रवीन्द्र वाजपेयी
स्वाधीन भारत में एक से एक बढ़कर राजनेता हुए लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के अलावा अटलजी एक मात्र थे जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व और जनप्रिय लोकप्रियता हासिल हुई। नेहरूजी और इंदिराजी तो सत्ता की राजनीति से ही जुड़े रहे, वहीं अटल जी ने विपक्ष में अपनी अधिकतर राजनीतिक यात्रा पूरी की। वे 71 वर्ष की आयु में पहली बार प्रधानमंत्री बने किन्तु उसके पहले भी जनता के बीच उनका सम्मान प्रधानमन्त्री से कम नहीं था।
इसकी वजह उनकी सैद्धांतिक दृढ़ता और साफ़ सुथरी राजनीति थी। 1996 में जब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तब दूरदर्शन ने उनका साक्षात्कार लिया। उसमें पूछा गया कि, राजनीतिक लड़ाई कैसी होनी चाहिए? और अटलजी ने बड़ी ही सादगी से जवाब दिया मैं कमर से नीचे वार नहीं करता। उनके इस उत्तर की सच्चाई पर उनके विरोधी तक संदेह नहीं करते थे।
विपक्ष में रहते हुए राष्ट्रीय महत्व के किसी भी विषय पर उन्होंने दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर अपने विचार व्यक्त करने में संकोच नहीं किया। इसकी वजह से उनको राजनीतिक नुकसान भी हुआ लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। पंडित नेहरू के निधन पर संसद में उन्होंने जो श्रद्धांजलि दी वह आज भी उद्धृत की जाती है। नेहरू जी ने उनकी तेजस्विता को भाँपते हुए ही भविष्यवाणी कर दी थी कि, मुझे इस नौजवान में भारत के उज्जवल भविष्य की झलक दिखाई देती है।
हिन्दी के ओजस्वी वक्ता के तौर पर वे लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष तक जा पहुँचे। उनकी जनसभाओं में विरोधी भी बतौर श्रोता देखे जाते थे। लाखों की भीड़ को लम्बे समय तक अपनी वक्तृत्व कला से मंत्रमुग्ध करने की उनकी क्षमता भूतो न भविष्यति का पर्याय बन गई।
बिना सत्ता हासिल किये भी लोकप्रियता और सम्मान अर्जित करने का उनसे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। 1977 में जनता सरकार में वे विदेश मंत्री बने और मात्र 27 माह के कार्यकाल में ही उन्होंने वैश्विक पटल पर भारत की छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए अपनी क्षमता और कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में हिन्दी में भाषण देने की परम्परा की शुरुआत उन्होंने ही की थी। इसी वजह से ही हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी।
मूलत: वे एक कवि थे। अपने जीवन का प्रारंभ उन्होंने बतौर पत्रकार किया था। यद्यपि व्यस्तताओं की वजह से वे उस विधा को पूर्णकालिक नहीं बना सके और अनेक अवसरों पर उन्होंने ये स्वीकार भी किया कि राजनीति के मरुस्थल में काव्यधारा सूख गयी किन्तु समय मिलते ही वे काव्य सृजन करते रहे। देश के अनेक मूर्धन्य कवि और साहित्यकार उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे। आज के दौर के सबसे लोकप्रिय कवि डॉ. कुमार विश्वास तो खुलकर कहते हैं कि अटल जी उनके काव्यगुरू हैं।
सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका संपर्क और सम्मान उनकी विराटता का प्रमाण था। संसद में उनकी सरकार गिराने वाली पार्टियाँ और नेता भी बाद में निजी तौर पर अफ़सोस व्यक्त किया करते थे। अटल जी के व्यक्तित्व की ऊँचाई का ही परिणाम था कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव सार्वजनिक रूप से उन्हें अपना गुरु कहकर आदर देते थे। दो विपरीत ध्रुवों पर रहने के बाद भी इंदिरा जी अक्सर अटल जी से गम्भीर मसलों पर सलाह लिया करती थीं।
