जन्म, कर्म और मृत्यू ही मृत्यूलोक का मूल : पंडित भूपत नारायण



त्रिवेणी ज्ञान यज्ञ सप्ताह के दौरान मंगलवार को पंडित भूपत नारायण शुक्ल ने बताया कि मृत्यूलोक का मतलब है मरने वाला लोक। जन्म, कर्म और मृत्यू से मृत्यूलोक बना है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वह लोक (संसार) है जहां जन्म लेने वाले सभी प्राणियों की मृत्यु होती है।

इसे पृथ्वी लोक भी कहते हैं, जो कर्मों का मंच है जहां आत्माएं जन्म-मृत्यु के चक्र से गुजरती हैं और अपने कर्मों का फल पाती हैं, तथा ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करती हैं, यह एक नश्वर और अस्थायी स्थान है जहां मोह और माया का अनुभव होता है, इस लोक को आत्मा के विकास का स्थान माना गया है।


पंडित शुक्ल ने कथा का आगे बढ़ाते हुए भगवान के तीन तत्वों का भी वर्णन किया। उन्होंने कहा सत चित और आनंद से सचिदानंद भगवान का नाम आया है। यानि जो सत्य मन के साथ आनंदित हो वे सचिदानंद भगवान है। भगवान अपने भक्तों को सदा इसी सत चित से देखते हैं और उनका उद्धार करते हैं। पंडित शुक्ल ने आगे कहा कि मानव जन्म मिला है तो हमें सत कर्म ही करना चाहिए। जैसा कर्म करेंगे वैसा ही फल मिलेगा। मृत्यूलोक में मानव को अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है। अच्छे कर्म मानव आत्मा को मोक्ष मिलता है और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
पंडित शुक्ल ने बताया कि गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण गीता में अपने परम शिष्य अर्जुन से कहा था कि हे कौन्तेय! सूर्य के उत्तरायण होने पर, शुक्ल पक्ष के दौरान, दिन के समय में जो पुण्यात्मा अपना देह त्यागता है, उसे तत्क्षण मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहीं, सूर्य के दक्षिणायन होने पर, कृष्ण पक्ष के दौरान, रात के समय में देह त्यागने पर व्यक्ति को चंद्र लोक में स्थान प्राप्त होता है। एक निश्चित समय के बाद जीवात्मा को पुनः मृत्यु लोक में आना पड़ता है। गरुड़ पुराण में भी उच्च लोकों के बारे में वर्णन है। इसका अर्थ यह है कि हमारे पुराने ग्रंथों में मृत्यूलोक का वर्णन मिलता है।

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