(यात्रा संस्मरण): पथरीले गांव में स्पंदित ‘हुगांपारा’ मारडूम (बस्तर )

(यात्रा संस्मरण): पथरीले गांव में स्पंदित ‘हुगांपारा’ मारडूम (बस्तर )

उर्मिला आचार्य
पत्थर से बने छत् छाजन बाड़ी खाड़ी— मिट्टी और घास का उपयोग—- दूर-दूर बसे घर और उनमें से एक घर चिंगड़ी का भी —-!। हुंगापारा मारडूम बस्तर में हमने देखा। दिन अभी ठीक से निकला भी नहीं था पर बादल पास -पास सरक आये थे। चिंगड़ी के घर आंगन बांस पट्टी में सियाड़ी रस्सी से गूंथा ‘झूला ‘उस पर नवजात को झूला झुलाती माता की आह्लादित हंसी और बाहर सावन की फुहारें——कई दिन बीत जाने पर भी मेरी आंखों से हटती नहीं वह छवि।सच!देश दुनिया कई कोने घूमने के बाद भी मुझे लगता है मेरी आत्मा गांव में बसती है इसलिए तो जब मौका मिला चल पड़े हम गांव की ओर जो अपनी प्रकृति और संस्कृति से जुडऩे का अवसर सुलभ करा देती है।
हरे -भरे खेत’ ,मुस्कुराते पेड़ पौधे सुख-दुख के आंसू बहाता सावन —! देखो वह भी हमारे पीछे -पीछे! आता है हर बूंद में एक थिरकन—! झिपिर -झिपिर जब हम जगदलपुर से हुंगापारा अपने निजी वाहन से चल पड़े हैं।

आज के इस मौसम को देखकर मेरी स्मृति पटल पर उतर आए हैं कालेज के वे दिन— जब कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ में हमने पढ़ रखा था वर्षा ऋतु के बारे में—पंक्तियां तो याद नहीं पर उसका अनुवाद कह सकती हूं—!
आज भी दो हज़ार तेईस, जुलाई का महीना — ‘ वर्षा की दुंदुभी बजाते मतवाले मेह ,पावस जल बिंदुओं से भरे बिजली की पताका लिए चल पड़े हैं हरे तने पर टंगे नीले आकाश से लेकर क्षितिज तक को भिगोने के लिए।’नदी, हवा धूप —-इस किनारे पेड़ उस किनारे चट्टान ,एक चिडिय़ा राह भटकी हुई, सांवली सुबह, हरी वनस्पति और सरपट भागती हमारी चार पहिया वाहन चिकनी सडक़, कहीं चौड़ी, कहीं सकरी— मौसम भीगा भीगा , चेहरे को सहलाती वर्षा की उन्मादी हथेलियां —-यदि कहीं सुख है तो यही हैं इस पल , इस अनुभूति में।
कल रात भर जगदलपुर में बारिश होती रही सुबह पौधा रोपण , हेल्थ केयर और स्वच्छता अभियान में शामिल होने हम चल पड़े हैं मारडूम होते हुए बस्तर के सुदूर गांव हुंगापारा की ओर—लगभग 52 किलोमीटर किलोमीटर की दूरी-!
