Devar Bhabhi unique Holi मथुरा नगरी में प्रेम पगी देवर भाभी की अनूठी होली

Devar Bhabhi unique Holi

Devar Bhabhi unique Holi दाऊ जी मन्दिर में होती है प्रेम पगी देवर भाभी की अनूठी होली


Devar Bhabhi unique Holi मथुरा !   तीन लोक से न्यारी मथुरा नगरी में बल्देव की होली देवर भाभी की ऐसी अनूठी होली है जो पारिवारिक एकता का संदेश देती है। इस बार यह होली 26 मार्च को खेली जाएगी।


बल्देव की होली को दाऊ जी की होली कहा जाता है। इस होली में जहां श्रद्धा, भक्ति और संगीत की त्रिवेणी प्रवाहित होती है वहीं देवर भाभी की यह होली मर्यादा बनाये रखने का ज्वलंत उदाहरण पेश करती है। वैसे भी इस होली में मर्यादा इसलिए भी बनी रहती है क्योंकि होली खेलने के समय बल्देव और उनके छोटे भाई कान्हा मौजूद रहते हैं। यह मर्यादा इसलिए भी बनी रहती है क्योंकि इसमें कल्याणदेव के वंशज ही भाग लेते हैं।इस होली को हुरंगा कहा जाता है। इस होली के दौरान मन्दिर की छत से अनवरत गुलाल की वर्षा होती रहती है जिससे ’’उड़त गुलाल लाल भये बादर ’’ का दृश्य बन जाता है।


Devar Bhabhi unique Holi ब्रज की महान विभूति डा घनश्याम पाण्डे ने बताया कि यहां पर होली केवल टेसू के रंग से खेली जाती है जो 40 फीट लम्बे, तीन फुट चौड़े और पांच फीट गहरे विशाल हौज में तीन दिन में तैयार किया जाता है। हुरंगे के दिन बाल भोग के बाद श्रंगार आरती के दर्शन खुलते हैं। दोपहर 12 बजे समाज गायन होता है इसके बाद राजभोग के दर्शन होते हैं जो होली शुरू होने का एक प्रकार से संकेत होता है।


यह होली प्रतीकात्मक रूप में कान्हा और उनके सखा तथा मां रेवती और उनकी सखियों के प्रतीक के रूप में होती है। हुरिहारिने जब वस़्त्र फाड़ती हैं तो मर्यादा बनी रहती है तथा कमर के नीचे के वस्त्र या पगड़ी को वे स्पर्श तक नही करती हैं।


दाऊ जी मन्दिर के प्रबंधक कन्हैया पाण्डे ने बताया कि हुरंगे के लिए 50 मन गुलाल, 50 मन भुरभुर , 50 मन केसरिया रंग एवं 60 मन टेसू के फूल मगाए गए हैं इसके अलावा भक्त भी गुलाल आदि लाते हैं।


समाज गायन समाप्त होने तक कल्याण देव के वंशज के घरों की बहुएं मन्दिर में एकत्र हो जाती हैं और उस समय तक मन्दिर में कृष्ण , बल्देव के प्रतीक दो झंडे आ जाते हैं। उधर कल्याण देव के वंशज अपनी भाभी से होली खेलने के लिए मन्दिर प्रांगण में इकट्ठा हो जाते हैं। इसी बीच रसिया के स्वर गूंज उठते हैं


लाला होरी तो ते तब खेलूं मेरी पहुंची मे नग जड़वाय


इस रसिया के स्वर इतने मधुर होते हैं कि दर्शकों तक के पैर थिरक उठते हैं। हुरिहार बाल्टियों में टेसू का रंग भरकर हुरिहारिनो पर हांथ से उलीच कर रंग डालते हैं या फिर किसी हुरिहारिन को रंग से सराबोर करते हैं तो हुरिहारिने भी हुरिहारों के वस्त्र फाड़कर उसके गीले पोतनों से उनकी पिटाई करती हैं । मन्दिर में झंडे घूमते रहते हैं। अगर हुरिहार किसी हुरिहारिन से अधिक बलशाली होता है तो दो तीन हुरिहारिने मिल कर उसके वस़्त्र फाड़कर पोतनो से पिटाई करती है।इसी बीच रसिया के स्वर गूंज उठते हैं !


आज बिरज में होरी रे रसिया


हुरिहार इसी दौरान अपने किसी साथी को हुरिहारिनो के समूह के सामने उठाकर लाते हैं और वे उसकी पोतनों से पिटाई करती हैं।उधर मन्दिर की छत से रंग बिरंगे हुलाल की अनवरत वर्षा होती रहती हैं। हुरिहार मस्ती में आकर बाल्टियों से दर्शकों को भी रंग से सराबोर करने का प्रयास करते हैं। हुरंगा की चरम परिणति में झंडे की लूट हुरिहारिनो द्वारा शुरू हो जाती है। वे पहले एक झंडे को लूटती हैं तथा बाद में दूसरे झंडे को लूटती हैं जो हुरंगा समाप्त होने का संकेत होता है। इधर हुरिहार गाते हुए जाते हैं


हारी रे गोरी घर चली जीत चले नन्दलाल
इसके जवाब में हुरिहारने गाती हैं
हारे रे लाला घर चले जीत चले ब्रजबाल।

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इस प्रकार दाऊ जी का हुरंगा प्रेम की अनूठी कहानी कहते हुए समाप्त होता है।

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