विकास शर्मा
(प्रबंधक, जनसंपर्क एवं औद्योगिक संबंध)
आज अगर अटलजी होते तो उनके जीवन का शतक लग गया होता। पर यह हो न सका। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहचान राजनीति से अवश्य जुड़ी है पर वे राजनीतिक परिधि से बाहर भी काफी विस्तारित रहे हैं। भारत रत्न अटल जी कवि, साहित्यकार पत्रकार होते हुए राजनीति की चौखट चढ़े थे। उनकी चर्चा एक साथ तीन पीढिय़ों में रोमांच और उत्साह का संचार कर देती है। ऐसा राजनेता जो मेरे बचपन से ही मेरे मन में बड़ी स्थायी छवि निर्मित करता रहा। किशोर अवस्था में उन्हें एक प्रखर नेता के तौर पर और जल्द ही प्रतिपक्ष का एकमात्र प्रमुख चेहरा बनकर उभरते देखा। नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में देश के सर्वप्रिय नेता के तौर पर स्थापित हुए और जल्द ही प्रधानमंत्री के तौर पर काँटों भरा ताज वो बड़ी सहजता से स्वीकार करते हैं और उतनी ही शालीनता से स्वच्छ राजनीति के लिए 13 दिन में पद का त्याग भी कर देते हैं। तीन बार प्रधानमंत्री रहे और देश में गठबंधन की सरकार के बीच राजनीति में राजधर्म का शानदार उदाहरण पेश किया।
अटल जी का संपूर्ण व्यक्तित्व उन्हें सर्वप्रिय नेता के साथ ही युवाओं के लिए प्रेरणा के तौर पर स्थापित करता है। उनके विचार जितने साफ,उनकी भाषण शैली उतनी ही बेबाक और आकर्षक रही। अटल जी का व्यक्तित्व मेरे लिए प्रेरणा है। ये मेरे लिए अधिक गौरव की बात है कि ऐसी शख्सियत के साथ मेरा नाम जुड़ता है जो काजल की कोठरी वाली इस राजनीति में बेदाग और अविश्वास वाले राजनीतिक दौर में अजातशत्रु बनकर उभरे।
मुझे सौभाग्य मिला अटलजी की शैली में भाषण करने का। ये ऐसी योग्यता थी जो बिना किसी विशेष योग्यता के भी मुझे औरों के बीच विशिष्ट पहचान दिलाती थी। हर आम और खास मुझे लघु अटल, मिनी अटल या वाजपेयी जी कहकर पुकारता है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं होता है। स्कूल के दिनों में न जाने कब मेरी भाषण शैली अटलजी के जैसी होने लगी। कोई विशेष अभ्यास, न ही प्रयास, बस यूं ही वे आत्मसात होने लगे। वे मुझे अपनी शैली से ज्यादा विचारों से आकर्षित करते थे। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान का विचार जितना व्यापक उतना ही दूरदर्शी है। जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान का नारा उनकी प्रगतिशीलता को दर्शाता है। इन सबके बीच मैं 1998 से कई मंचों पर भाषण करता रहा, उनकी कविता का पाठ चलता रहा। इन सबके बावजूद अपने प्रेरक अटलजी से मिलने की प्रबल इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी।
कई वर्षों बाद साल 2009 को 25 दिसंबर के दिन उनके जन्मदिवस पर दिल्ली स्थित उनके निवास पर उन्हें बधाई देने जाने का अवसर मिला वो भी प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह जी के साथ। मेरे लिए ये दोहरे सौभाग्य की बात थी। एक ओर अपने प्रेरणापुरूष अटलजी से मिलने का अवसर और दूसरी ओर हमारे सहज, सरल और सफल मुख्यमंत्री के साथ यह अवसर पाना। उस अवसर की स्मृति आज भी मुझे रोमांच और उत्साह से भर देती है। अटल जी के सामने खड़े होकर उनकी ही शैली में उनकी कविता उन्हें सुनाना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। उस क्षण का स्मरण ही मुझे गौरव से भर देता है जब अटल जी ने मेरी कविता सुनने के बाद मुख्यमंत्री की ओर देखते हुए कहा वाह, आनंद आ गया। मैंने उनके पैर छुए और आशीर्वाद लिया। इसके बाद उनके साथ इस अविस्मणीय अवसर को हमेशा के लिए स्थायी बनाने लालकृष्ण आडवाणी ने मुझे फोटोसेशन करने के लिए कहा। यह अवसर मेरे लिए किसी सेलिब्रिटी से मिलने की खुशी का नहीं था बल्कि इससे इतर मेरे लिए सम्मान का लम्हा था कि मेरे प्रेरक ने मेरे लिए प्रोत्साहन के शब्द कहे।