हमारी यात्रा में शहर से निकलते ही सडक़ किनारे धान के हरे भरे खेत और धान के साथ अपने को रोपतीं स्त्रियां —! खुले कंधे ,खुली बाहें । बाहों पर गोदना के फूल ,पत्ती ,सांप ,रेखाएं , कुम्हड़ा,मोर दूर से दिखाई दे रहे हैं —-जाने यह ऐलान करती हुई कि ‘देखो फसल उगने से पहले हमने उगा लिया है अपनी देह पर प्रकृति के ये चिन्ह।
धान का कटोरा कहलाने वाला छत्तीसगढ़ का यह भाग खनिज संपदा, पर्यटन और लोक संस्कृति के खजाने पर बैठा तो है पर गरीबी ,असुरक्षा नक्सलवाद के आतंक से जुझता हुआ।

आषाढ़ का गोंचा तिहार ,तुपकी की मार और सावन का’ अमूस तिहार’ अभी अभी-यहां गुजरा है इसलिए उसी लय में यह कामगार औरतें अपने श्रम बिंदुओं को गीतों में गूंथती गुनगुना रहीं थीं —
‘दादा ले दादा
ओरि -ओरि सिंगार
बानी बानी पुंगार
दादा ले दादा ले दादा’

‘(आओ सखियां हरेली की पूजा में-लहलहाते फसल के साथ हम तुम भी शृंगार करें—! ये पौधे हमारे श्रृंगार का एक हिस्सा हैं।)
आजादी के तमाम हमलों के बाद भी बस्तरिया संस्कृति अभी लोक साहित्य में बाकी है।

हमें हुंगापारा जाने के लिए लोहंडीगुड़ा मारडूम का रास्ता पकडऩा पड़ा।उफनते नदी नाले को पार कर मारडूम डिफेंस रोड से दाहिने ओर खेत पतवार के बीच गाड़ाघाट नाला ऊफान पर बैठा था -सावन की धारासार वर्षा उफ!उफ़!पुल पुलिया सब डूबे-डूबे-इस पार कुछ लोग, उस पार कुछ लोग। पानी उतरने की प्रतीक्षा में दूध दही ले जाने वाले ग्रामीण, राहगीर सोच रहे थे कि पानी उतरे तो हम आगे बढ़ें —
इन सबके बीच घुटने -घुटने पानी में ‘सोमारी’ और उसकी बेटी ‘मांगती’ सावधानी से आगे बढऩे लगी थीं जैसे कह रही हो ‘यह तो हमारे हर साल का काम है’। पानी की धार में चमकती आंखें और सुरीली आवाज से लोकगीत गुनगुनाते वह अपने प्रेमी को बुला रही थी—
‘रास्ता रेंगेंगे हलाले कोहनी
तोरा आंरपं में सवोनी
खोपा में मोहिनी’
(‘हे रास्ता चलने वाले प्रेमी! देखो मेरा गोदना !देखो गोदने से मेरी आंखों में सलोनी हो गई है फिर क्या तुम्हें अब भी मेरा रूप भाता नहीं है।’)
आम आदमी के लिए कष्टप्रद होने पर भी प्रकृति का यह तांडव हम घुमंतुओं के लिए अद्भुत—-रोमांचकारी होता है इसलिए हमने भी मंत्र मुग्ध होकर बड़ी सावधानी से अपनी गाड़ी को पानी से निकाल कर आगे बढ़ चले।
मैंने पहले ही कहा कि हमें जाना था प्राथमिक शाला हुंगापारा में फलदार वृक्ष रोपने और स्वास्थ्य और स्वच्छता जन जागरण अभियान में भाग लेने पर हमारी नजर इस जनजातीय गांव की विरासत ,रहन-सहन और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की पड़ताल भी करना रहा है।मारडूम के बाद नीले चट्टानों की घाटी हरी पत्तियों का एक सयाना जंगल— पूरे रास्ते नीली हरी परछाइयों से फिसलती पगडंडिया और यह लो हम अपने मंजिल के करीब आ गए थे । कुछ बकरियां , हॉट बाजार करने निकली कुछ औरतें हमें जिज्ञासु आंखें पास से निकल रही थीं ।
निर्जन से लगने वाले इस स्थान पर एक एकाकी स्कूल दूर-दूर तक चट्टानों के डूह और बारिश के कोहरे में डूबा हमें दूर से ही पास बुला रहा था।कभी अखबारों की सुर्खियों में यहां लाल सलाम का आतंक रहा पर आज बदलाव की बयार स्वागत योग्य है।
गांव मुहाने ही प्राथमिक शाला हुंगापारा। रविवार का दिन बच्चे स्कूल में नहीं थे पर पहले से सूचना पाकर शाला शिक्षक गांव वालों के साथ पौधा रोपने शाला परिसर पहुंच गए थे । हमने पहुंचते ही फलदार पौधे रोप लिए इस विश्वास के साथ कि चारों ओर स्कूल बाउंड्री और जागरूक शिक्षक की जिम्मेदारी से ये वृक्ष आने वाले पीढ़ी के लिए फलेंगे – फूलेंगे।
अब काले बादलों के साथ दिन चढऩे लगा तो कुछ हड़बड़ी,कुछ जल्दी पर्यावरण और स्वच्छता का संदेश देने हममें से कुछ साथी गांव की ओर निकल पड़े , कुछ शाला परिसर में ही ठहर गए। बांस झुरमुट में झींगुर की आवाज दिन में ही सुनकर स्कूल चौकीदार कह रहा था ‘लो साहब जंगल आपको सलाम करता है।’ ऐसी मानवीकरण वही कर सकता है जिसका प्रकृति से जुड़ाव हो। वाह! वाह!
