बबनप्रसाद मिश्र
- शिखर-पुरुषों का राष्ट्रीय उद्बोधन से देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की वाक्पटुता का श्रवण लाभ लिया है। इस स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अपनी शैली से हटकर उद्बोधित आतंकी गतिविधियों, सैनिक कल्याण, विश्व व्यापार, सामाजिक न्याय, दलित आदिवासी, गरीब के विकास एवं महिला सशक्तीकरण से लेकर घोटाले एवं भ्रष्टाचार पर उनके विचार नागरिकों ने सुने।
- महामहिम राष्ट्रपति ने भी इसी तिथि पर अपने उद्द्बोधन में स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय के बीच संतुलन कायम करने की आवश्यकता पर बल दिया। जहाँ राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने समृद्ध तबके से करोड़ों वंचितों की सहायता का आहवान किया, वहीं प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परस्पर भरोसा करने का आग्रह किया। देश के दो शिखर-पुरुषों के राष्ट्रीय दिवस पर हुए उद्बोधन को राष्ट्रीय दिवसों का परंपरागत प्रस्तुतीकरण मात्र नहीं माना जा सकता। ये उद्बोधन सरकार की मंशा और कार्यप्रणाली के सकारात्मक पक्ष होते हैं। यह बात अलग है कि बार-बार जटिलताओं व कठिनाइयों से मिली स्वतंत्रता के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र में उभरी बीमारियों का संदर्भ भी इन भाषणों में उभरता है। कहीं एकता की बात होती है तो कहीं गरीबी मिटाने का सन्दर्भ इन भाषणों में उभरता है। यह आश्वासन भी होता है कि हमारी कमियों व हताशा के बावजूद 54 वर्षों से हम विश्व के विशालतम प्रजातंत्र हैं। शांति, प्रगति व एकता की बात भी खूब होती है।
किंतु यह कम देखा गया कि कोई प्रधानमंत्री राष्ट्र के उत्साह को बढ़ाने के साथ-साथ अपनी सरकार की खामियों को भी उस जनता जनार्दन के समक्ष स्वीकारे। अनेक प्रधानमंत्री बीती आधी सदी से अपनी उपलब्धि सुनाते रहे हैं। रोटी, कपड़ा, मकान और जीवन की आवश्यकता से आधे-अधूरे भूखे नंगे लोग श्री वाजपेयी के लच्छेदार भाषणों की बजाय अब राहत चाहते हैं। एक अरब के देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो श्री वाजपेयी को कभी कश्मीर का हितरक्षक और उसके लिए लडऩे वाला योद्धा देख चुके हैं। आज निरीह लोगों का हो रहा जनसंहार श्री वाजपेयी के मुशर्रफ के दावतनामे से कहीं मेल नहीं खाता और करोड़ों लोग इस सरकार की कश्मीर नीति को विफल मान रहे हैं। कारगिल युद्ध के बाद भी श्री वाजपेयी के शांति पाठ ने प्रकारांतर से कश्मीर की धरती को लहूलुहान किया, कई निरपराधियों की जानें गईं और वेवजह सैनिकों की कुर्बानियाँ हुईं। साँप को आस्तीन में नहीं पाला जाता, इस बात को काफी देर से वाजपेयी की सरकार ने समझा। अपेक्षा तो यह थी कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री दोनों के भाषण में ऐसी असाधारण चूक के लिए जनता के प्रति जवाबदेही की खुली स्वीकारोक्ति होती। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आगरा-शिखर वार्ता की विफलता पर जो लीपापोती की है, वह संतोषजनक नहीं है। इसी तरह अर्थव्यवस्था पर जो बचाव उन्होंने सरकार की वित्त नीति का किया है, वह आज तो दुष्परिणाम दिखला ही रही है, आगे भी शायद दिखलाएगी। सरकार की आर्थिक उदारीकरण की नीति गरीब, ग्रामीण और बेरोजगारों को आज तक कोई राहत नहीं दिला सकी है। हो सकता है-राजनीतिज्ञों व राजनीतिक दलों के लिए यह नीति कुछ फायदेमंद हो। किंतु श्री वाजपेयी ने स्वयं स्वीकार किया है कि आर्थिक उदारीकरण के फल अभी तक गरीब जनता व ग्रामवासियों तक नहीं पहुँच पाए हैं जिससे विषमता बढ़ी है। अब केवल कथित कृतसंकल्पों को सुनते-सुनते कि नई आर्थिक नीति, सामाजिक न्याय के संवर्धन की होगी, जनता कब तक इन घोषणाओं के प्रति सहज भाव रखे ?
