक कर देना उचित नहीं है। भारतीय इतिहास के साथ एक दुर्भाग्य तो यह रहा है कि उसका शुरुआती लेखन अंग्रेजों ने किया है। उनका इतिहास लेखन भारतीय समाज और संस्कृति की दृष्टि से काफी हद तक वंचित था। अंग्रेजों के इतिहास लेखन में तथ्य, घटनाएं और आंकड़े तो काफी हद तक सही है, लेकिन वे उनका विश्लेषण भारतीय समाज और संस्कृति के संदर्भों के साथ नहीं कर पाए क्योंकि वे भारतीय संस्कृति से पूरी तरह परिचित नहीं थे। उसके बाद भारतीय इतिहासकारों ने पुनर्लेखन किया। लेकिन
तब तक भारत आजाद हो चुका था। उस आजादी के बाद इतिहास लेखन में भी एक दृष्टि विशेष का आग्रह था।
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई भी इतिहास किसी दृष्टि या आग्रह से पृथक होकर लिखा जा सके। लेकिन उम्मीद यह की जाती है कि वह अधिक से अधिक सच और तथ्यों के करीब रहे । मुगल काल के बाबर की क्रूरता और हिंसा को लेकर जो इतिहास में नए सिरे से दर्ज किया जा रहा है तो उसके साथ हिंदू राजाओं के या हिंदू दरबारियों के अपने राजाओं के साथ किए गए छल जैसे जयचन्द का कारनामा, यह सब भी इतिहास का हिस्सा होना चाहिए। इतिहास को किसी भी राजनीति से परे होना चाहिए। लेकिन जब सत्ता पक्ष इतिहास लेखन करता है और खासकर पाठ्यक्रम में लिखे जा रहे लेखन पर उनकी दृष्टि का दबाव तो रहेगा ही।
एनसीईआरटी ने 2020 की नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत पाठ्यक्रम को ‘रेशनलाइज्ड’ (तर्कसंगत) बनाने का अभियान शुरू किया था। इसका उद्देश्य छात्रों पर बोझ कम करना, डुप्लीकेशन हटाना और प्रासंगिक सामग्री जोडऩा बताया गया। लेकिन इतिहास की किताबों में मुगल काल से जुड़े अध्यायों में बड़े बदलाव ने सवाल खड़े कर दिए। कक्षा 12 वीं की इतिहास-किताब से मुगल साम्राज्य पर आधारित अध्याय हटा दिए गए। इसमें अकबर की धार्मिक नीतियां, मुगल दरबार और उनके प्रशासनिक सुधार शामिल थे। इसके अलावा, आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से जुड़े संदर्भ, महात्मा गांधी की हत्या के पीछे के कारण और विकासवाद (इवोल्यूशन) के कुछ हिस्से भी काटे गए। अल जजीरा की रिपोर्ट के अनुसार, यह बदलाव हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे का हिस्सा माने गए, जहां मुस्लिम शासकों की उपलब्धियों को कम करके आंका गया। गार्डियन ने इसे ‘इतिहास का पुनर्लेखन’ बताया, जिसमें 16वीं से 18वीं शताब्दी तक भारत पर शासन करने वाले मुगलों के इतिहास को हटाया गया। इस साल अप्रैल में जारी कक्षा 7 वीं की नई सामाजिक विज्ञान किताब से मुगल वंश और दिल्ली सल्तनत का पूरा संदर्भ हटा दिया गया। इसके स्थान पर प्राचीन भारतीय राजवंशों, ‘पवित्र भूगोल’ और महाकुंभ जैसे विषय जोड़े गए। इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया कि मुगलों का कोई जिक्र नहीं है, जबकि पहले की किताबों में उनके योगदान को विस्तार से पढ़ाया जाता था। कक्षा 8 वीं की नई किताब में दिल्ली सल्तनत और मुगलों का पहली बार परिचय दिया गया है, लेकिन यहां ‘मंदिरों पर हमले’ और ‘कुछ शासकों की क्रूरता’ पर जोर दिया गया है। उदाहरण के लिए, बाबर को ‘क्रूर और निर्दयी विजेता’ बताया गया, जबकि अकबर को ‘क्रूर लेकिन सहिष्णु’ बताया गया है। किताब में एक ‘नो-ब्लेम फुटनोट’ जोड़ा गया है, जो कहता है कि इन घटनाओं को किसी समुदाय की जिम्मेदारी नहीं ठहराया जाना चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे ‘सांप्रदायिक ट्विस्ट’ वाला गलत वर्णन बताया। दरअसल ‘नो-ब्लेम फुटनोट’ एक तरह से सरकारी स्पष्टीकरण है कि इसे सरकार की संकीर्णता से न जोड़ा जाए और न मुसलमान के प्रति द्वेष या आरोप से जोड़ा जाए लेकिन ऐसा लिखने के उपरांत माना तो यही जा रहा है और इसी कारण इतना हल्ला भी हो रहा है। पाठ्यक्रम में कला और संस्कृति के लेखन में भी बदलाव दिखते हैं। मुगल काल की वास्तुकला (जैसे ताजमहल, लाल किला) और कला (मिनिएचर पेंटिंग, संगीत) पर कम जोर दिया गया है। इसके बजाय, प्राचीन हिंदू मंदिरों, योग और सांस्कृतिक उत्सवों को प्रमुखता मिली है। फ्रंटलाइन मैगजीन ने इसे ‘मध्यकालीन इतिहास की मिटाई’ बताया, जो एनईपी 2020 के तहत वैचारिक पूर्वाग्रह से प्रेरित है।