मुरूम,गिट्टी पत्थर से बनी कच्ची पक्की सडक़ पगडंडी सी— कुछ दूरी पर दूर-दूर फैले घर से होते हुए हम जिस घर में पहले पहुंचे वो ‘चिंगड़ी ‘का घर था।
चारों तरफ पत्थरों से घिरा बाड़ी, कच्चा मकान और बांई ओर सूअर बाड़ा पत्थरों के मेड़ से घिरा हुआ—तैयार! आगे पत्थर, पीछे पत्थर बस पत्थर ही पत्थर। यही पारिस्थितिकी तंत्र का सही इस्तेमाल है।सचमुच दुनिया का पहला इंजीनियर आदिवासी ही रहा होगा —जो मिला जल जंगल आग नदी पहाड़ फूल पत्ते उसे अपनी जरूरत के अनुसार ढाल लो।
चिंगड़ी का घर — खुला -खुला आंगन ,भीतर सीलन से बचने के लिए सुलगती लकडिय़ां और अंधेरे में डूबा हुआ गर्भ गृह। सरकारी एकल बत्ती कनेक्शन। घुप्प अंधेरा- जैसे दिन में ही उजाले ने आत्महत्या कर ली हो —!
क्यों ऐसा—
आले असनी तो—पुरखौती गांव घर आय( अंधेरे में रहने की हमारी आदत है पुरखों का घर है)
कुछ कपड़े अलगनी पर बिखरे-बिखरे। मुंह में धान लिए एक ढेकीं परछी में—
आंगन में नंगे बच्चे अपने आस पास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से खेल रहे थे।कुछ छाली—छिलपा , लकड़ी -गुटका और उनके सपने। जिज्ञासा ने पूछ ही लिया
‘क्या बना रहे हो ’
‘टिमकी’

’टिमकी ‘छोटे आकार की मिट्टी से बना आधे घड़े नुमा एक वाद्य यंत्र है। इसे बकरे अथवा घोरपड़ के चमड़े से मढ़ा जाता है ।चमड़ा उपलब्ध नहीं था इसलिए बच्चे बांस की छोटी-छोटी डंडियां बनाकर एक ध्वनि निकाल रहे थे—- दिल की आवाज— निश्चल ध्वनि हवा में सुर सुरा सरगम की तरंगे उठा रहीं थी।
‘वाह !इसे बनाना कहां से सीखा—?’ तो बच्चों ने घरवालों की ओर इशारा किया-‘-पिता से —भाई से!’
‘सही ऐसी कारीगरी किसी कार्यशाला में नहीं विरासत से ही मिलती है।’ जीवन अनुभव कोई कार्यशाला दे भी नहीं सकती।
हमारी बातचीत के बीच भोजन पसिया निपटा कर घर की औरतें बर्तन धोने दूर पथरीले चट्टानों पर ठहरे पानी की तलाश में जाने की तैयारी कर रही थीं—
‘क्यों सामने तो हैंड पंप है ’
‘ना बाबा उसे कौन टेंडेगा खूब नीचे पानी है फिर मीठा भी नहीं —’
‘पानी निकलता नहीं मैडम फिर आयरन भी ज्यादा है —’-चौकीदार उनकी तरफ से हमें बता रहा था!