श्री वाजपेयी ने गरीबी दूर करने और महिलाओं के सशक्तीकरण पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। राष्ट्रपतिजी ने भी सबसे कमजोर वर्ग के प्रति अपनी गहन चिंता प्रकट की है। यह लाल किले से चौथी बार देश के प्रधानमंत्री का संबोधन है और राष्ट्रपति के रूप में श्री नारायणन द्वारा अनेक आयोजनों में व्यक्त भावना है। अब यह जिम्मेदारी सरकार पर ज्यादा होती है कि वह ऐसी घोषणाओं को केवल घोषणाएँ न रहने दे और उन्हें मूर्त रूप में, सामाजिक न्याय के हित में स्थापित करे। जन-असंतोष को लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता।
रूस जैसे सर्वशक्तिमान देश टूट चुके हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं ने आकण्ठ भ्रष्टाचार को बचाने में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा लगाने वाली और उसे निर्बाध सरकार तक जब सहज द्रष्टव्य व चर्चित रखी है तब जनता केवल भाषणों पर कैसे मला करे? मंत्रियों व नेताओं पर कैसे भरोसा करे ? उस नौकरशाही पर कैसे बारी रखने की तथाकथित विवशता ढोने वाली व्यवस्था राज्यों से लेकर केन्द्र भरोसा करे जो भ्रष्टाचार के दरिया का एक अंग है। प्रधानमंत्री ने लोकपाल बिल अष्टाचार, शिखर से ही नीचे विस्तारित होता है। पिछले दिनों एक प्रधानमंत्री से की बात की है. जिसके दायरे में प्रधानमंत्री भी आएँगे, यह अच्छी बात है। 500 एकड़ भूमि, जो उनके अवैध कब्जे में थी, छुड़ाई गई है। जिस देश में प्रष्टाचार को व्यवस्था का एक अनिवार्य अंग माना जा रहा हो , वहाँ उस दैत्य को मिटाने के लिए हिमालयी प्रयास भी छोटे होंगे।
बादल घिरे भी और छँटे भी
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इस्तीफे की पेशकश को लेकर उभरे विवाद ने आज फिर शुरुआती दौर में संसद के माहौल को गरमा दिया। विपक्ष की ओर से किए जा रहे प्रहार के तहत अंतत: स्थिति को सामान्य करने की कोशिश के तहत वाजपेयी को आज स्वयं कल के छाए बादल को छाँटने की कोशिश करनी पड़ी। स्वयं को सतत में बनाए रखने, आज उन्होंने स्पष्टीकरण के साथ इस बात का एहसास कराया कि वे सत्ता में बने रहेंगे। चूँकि राजग के सहयोगियों का भी एकमतेन यही मत है। सारे बोझिल वातावरण को हल करने के अंदाज उनके वक्तव्य की बानगी इस अर्थ में उम्दा रही कि गोया कल की बात महज एक खरोंच-सी थी। वक्तव्य को खूबसूरत मोड़ देते हुए उन्होंने जो कहा वह सहज ही हल्की हँसी के बीच विडम्बनाओं को दूर करने में सफल रहा। उनका यह कहना था कि ह्यबरसात का मौसम है बादल तो घिरेंगे ही, लेकिन छँट भी जाएँगेö। साथ ही प्रधानमंत्री वाजपेयी ने सदन में मौजूद सदस्यों के बीच गत दिवस अनायास उपजे माहौल के लिए एक तरह से अनाहूत कष्ट के लिए स्वयं को जिम्मेदार भी ठहराया। यह उनका बड़प्पन था। लेकिन इस बात का स्पष्टीकरण भी दिया कि यदि इस सारे ऊहापोह के दौर में किसी तरह भी किसी की उपेक्षा हुई है, वे इसे महज अपनी इच्छा का प्रकटीकरण मानते हैं। संकट के बादलों का छूट जाना भी इसलिए सार्थक मान लिया गया। चूँकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भी पूरी तरह उनके नेतृत्व पर अपने समर्थन की मुहर लगा दी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भी इस समूचे प्रकरण पर शिवसेना के सदस्य के कथित वक्तव्य को आलोचना के दायरे में लाने के लिए हामी भी भरी। गाहे-बगाहे इस समूचे प्रकरण में जो तल्खी आ गई थी वह प्रधानमंत्री के वक्तव्य से छँटती नजर आई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने इस समूचे सन्दर्भ को भावी दृष्टि से आकलन करते हुए आचार संहिता कहे जाने की प्रक्रिया पर भी बल दिया। यह सारा प्रकरण हालाँकि शिवसेना के खेमे से निकला विवादास्पद हुआ था, अंतत: इस प्रकरण की गुत्थी भी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की इस युक्ति के साथ मिटती नजर आई जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री वाजपेयी को उनका समर्थन मिलता रहेगा। चूँकि मौजूदा दौर में उनका विकल्प प्रधानमंत्री के रूप में और कोई नहीं है। इस तरह वह सियासी तौर पर जो गुत्थी उलझती दिखाई दे रही थी उसके सुलझने के आसार अब साफ दिखलाई दे रहे हैं। लेकिन यू.टी.आई. के उस चर्चित मुद्दे पर संसद में हालाँकि बहस जारी है फिर भी काफी कुछ संयत तरीके से अपने वक्तव्य में समुची विडम्बनाओं दिशा देने की पहल की है। लगता है यह विवाद भी शीघ्र हल हो जाएगा। अभी वे राज्यसभा में अपना वक्तव्य पूरा नहीं कर पाए हैं।