ऐसे विलक्षण अवसर पर पूर्व उपप्रधामंत्री एवं लोकसभा में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी, भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी, पार्टी के संगठन महामंत्री सुरेश सोनी, पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, विजय गोयल, अनूप मिश्रा, रंजन भट्टाचार्य जैसी देश की प्रमुख राजनीतिक हस्तियां मुझे एकटक देख रही थीं। कविता पाठ के बाद सभी ने मुझे खूब सराहा।
उनके जन्मदिवस पर उनके समक्ष उनकी ही जो कविता सुनाई, वो उनके व्यक्तित्व का परिचय और मेरे लिए जीवन का दर्शन है…
टूटे मन के कोई खड़ा नहीं होता,
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता,
मन हार कर मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं…
आदमी को चाहिए कि वह जूझे, परिस्थितियों से लड़े, एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े,
आदमी चाहे, जीतना भी ऊँचा उठे
अपने धरातल को न छोड़े, अंतर्यामी से मुँह न मोड़े,
धरती ही धारण करती है,कोई इस पर भार न बने,
मिथ्या अभिमान से न तने, आदमी की पहचान उसके धन या आसन से नहीं,
उसके मन से होती है,
मन की फकीरी पर कुबेर की संपदा भी रोती है,
मेरे प्रभु मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ, इतनी रूखाई कभी मत देना…
अटलजी जब अस्वस्थ हो चले थे, स्मृतियां भी कमजोर हो रहीं थी। वर्ष 2011 की बात है। छत्तीसगढ़ के वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय प्रदेश भाजपा अध्यक्ष थे और मैं पत्रकार। अपनी खबरों के सिलसिले में उनसे मिलना नियमित होता रहता था और ऐसे ही एक दिन मैंने अटलजी के स्वास्थ्य की चर्चा कर मिलने का आग्रह किया। श्री साय की सरलता ही कही जाएगी कि उन्होंने न केवल मेरी भावना का ध्यान रखा बल्कि कुछ ही दिनों बाद मुझे अपने साथ विमान से दिल्ली ले गए। वे अपने साथ अटलजी के निवास ले गए। अटलजी से मिलने के लिए जब हम 6, कृष्ण मेनन मार्ग स्थित उनके निवास पहुँचे तब उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और चिकित्सकों की सख्त हिदायत के कारण उनसे उस दिन मिलना नहीं हो सका पर वो दिन इस लिए स्मृति में बना रहता है क्योंकि अटलजी के व्यक्तित्व से प्रभावित मुख्यमंत्री श्री साय की सरलता चिरस्थाई हो जाती है। एक सामान्य प्रशंसक की भावना का मान रखा और उसकी इच्छा की पूर्ति के लिए हरसंभव प्रयास किया।
छत्तीसगढ़ के लोगों का जुड़ाव अटलजी से और अटलजी का छत्तीसगढ़ से जुड़ाव अंतिम समय तक बना रहा। यह स्वाभाविक भी था। वो इस राज्य के निर्माता हैं। राज्य में अटलजी का आना-जाना साठ के दशक से रहा। उनके शासनकाल में उनके सहयोगी रहे पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, रमेश बैस, वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय समेत कई ऐसे लोग और कार्यकर्ता रहे हैं, जिनके निजी अनुभव अटल जी के साथ स्मरणीय हैं। आज उनकी जन्मशताब्दी दिवस ने उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों की चर्चा को जागृत कर दिया है। देश, प्रदेश और व्यक्तिगत मेरे लिए उनकी स्मृतियां कभी भी विस्मृत नहीं होंगी। उनके विचार और अंदाज मुझे समय-समय पर नई ऊर्जा और विश्वास से भरते रहेंगे। आज उनकी ही पंक्ति के माध्यम से उन्हें मैं शब्दांजलि देना चाहता हूँ-
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी,
अंतर को चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूँगा
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।