ओह! फिर एक जिज्ञासा हुई पूछ लिया घर की किशोरी बालिका से हमने
‘काय खाइलिस लेकी!( क्या खाया)
‘छाती’(फूटू)
‘बड़े स्वाद’(स्वादिष्ट)
‘भात छाती’(एक तरह का बस्तरिया फूटू)
‘तोचो नाम’(तुम्हारा नाम)
‘चिंगड़ी’
चिंगड़ी — मझोला कद ,डूबी डूबी आंखें —चिंगड़ी-माने झींगा मछली नाम को सार्थक करती हुई उसके घुंघराले बाल।
गांव की मूल समस्या स्वच्छ जल की है। बारिश में पानी के डबरे भले उग आएं —- पर गर्मियों में इन डबरों पर पानी तलाश करते सूरज महाशय का गुस्सा सब झेलते आ रहे हैं है।
आपने तस्वीरों में देखा होगा रेगिस्तानी इलाके की औरतें गगरी उठाए कतारबद्ध चलती हैं पानी की तलाश में दूर दूर —आज साक्षात देख लिया हमने जूठे बर्तनों की झांपी( बांस की टोकनी) लिए अधखुले देहके साथ के छोटी बड़ी सयानी औरते चट्टान को चढ़ती उतरती जा रही थीं दूर-दूर —साथ चल रहा था जंगल झींगुर की आवाज लिए— बगल में बटालियन कैंप—पहरेदारी करता राइफल धारी एक जवान बड़ी उदास नजर से उन्हें दूर तक जाते देखता रहा । सुख दुख ,आतंक गरीबी अभाव के बीच भी ये औरतें गुनगुना रही थीं जाने क्या — जो करूणा की पुकार बनकर आंसुओं में तब्दील हो गई थी।
उन्हें जाता हुआ छोडक़र जब हम कुछ आगे बढ़े तो एक घर के सामने महुआ डार और छिंदक पत्तों से अच्छादित मंडप देख जिज्ञासा हुई कि किसकी शादी हुई है और कब——!
‘हां टोकी चो ब्याह रला’
बेटी का कहां ब्याह किया—?
दूसर गांव
‘राजी- बाजी आय (सब की सहमति से हुई)
‘राजी बाजी’—मतलब दोनों पक्षों की सहमति से यहां राजी बाजी विवाह प्रचलित है। विवाह योग्य लडक़े -लड़कियां अपना प्रेम एकांत में ,हाट बाजारों में ,गलियों में अभिव्यक्त करते हैं। गोटूल जो अब सामुदायिक भवन बन गए हैं उनमें भी प्रेम का अवसर सहज उपलब्ध हो जाता है। प्रेम हो जाने पर दोनों पक्ष किसी रिश्तेदार के यहां चले जाते हैं ।दस पन्द्रह दिन में ढूंढ कर उन्हें परिवार अपने गांव के पंचायत में उनका प्रकरण रखता है। लडक़ी राजी तो कोई बात नहीं फिर यदि जबरन भगाई गई हो तो लडक़े पक्ष को आर्थिक दंड भोगना पड़ता है और दोनों पक्ष राजी तो शादी का पूरा खर्चा वर पक्ष को उठाना है। दहेज और कोई दूसरी मांग बिल्कुल नहीं। हालांकि सगोत्रीय विवाह कतई स्वीकार नहीं —तभी तो लडक़ी लडक़ा आपस में पहले पूछ लेते हैं —
‘—तू लाटा बुटा’
‘मैं पंडकी मैना —’इस तरहसारे
गोत्र प्रकृति के उपादान ही होते हैं।
‘मैं भीतर आऊं ’—पूछने पर घर की सयानी औरत ने बड़े आदर से बुलाया—
‘आले! इलास नाई
आ जाओ ना—!