वाजपेयी मंत्रिमंडल में आंशिक विस्तार के साथ ही कुछ मंत्रिमंडलीय सदस्यों के विभागों में भी फेरबदल किया गया है। इस परिवर्तन के दौरान छह नए मंत्री शामिल देकर कैबिनेट मंत्री बना दिया है। मंत्रियों के विभागों में मामूली फेरबदल करते हुए काए गए हैं और दो राज्य मंत्रियों अरुण शौरी और शाहनवाज हुसैन को तरक्की प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा है कि उन्होंने काफी विचार-विमर्श और सहयोगियों के कामकाज के आकलन के बाद ही मंत्रिमंडल में फेरबदल किया है। शपथ ग्रहण समारोह के बाद पत्रकारों से चर्चा के दौरान उन्होंने यह स्पष्ट भी किया कि इस फेरबदल के पीछे उनका मकसद रिक्त पदों को भरना और नए दृष्टिकोण के तहत युवा पीढी को अवसर देना रहा है। लेकिन, श्री वाजपेयी ने तृणमूल काँग्रेस से किसी को भी मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व न दिए जाने के मुद्दे पर कहा कि यह मामला भविष्य का है। जब उनसे यह सवाल किया गया कि यह मामला कब तक स्थगित रहेगा ? उन्होंने अपने प्रत्युत्तर में कहा कि ह्यजब तक मैं कोई निर्णय नहीं कर लेता।ö हालाँकि उन्होंने शीघ्र ही और किसी विस्तार या फेरबदल की संभावना से इनकार किया है। उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ऐसे सारे मसले पर सामूहिक तौर पर ही निर्णय लेता है। उनका यह संकेत चाहे जो भी हो लेकिन, इस फेरबदल के पीछे उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनावों को कतई नकारा नहीं जा सकता। संभवत: यही वजह है कि कुछ नए चेहरे जो इस मंत्रिमंडल में शामिल किए गए हैं वे इसी प्रदेश सेö ताल्लुक रखते हैं, इस नए परिवर्तन के तहत प्रमोद महाजन को संसदीय कार्यमंत्री होने के अलावा संचार मंत्रालय का भी दायित्व सौंपा गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में शरद यादव और रामविलास पासवान को कोयला व खान मंत्रालय तथा शरद यादव को श्रम मंत्री बनाया गया है। साथ ही अनंत कुमार से पर्यटन व संस्कृति विभाग लेकर उन्हें शहरी विकास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्रालय सौंपा गया है। उनके स्थान पर जगमोहन को पर्यटन मंत्री बनाया गया है तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय भी उन्हें सौंपा गया है। संभवत: यह परिवर्तन जगमोहन की ओर से हाल ही में दिल्ली में की गई विभिन्न कार्रवाइयों के मद्देनजर ही किया गया है, केंद्रीय मंत्रिमंडल में श्रम मंत्री के रूप में कार्य कर रहे सत्यनारायण जटिया को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय का कामकाज सौंपा गया है। जबकि उक्त मंत्रालय को सँभाल रहीं मेनका गाँधी को संस्कृति एवं पशु देखभाल मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया है।
वाजपेयी सरकार में शामिल राजग के दो प्रमुख नेताओं जिनमें शरद यादव और रामविलास पासवान आते हैं, ये दोनों नेता मंत्रिमंडल में अपने विभागों के फेरबदल से खफा नजर आते हैं। कहा जाता है कि रामविलास पासवान ने आखिरी दम तक यह कोशिश की थी कि उनके विभाग में कोई तब्दीली न लाई जाए, जबकि शरद यादव मंत्रालय में परिवर्तन तो चाहते थे किंतु वे यह नहीं चाहते थे कि उन्हें श्रम मंत्रालय दिया जाए। हालाँकि, इन दोनों नेताओं ने अपने नए विभाग पर संतुष्टि नहीं जताई है लेकिन इन दोनों की ओर से आपत्ति स्वरूप कोई खिलाफत जैसी बात भी देखने में नहीं आई है। एक अन्य बात जो तृणमूल काँग्रेस की प्रमुख होने के नाते सुश्री ममता बेनर्जी को मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की