2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले में अदालत ने दिल्ली पुलिस की जांच और प्रस्तुत चार्जशीट पर सख्त टिप्पणी की है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रवीण सिंह ने कहा कि पुलिस द्वारा दाखिल की गई पूरक आरोप पत्र (supplementary chargesheet) से मामला और ज्यादा भ्रमित और जटिल हो गया है, जबकि पहले से ही यह केस अस्पष्टता से भरा हुआ था।

चार्जशीट में स्पष्टता का अभाव, कोर्ट ने जताई नाराजगी
कोर्ट ने कहा कि दंगों के दौरान तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाओं में शामिल दोनों समूहों की भूमिका ठीक से स्पष्ट नहीं की गई है। चार्जशीट में दोनों पक्षों के नाम तो दर्ज हैं, लेकिन यह साफ नहीं किया गया कि किस समूह ने किस पीड़ित की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया।
न्यायाधीश ने यह भी रेखांकित किया कि पुलिस ने 21 जनवरी 2025 को दिए गए आदेश की भी अनदेखी की, जिसमें मामले की अधिक स्पष्ट और उद्देश्यपरक जांच का निर्देश दिया गया था।
आरोपियों को लेकर भी असमंजस, नई FIR का कोई जिक्र नहीं
इस केस में पुलिस ने पांच लोगों — कोमल मिश्रा, गौरव, गोलू, मोहम्मद अजहर और मोहम्मद आरिफ को गिरफ्तार किया था। ये सभी फिलहाल जमानत पर हैं।
अब दाखिल पूरक आरोप पत्र में मोहम्मद अजहर और मोहम्मद आरिफ को केस से बरी (Discharge) करने की मांग की गई है, लेकिन उनके खिलाफ कोई नई FIR दर्ज करने की बात नहीं की गई है, जिससे कोर्ट ने असंतोष जताया।
अदालत ने की अभियोजन पक्ष की आलोचना
न्यायाधीश प्रवीण सिंह ने टिप्पणी की:
“अभियोजन पक्ष को चाहिए था कि वह यह स्पष्ट करता कि दो अलग-अलग भीड़ (mobs) किस तरह एक साझा उद्देश्य से जुड़ी थीं। इसके बजाय ऐसा प्रतीत होता है कि अभियोजन ने पूर्व आदेश से बचने की कोशिश की है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह पूरक आरोप पत्र केवल पहले दिए गए आदेश को निष्प्रभावी करने का प्रयास प्रतीत होता है, न कि निष्पक्ष जांच का हिस्सा।
आयुक्त को संज्ञान में लाने का निर्देश, अगली सुनवाई 14 नवंबर को
अदालत ने इस पूरे प्रकरण को लेकर दिल्ली पुलिस आयुक्त को सुधारात्मक कदम उठाने का निर्देश दिया है। साथ ही, अभियोजन पक्ष और पुलिस को अगली सुनवाई 14 नवंबर तक स्पष्ट और तथ्यात्मक रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है।
पृष्ठभूमि
2020 के दिल्ली दंगों की जांच और आरोपियों पर कार्रवाई को लेकर पहले भी दिल्ली पुलिस पर पक्षपात और लापरवाही के आरोप लगते रहे हैं। अदालत की यह टिप्पणी उस जांच प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को लेकर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े करती है।
निष्कर्ष:
दिल्ली दंगों जैसे संवेदनशील मामलों में जांच की गंभीरता और पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है। अदालत की फटकार न केवल पुलिस की लापरवाही को उजागर करती है, बल्कि भविष्य की जांच प्रक्रिया के लिए एक स्पष्ट संदेश भी देती है।