भीतर आने पर देखा पत्थरों के छाजन से घिरा एक सीलन भरा कमरा ।रात भर सुलगती लकडिय़ां ,अलगनी पर बिखरे कपड़े और एक झूला —-!
बांसपट्टी और —-सियाड़ी रस्सी से गूंथा हुआ शिशु के लिए। अभी महीना दस दिन नहीं हुआ जचकी हुआ शरीर — थकी थकी सी , बिखरे बाल, अस्त-व्यस्त कपड़े —पर अद्भुत! ममता से सरोबार! प्रकृति से जो मिला उसका भरपूर उपयोग!
‘तुम्हारा नाम ’
‘चिंगड़ी ’
‘तुम्हारा भी ’—यहां सब चिंगड़ी ही हो क्या—
चिंगड़ी शर्माने लगी ।हम शिशु को झूला झूलने लगे —
‘झूला झूले नंदलाल।’—
याद पड़ता है मुझे कोरकू जनजाति में भी एक डोलार गीत है कुछ इस तरह —-
‘देखो देखो रे संडेला हरा नीला देखो—-’
या कि—
‘तू टिमकी क्यों बजा रहा है
तेरी बहन रो रही है
तू झांझ क्यों बजा रहा है
तेरी बहन रो रही है
तू ढोलक क्यों बजा रहा है
तेरी बहन रो रही है’
ऐसे बहुत से लोकगीत। मां की ममता भाषा की मोहताज नहीं वह तो हर गीत में सजती है।
बांस पट्टी के झूले को लेकर शाला में मध्यान्ह भोजन बनाने वाली शिबो बता रही थी कि ‘‘ इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान लाना ले जाना बहुत आसान है ।
फसल काटना हो, महुआ बिनना हो, खेत खलिहान कहीं भी—! पेड़ की टहनी पर झूला टांग दो हवा झुलाती रहेगी। आप काम करते रहो।कीड़ा -मकोड़ा ,जानवर किसी का कोई डर नहीं । भूख लगे दूध पिला दो बस। ।’
‘अच्छा! आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ यह तो प्रकृति के सानिध्य में ही सीखा जा सकता है यह बात हम सब ने पहले ही समझ ली थी।
झूला पेड़ पर बांधे फसल काटती ये कामगार औरतें किसी वीरांगना से कमतर नहीं हैं हालांकि उन्हें श्रम का मूल्य दुनिया देती नहीं। न जाने कितनी वीरांगनाएं इस क्षेत्र में हुई है जो गुमनामी में खो गईं। – ना ना एक नाम तो ख्याल आ रहा है ‘रैला देवी ’ याद है ना— अपने दो भाइयों की इकलौती बहन !काकतीय वंश की वीरांगना! उसके नाम पर बस्तर दशहरा के प्रथम दिवस! रैला पूजा !! का विधान है —बस्तर की सभी वीरांगनाओं को समर्पित ।
‘कभी दशहरा देखने गए हो’हम हममें से किसी ने पूछा तो पुरुषों ने हामीं भरी सयानी औरत ने उदासी से सिर झुका लिया।
सीमित आवश्यकताएं ,असीमित सोच !प्रकृति के संसाधनों पर आश्रित अपने रीति- रिवाज अपनी विरासत सहेजने वाले ये माडिय़ा जनजाति के लोगअपने में ही खुश हैं।बाहरी दखल वे कभी स्वीकार नहीं करते हालांकि अभ्यागतों को पराया भी नहीं समझते इसलिए कई बार ठगे भी जाते हैं।
चिंगड़ी नंबर दो के घर से निकलने पर बाहर देखा‘ कुकुड़ा गारी’ छेरी- मेंढी कोठार के पास। जिज्ञासा तो होगी ही-‘-क्या है ’कुकड़ागारी’—-‘बांस की टोकरी में अंडे सेंतने वाली मुर्गियों के दड़वा को किसी पेड़ या ताक पर रख देना कुकड़ा गारी है’ —कुत्ता बिल्ली दूसरे जानवरों से सुरक्षा— वाह!कुकड़ा गारी! गांव में चोरी चकारी तो होती नहीं।’अच्छा!