एनसीईआरटी का आधिकारिक तर्क यह है कि ये बदलाव महामारी के दौरान सीखने के नुकसान को कम करने और पाठ्यक्रम को ‘भारतीय केंद्रित’ बनाने के लिए हैं। लेकिन आलोचक कहते हैं कि यह इतिहास को ‘सफेदी’ देने का प्रयास है, जहां मुगलों को सिर्फ ‘आक्रमणकारी’ दिखाया जा रहा है, उनकी प्रशासनिक, सांस्कृतिक योगदान को नजरअंदाज करके। मुगल इतिहास में बदलाव सबसे विवादास्पद हैं। पहले की किताबों में मुगलों को भारत की एकता, व्यापार, कला और सहिष्णुता के प्रतीक के रूप में पढ़ाया जाता था। अब कक्षा 7 वीं में मुगल वंश का पूरा अध्याय गायब है। कक्षा 12 वीं में ‘मुगल दरबार’ और ‘अकबर की धार्मिक नीतियां’ के वर्णन है। बीबीसी की 2023 रिपोर्ट में कहा गया कि यह बदलाव इतिहास पढ़ाने के तरीके पर बहस छेड़ रहा है।
कक्षा 8 वीं में बाबर को ‘क्रूर’ और अकबर को ‘बाद के वर्षों में सहिष्णु’ बताया गया। जजिया कर हटाने को अकबर के ‘बाद के वर्षों’ का फैसला कहा गया, जो इतिहासकारों के अनुसार गलत है। टाइम मैगजीन ने इसे हिंदू राष्ट्रवाद का हिस्सा माना, जहां मुगलों को ‘विदेशी’ दिखाया जा रहा है। इन बदलावों से इतिहास की निरंतरता टूट रही है। मुगल काल की कला (फारसी प्रभावित चित्रकला) और संस्कृति (उर्दू, सूफी संगीत) अब कम महत्वपूर्ण लगते हैं, जबकि प्राचीन भारतीय संस्कृति पर फोकस बढ़ा है।
ये बदलाव राजनीतिक तूफान का कारण बने हैं। विपक्ष (कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके) इसे ‘सांप्रदायिक इतिहास’ का प्रयास बता रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि यह ‘आरएसएस का एजेंडा’ है, जो युवाओं को विभाजित कर रहा है। इतिहासकारों और शिक्षाविदों ने यह कहते हुए विरोध जताया, कि यह ‘विविधता’ को मिटा रहा है। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर हालिया पोस्ट में भी इसे ‘मुगल योगदान को कम करने’ का आरोप लगाया गया, जो राजनीतिक तूफान पैदा कर रहा है।
शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि बदलाव ‘तथ्य-आधारित’ हैं और ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से मुक्ति दिलाते हैं। लेकिन आलोचक इसे ‘हिंदुत्ववादी पुनर्लेखन’ कहते हैं, जहां मुगलों को ‘क्रूर’ दिखाकर हिंदू राष्ट्रवाद को मजबूत किया जा रहा है। यूट्यूब वीडियो में भी इस पर बहस छिड़ी है, जहां बदलावों को ‘सांप्रदायिक ट्विस्ट’ बताया गया।
यह विवाद सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है, यह भारत की सेकुलर छवि और शिक्षा की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। 2025 के मानसून सत्र में भी यह मुद्दा गूंज सकता है, जहां विपक्ष सरकार को घेर सकता है। एनसीईआरटी के बदलाव इतिहास को ‘भारतीय केंद्रित’ बनाने का दावा करते हैं, लेकिन मुगल काल की कटौती से सांस्कृतिक विविधता पर असर पड़ रहा है। कला और संस्कृति के क्षेत्र में मुगलों के योगदान (जैसे इंडो-इस्लामिक वास्तुकला) को कम करके आंकना युवा पीढ़ी को अधूरा ज्ञान दे सकता है। राजनीति गरम है क्योंकि यह बदलाव वैचारिक युद्ध का हिस्सा लगते हैं। बेबाकी से कहें तो इतिहास तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि राजनीतिक एजेंडे पर। यदि ये बदलाव जारी रहे, तो भारत का बहुलवादी चरित्र खतरे में पड़ सकता है। शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखना जरूरी है, वरना आने वाली पीढिय़ां ‘सच्चाई’ से वंचित रह जाएंगी।
सरकार पर किसी एक समाज की जिम्मेदारी नहीं होती है। वह पूरे देश के लिए उत्तरदाई होती है। इसलिए बच्चों को और युवा पीढ़ी को इतिहास के सच पूरे तथ्य और आंकड़ों के साथ बताया जाना चाहिए। उसमें किसी धर्म,जाति या समाज विशेष का पक्ष नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन विपक्ष का जैसा कहना है कि इन दिनों सरकार का जैसा चरित्र बनता जा रहा है उसे देखकर लगता नहीं है कि सरकार में बैठे लोग सच और तथ्यों के साथ इतिहास का पुनर्लेखन करेंगे। जब यह बदलाव किया है तो इसमें कोई आकस्मिकता नहीं है। यह बहुत सोच समझकर लंबे समय तक भाजपा ने आपस में विचार-विमर्श और चर्चा करके निर्णय लिया है। जैसा कि कहा जाता है, ऐसे निर्णय बहुत बड़ी जिद का परिणाम है तो फिर वे अपनी जिद या एजेंडा बदलेंगे इसकी भी संभावना कम है।