आपातकाल के दौरान लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जब विपक्षी नेताओं को रिहा कर दिया गया और दिल्ली के रामलीला मैदान में उनकी बड़ी सभा हुई तो लाखों जनता उमड़ पड़ी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मोरारजी के अलावा अनेक दिग्गज नेता मंच पर थे लेकिन अटल जी का भाषण सबसे अंत में रखा गया क्योंकि आयोजक जानते थे कि उन्हें सुनने के लिए श्रोता रुके रहेंगे। कहते हैं कि इंदिरा सरकार ने दूरदर्शन पर उसी समय बॉबी फिल्म का प्रसारण करवा दिया लेकिन जनता अटलजी को सुनने के लिए रुकी रही। वे खड़े हुए और भाषण की शुरुआत करते हुए ज्योंही कहा
बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
तो पूरा मैदान करतल ध्वनि से गूँज उठा। अगली पंक्तियों में वे बोलेझ्र
कहने सुनने को हैं बहुत अफ़साने।
खुली हवा में चलो कुछ देर साँस ले लें,
कब तक रहेगी आजादी कौन जानें।
और उसके बाद पूरे रामलीला मैदान में हर्षोल्लास छा गया। आपातकाल का भय काफूर हो चुका था। अटल जी के उस भाषण ने देश में लोकतंत्र को पुनर्जीवन दे दिया।
भारतीय संस्कृति और जीवन-मूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी। हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन नामक उनकी कविता उनके व्यक्तित्व का बेजोड़ चित्रण प्रतीत होती है। बतौर प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार चलाकर उन्होंने जिस राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। भारतीय विदेश नीति को उन्होंने नए आयाम दिए। परमाणु परीक्षण के साहसिक फैसले के बाद लगे वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने की उनकी दृढ इच्छाशक्ति के कारण देश का आत्मविश्वास बढ़ा और अंतत: दुनिया को भारत के प्रति नरम होना पड़ा।
विदेशों में बसे अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों को अपनी मातृभूमि से भावनात्मक लगाव रखने के लिए उन्होंने जिस तरह प्रेरित किया वह भारत की प्रगति में बहुत सहायक हुआ। स्वर्णिम चतुर्भुज रूपी राजमार्गों के विकास, विशेष रूप से ग्रामीण सड़कों के निर्माण की उनकी योजना देश की प्रगति में क्रांतिकारी साबित हुई।
जीवन के अंतिम दशक में वे बीमारी के कारण राजनीति और सार्वजनिक जीवन से दूर चले गए थे। लेकिन उनके प्रति सम्मान में लेशमात्र कमी नहीं आई। मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से भी विभूषित किया लेकिन देश की जनता ने तो उन्हें बहुत पहले से ही सिर आँखों पर बिठा रखा था।
अटलजी भारतीय राजनीति में एक युग के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। एक दलीय सत्ता के मिथक को तोड़कर उन्होंने लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया। यही वजह है कि उनके घोर विरोधी तक उनका जिक्र आते ही आदर व्यक्त करना नहीं भूलते।
उनके निधन को 7 वर्ष बीत गये। भारतीय राजनीति आज जिस मोड़ पर आ पहुँची है, उसमें उनका अभाव खलता है। संसदीय राजनीति में उनका योगदान इतिहास में अमर रहेगा। देश में नेताओं की भरमार है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक व्यक्तित्व दूरदराज तक नजर नहीं आता। सत्ता से दूर रहकर भी जनता का विश्वास जीतने की उन जैसी क्षमता भी किसी में नहीं दिख रही।
ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे बाल्यकाल से ही उनके सान्निध्य का अवसर लगातार मिलता रहा। उनका कद आकाश की ऊँचाइयों को स्पर्श कर चुका था, किंतु उनके पाँव सदैव जमीन पर टिके रहे जो उनकी महानता का प्रमाण है।
श्री रविंद्र बाजपेई वरिष्ठ पत्रकार भगवती दरबार वाजपेई के सुपुत्र हैं और अटल जी से उन लोगों का के परिवार का बहुत गहरा जुड़ाव था रविंद्र बाजपेई दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं और लगातार संस्थान मुद्दों पर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं और जबलपुर में रहते हैं