कुकड़ा गारी को पीछे छोडक़र जब हम आगे बढ़े तो ‘बड़ पेड़’ के नीचे गांव मुखिया से मुलाकात हो गई जो शहर जा रहे थे ‘दशहरा मीटिंग ’में शामिल होने। बड़ी-बड़ी आंखें, मोटी नाक गठीला बदन ऊर्जा से लबरेज। घुटनों तक उठी लूंगी खुले बांह की कमीज और काला चश्मा फटाफट फटफटी पर—-
हमें देखकर रुक गये—जाने कौन साहब लोग हैं—-! ‘नहीं भाई हम तो गांव घूमने आए हैं—पौधा रोपने।’
‘ सरकारी मीटिंग में भाग लेने और दूसरे कामों से अक्सर जगदलपुर आना जाना होता है ’कहने वाले सरपंच बातों के बीच में अपने देव गुडिय़ों की भी बात करने लगे-
यहां विराजमान है परदेशिन माई और बुढ़ा देव। इन्हें भी दशहरा का निमंत्रण मिलता है।गुंडिचा मेला और बाजार हाट में बकरा ,कुकड़ा बलि की बात वे बड़े चाव से सुनाने लग गए थे।
कोरोना काल की विभिषिका अभी-अभी गुजारी थी तो उसकी चर्चा में वे बता रहे थे कि
‘क्या बताएं साहब—कोरोना काल में गजब की एकता रही।बाहरी प्रवेश निषेध !वैसे भी माता महामारी चेचक से लडऩे की कला हमारी सदियों पुरानी है ।गांव का गांव बांध दिया जाता है ।न कोई आएगा न कोई बाहर जाएगा इसलिए कोरोना काल के नियम पालन करने में हमें अधिक कठिनाई नहीं हुई हालांकि साग सब्जी दवाई का प्रबंध सरकार के साथ दूसरे लोगों ने भी कराया’
जब मुखिया शहर की ओर निकल पड़े तो बारिश की बूंदाबांदी के बीच हम भी गांव के और भीतर हो लिए।देखा एक देवगुड़ी के सामने कुछ महिला पुरुष दूर चर्च की ओर जाते लोगों को खड़े-खड़े कोस रहे थे’ अपना देव धामी छोडक़र कहां मुंडी मार रहे हैं’।उनमें से कुछ युवा लडक़े जोर शोर से कह रहे थे कि—‘हम तो प्रकृति पूजक हैं। बाहरी लोग धर्म— संस्कार—हमें नहीं चाहिए —भगाओ —भगाओ—!वातावरण में खासा तनाव था।हम समझ गए कि बस्तरिया लोगों की सदियों पुरानी समरसता को नजर लग गई है। जो चिंता का विषय है।वहां ठहरना अब सही नहीं था फिर दिन भी तेजी से ढल रहा था। इतने कम समय में पूरे गांव को महसूस करना मुश्किल नहीं नामुमकिन था। बस आधा- अधूरा!