संभावना से जुड़ी थी वह भी नए परिवर्तन के दौरान नहीं देखी गई, संभवत: निकट भविष्य में सुश्री ममता बेनर्जी को मंत्रिमंडल में लिया जा सकता है। लेकिन, फिलहाल अजीत पांजा से उनकी पटरी न बैठने के कारण उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल का एक कारण यह भी आकलित किया जा रहा है कि संभवत: कुछ नए चेहरों को लेकर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने राजग के अंदर उभरती महत्वाकांक्षाओं की सुगबुगाहट को साधने की भी कोशिश की है। साथ ही कामकाज के मूल्यांकन के तहत कुछ दिग्गजों के भी आसन हिलाए गए हैं। कुल मिलाकर मंत्रिमंडल का फेरबदल राजग की सामूहिक सहमति के आधार पर ही किया गया है, जो आगे चलकर जनहित से जुड़े मुद्दों को दिशा देने की एक युक्ति मानी जा सकती है। प्रधानमंत्री के इस फेरबदल को केवल भाजपा तक ही सीमित रखा गया है, लेकिन, विभागों में फेरबदल के तहत गैर भाजपा एवं राजग दलों के चार मंत्री प्रभावित हुए हैं, इनमें लोक जनशक्ति के अध्यक्ष पासवान, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, निर्दलीय मेनका गाँधी और समता पार्टी के दिग्विजय सिंह के दो विभागों में से वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय वापस लेकर उनके पास केवल रेल मंत्रालय ही रहने दिया गया है।
सूत्रों के मुताबिक जिन दिग्गज मंत्रियों को अपने मंत्रालय के फेरबदल से नाराजगी है उन्हें सप्ताह पूर्व प्रमोद महाजन के जरिए इस आशय के संकेत पूर्व में ही प्रधानमंत्री की ओर से दिए जा चुके हैं। प्रमोद महाजन ने शरद यादव और पासवान दोनों से मिलकर प्रधानमंत्री की चाह को स्पष्ट तौर पर समझा दिया था। प्रधानमंत्री यह फेरबदल हालांकि कुछ नेताओं में रोष का कारण जरूर है पर इस तब्दीली से सरकार के ढाँचे में किसी तरह की आँच आने की उम्मीद कम ही है, एक पहलू इस मंत्रिमंडल के फेरबदल के पीछे यह भी समझा जा रहा है कि मंत्रियों की मानसिकता मंत्रालय के मामले में एकाधिकार की न बनी रहे, संभवत: इस वर्चस्व को तोडऩे में भी यह तब्दीली उपयोगी साबित होगी।
लंबे समय से ऐसा होता आ रहा है, कि पूर्वोत्तर में राज्यों को केन्द्र से मिलने वाली राशि का सही इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। विकास के लिए भेजा जाने वाला धन आतंकवादियों तक पहुंच जाए, ऐसा किसी अन्य राज्य में कभी नहीं हुआ है, एक तरह से केन्द्र सरकार से मिलने वाली राशि पूर्वोत्तर में विकास की गंगा बहाने के बजाय विनाश की रचना में जुटे आतंकवादियों के लिए खाद-पानी का काम कर रही है, यह स्थिति बेहद खतरनाक है जिस पर पूर्वोत्तर परिषद की पैंतालीसवीं बैठक में केन्द्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने गहरी चिंता प्रकट की है। सिर्फ यह कह देने भर से काम नहीं चलेगा कि ऐसा केवल पूर्वोत्तर राज्यों में होता है। यदि ऐसा हो रहा है तो उस पर रोक लगाने के सुदृढ़ प्रयासों की भी जरूरत है, यह ठीक है कि समवर्ती सूची के अनुसार अनेक विषय देखने का दायित्व राज्य सरकारों का होता है। अनेक राज्य अपना दायित्व ठीक-ठाक ढंग से निभा लेते हैं तो कुछ इसमें सफल नहीं रहते। विकास के लिए या धन यदि आतंकवादियों के पास जाने से बचा पाने में राज्य असफल है, तो उससे उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह ऐसा न होने देने के लिए भी कोई पहल करेगा। ऐसे सारे प्रकरणों में अटल बिहारी वाजपेयी जो निर्णय लेते हैं, वह बहुत ही मुनासिब और सबसे अलग होता है। ?- (बबनप्रसाद मिश्र : 16 जनवरी 1938 को जनमे स्वर्गीय बबनप्रसाद मिश्र स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय पंडित राधाकिसन मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र थे। विधि स्नातक श्री बबनप्रसाद मिश्र ने 1962 से पत्रकारिता की शुरुआत की। हिंदी दैनिक ह्ययुर्गधमö रायपुर तथा हिंदी दैनिक ह्यनवभारतö रायपुर के सम्पादक रहे , दैनिक भास्कर में सलाहकार और ह्यआज की जनधारा ह्य रायपुर के संपादक रहे।)