भारतीय साहित्य में कुछ रचनाकार ऐसे होते हैं जिनकी उपस्थिति शोर नहीं करती पर उनकी अनुपस्थिति गहरी खामोशी छोड़ जाती है। विनोद कुमार शुक्ल ऐसे ही कवि-कथाकार थे। वे शब्दों के आडंबर से नहीं जीवन की सहज, विनम्र और करुण अनुभूतियों से साहित्य रचते थे। 23 दिसंबर 2025 को वर्ष के जाते-जाते उन्होंने इस नश्वर दुनिया को विदा कहा पर साहित्यिक चेतना में वे पहले से कहीं अधिक उपस्थित हो गए। उनका जाना केवल एक व्यक्ति का जाना नहीं है बल्कि संवेदनशील मनुष्य के एक पूरे समय का मौन हो जाना है।

01 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल की जीवन-यात्रा किसी चमकदार बाह्य आवरण की मोहताज नहीं रही। वे भीतर से बड़े थे और बाहर से अत्यंत साधारण। शायद इसी कारण वे साधारण मनुष्य की पीड़ा, उसकी उम्मीद और उसकी चुप्पी को इतने गहरे स्तर पर समझ पाए। कृषि विश्वविद्यालय में सह-प्राध्यापक के रूप में कार्य करते हुए भी वे कभी “प्रोफेसर” नहीं लगे वे हमेशा एक सहयात्री, एक मित्र, एक सुनने वाले मनुष्य बने रहे। 1996 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने स्वयं को पूरी तरह स्वतंत्र लेखन को समर्पित कर दिया। कविता जो फुसफुसाती है उनकी कविता न तो ऊंचा स्वर चाहती है न मंच। वह मनुष्य के कंधे पर हाथ रखकर बात करती है। उनका पहला कविता-संग्रह लगभग जयहिन्द (1971) से लेकर वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह (1981), सब कुछ होना बचा रहेगा (1992), अतिरिक्त नहीं (2000) और कविता से लम्बी कविता (2001) इन सबमें एक समान स्वर है जीवन के छोटे-छोटे क्षणों की विराटता। विनोद जी की कविता पढ़ते हुए लगता है कि कोई बहुत धीमे से कह रहा है – “देखो, यह भी जीवन है… इसे भी मत भूलो।”
चुप्पी के भीतर का संसार उनके कहानी-संग्रह पेड़ पर कमरा और महाविद्यालय ने हिंदी कथा-साहित्य को एक नई दृष्टि दी। उनके उपन्यास नौकर की कमीज, दीवार में एक खिड़की रहती थी, हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी, बौना पहाड़ इन सबमें असफलता, साधारणता और प्रतीक्षा का सौंदर्य दिखाई देता है। नौकर की कमीज पर मणि कौल द्वारा निर्मित फिल्म आज भी समानांतर सिनेमा की धरोहर है। यह इस बात का प्रमाण है कि विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य दृश्य और अदृश्य दोनों संसारों को स्पर्श करता है। उनकी रचनाओं का इतालवी, जर्मन, मराठी, मलयालम और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ। इटली में उनकी कविता पुस्तक और पेड़ पर कमरा का अनुवाद प्रकाशित होना इस बात का संकेत है कि उनकी संवेदना वैश्विक थी भले ही भाषा स्थानीय रही।साहित्य अकादेमी पुरस्कार (दीवार में एक खिड़की रहती थी), रजा पुरस्कार, गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार ये सभी सम्मान उनके लिए अलंकरण नहीं साहित्य की ओर से कृतज्ञता पत्र थे। 1994 से 1996 तक निराला सृजनपीठ में अतिथि साहित्यकार के रूप में उनका कार्यकाल युवा लेखकों के लिए एक संवेदनशील पाठशाला था। वे सिखाते नहीं थे बस साथ चलते थे। मेरे लिए विनोद कुमार शुक्ल केवल एक महान कवि नहीं थे वे आत्मीय संबंध थे।
जब व्यंग्यकार त्रिभुवन पाण्डेय के काव्य-संग्रह कागज की नाव के विमोचन अवसर पर वे धमतरी आए तो सबसे पहले मेरे घर आए। मेरे स्वर्गीय पुत्र युगान्तर ध्रुव के साथ उनका हंसना-बोलना, बाल-मन की कहानियां सुनाना आज स्मृति में एक उजले दीप की तरह जलता है। उस दिन डॉ. जीवन यदु और डॉ. जयप्रकाश साव भी साथ थे। मेरे एक निवेदन पर संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ शासन और स्वयं त्रिभुवन पाण्डेय भी चकित थे कि डुमन और विनोद जी के बीच इतना आत्मीय जुड़ाव कैसे है। वह जुड़ाव साहित्य से बड़ा था वह मनुष्य से मनुष्य का संबंध था। 23 दिसंबर 2025 को भरे-पूरे परिवार के बीच मुस्कुराते हुए उन्होंने विदा ली। यह विदा एक शोक नहीं एक गहरी चुप्पी है जिसमें उनकी कविताएं अब और साफ सुनाई देंगी। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी कविता में हवा है, कहानियों में खिड़की है और स्मृतियों में एक ऐसा कमरा जो हमेशा खुला रहेगा।
हे विनोद कुमार शुक्ल आपने हमें सिखाया कि बड़ा होने के लिए ऊंचा बोलना जरूरी नहीं और अमर होने के लिए शोर करना भी नहीं। आपकी कविता अब भी धीरे से हमारे पास आकर बैठती है। विनम्र नमन। श्रद्धापूर्ण स्मरण। अक्षय साहित्यिक प्रणाम।