हम लौट आए प्राथमिक शाला हूंगापारा में जहां हमारे भोजन का प्रबंध हमारे संसाधनों द्वारा कर दिया गया था। शाला का रखरखाव दूर से दिख रहा था।सदाचार की सीख देने वाले स्लोगन ,महापुरुषों की तस्वीरें और अनेक चित्रों से अलंकृत यह शाला बच्चों के भविष्य निर्माण में सालों साल से यहां खड़ा है और उसमें पदस्थ हैं एकमात्र शिक्षक श्री जी। जिनके जिम्मे पांच -पांच कक्षाएं अलग-अलग विषय और स्थानीय बोली, हिंदी ,अंग्रेजी के अलावा ‘छत्तीसगढ़ी बोली !बस्तर छत्तीसगढ़ का भूभाग है पर छत्तीसगढ़ी बोली से अनभिज्ञ अपरिचित। उसकी अपनी बोलियां भी है —गोंडी ,हल्बी, भतरी,दोरली,परजा—और भी।
नारायणपुर से पदस्थ श्री जी शिक्षक आदिम संस्कृति हल्बी ,गोंडी के जानकार भी हैं—! गांव के लोगों से उनकी गहरी आत्मीयता सुख दुख के साथी।हालांकि शाला त्यागी बच्चों को स्कूल तक लाना कठिन काम है क्योंकि पालकों का सहयोग कम मिलता है। कारण यह कि खेती मजदूरी करने उन्हें दिन भर बाहर रहना पड़ता है तब छोटे-मोटे काम घर की जिम्मेदारी संभालते हैं यह बच्चे।फिर भी इस प्राथमिक शाला में लडक़े लड़कियों की संख्या 20/38 का है। लड़कियों की संख्या अधिक है और हां स्त्री- पुरुष असमानता,भ्रूण हत्या जैसे मामले यहां नहीं होते।मध्य पान इनकी संस्कृति है पर हर हाल में वह बुरा है क्योंकि उससे घर के घर उजड़ जाते हैं।
पांच छै सौ की आबादी वाले इन लोगों में वन रक्षा के लिए भी समूह बना है।सडक़ बन जाने से शहर तक पहुंच मार्ग आसान है इसलिए बाहरी सोच और बाहरी लोगों का आना-जाना बना हुआ है।मुख्य व्यवसाय कृषि उपज होने पर भी पथरीले जमीन के पर उपज कम होती है तब मजदूरी करना आवश्यक हो जाता है।

बातचीत के बीज भोजन तैयार—
शाकाहारी भोजन के साथ ‘कोतरी माछ ‘’पुडग़ा ‘अमचूर के खटास के साथ महा महा रही थी।
लौटने में सांझ ढल रही थी। गाड़ानाला का पानी उतर चुका था।बारिश में ‘तामड़ा घूमर’ के ऊफान को देखते हुए हम निकल आये अपने रास्ते पर।किसी बड़े आदमी ने सही कहा था कि बारिश के दिन बस्तर के कहीं भी पत्थर मारो तो झरना फूट ही आएगा— यह बात सच है —!घने जंगलों के बीच पानी ही पानी! बेहद खूबसूरत! अनुभूति ।
चितरकोट का रास्ता पीछे छूट गया था।
सांझ ढल रही थी लौटते में लोहंडीगुड़ा का साप्ताहिक बाजार उठ रहा था ।लोग जा चुके थे पर मुर्गा लड़ाई और ‘खिड़-खिडि़ ’एक प्रकार का जुआ खिलाने वाले तमाशबीन डटे हुए थे ।हारे हुए प्रत्याशी निराश थे तो जीतने वाले विजयी लड़ाकों की तरह शानो शौकत से लौट रहे थे।
रिमझिम बारिश अब भी साथ थी। इमली के पेड़ पर अपने ससुराल में कहीं कोयल कूक रही थी तब अनेक जानकारी जुटाती एक खूबसूरत यात्रा के बीच मुझे अज्ञेय की यह पंक्ति याद आ गई—-
‘रात सावन की कोयल भी बोली
पपिहा भी बोला मैंने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुमने पहचानी क्या
मेरे पपीहे की गुहार’

घर पहुंचते हुए बादल भी इस मूड में अब आ गए थे कि‘ मन हुआ तो बरस लो नहीं तो अगली जगह खिसक लो—!’
इस पूरे यात्रा में एक बात खास यह रही कि हमारे साथ हमारे हाईस्कूल की (जब मैं स्कूल में पढ़ती थी) रिटायर्ड प्राचार्य वर्मा मेंम भी शामिल थीं। काफी सयाने हो जाने के बाद भी उनका सानिध्य ऊर्जा से लबरेज़!!
‘हुंगापारा एक छोटा सा गांव पर देख लीजिए पूरे बस्तर की एक झलक!!’

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