Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से – जाति, विवाह और सामाजिक स्वतंत्रता का द्वंद्व

Editor-in-chief सुभाष मिश्र की कलम से - जाति, विवाह और सामाजिक स्वतंत्रता का द्वंद्व

-सुभाष मिश्र

भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं का एक जटिल संगम है। एक ओर जहां आधुनिकता के प्रभाव से लिव-इन रिलेशनशिप और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को स्वीकार करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर जातिगत बंधन और सामाजिक पंचायतों की रूढिय़ां आज भी कई लोगों के जीवन को प्रभावित कर रही हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में तंवर समाज द्वारा डीएसपी मेखलेंद्र प्रताप सिंह और उनके परिवार के बहिष्कार का मामला इस द्वंद्व को स्पष्ट रूप से उजागर करता है। यह घटना न केवल सामाजिक रूढिय़ों की जकडऩ को दर्शाती है, बल्कि यह भी प्रश्न उठाती है कि क्या हमारा समाज वास्तव में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करने के लिए तैयार है?
बिलासपुर के कोटा थाना क्षेत्र में तंवर समाज ने डीएसपी मेखलेंद्र प्रताप सिंह के अंतरजातीय विवाह को सामाजिक अपराध मानते हुए उनके और उनके परिवार के सामाजिक बहिष्कार का निर्णय लिया। सतगढ़ तंवर समाज की नियमावली के पृष्ठ 5, खंड (व), उपखंड 2 में अंतरजातीय विवाह को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। समाज ने न केवल मेखलेंद्र को समाज से अलग करने का फैसला किया, बल्कि उनके वैवाहिक कार्यक्रम में शामिल होने वाले अन्य सदस्यों पर भी कार्रवाई की चेतावनी दी। इसके अतिरिक्त समाज के पदाधिकारियों द्वारा मेखलेंद्र के भाई-बहनों को गाली-गलौज और जान से मारने की धमकी देने की शिकायत भी सामने आई है, जिसके आधार पर पुलिस ने केस दर्ज किया है।

यह घटना कई स्तरों पर गंभीर सवाल खड़े करती है। पहला, क्या कोई सामाजिक संगठन संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ जाकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दबा सकता है? दूसरा क्या अंतरजातीय विवाह को अपराध मानना आधुनिक भारत के मूल्यों के अनुरूप है और तीसरा, क्या सामाजिक बहिष्कार जैसे कदम सामाजिक एकता को बढ़ावा देते हैं या इसे और अधिक खंडित करते हैं?
भारत का संविधान और कानून अंतरजातीय विवाह को पूर्ण मान्यता और सुरक्षा प्रदान करते हैं। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत दो अलग-अलग जातियों या धर्मों के लोग बिना किसी सामाजिक या कानूनी बाधा के विवाह कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में जैसे कि एस खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) में स्पष्ट किया है कि सहमति से बने रिश्तों को अपराध नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए आर्थिक सहायता योजनाएं भी चलाई जाती हैं, जैसे कि अनुसूचित जाति से संबंधित जोड़ों के लिए 2.5 लाख तक की सहायता। यह दर्शाता है कि कानून न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करता है, बल्कि सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय कदम भी उठाता है।

तंवर समाज का यह कदम सामाजिक रूढिय़ों और जातिगत दबावों का जीवंत उदाहरण है। समाज द्वारा बनाई गई नियमावली और दंड विधान न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करते हैं, बल्कि सामाजिक एकता को भी कमजोर करते हैं। यह विडंबना है कि एक ओर जहां समाज प्रगतिशीलता की बात करता है, वहीं दूसरी ओर खाप पंचायतों और सामुदायिक संगठनों के ऐसे फैसले व्यक्तियों को सामाजिक बहिष्कार, मानसिक उत्पीडऩ और हिंसा का शिकार बनाते हैं। इस मामले में डीएसपी मेखलेंद्र और उनके परिवार को न केवल सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ा, बल्कि उनके भाई-बहनों को धमकियां भी दी गईं। यह निंदनीय है कि एक उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारी जो समाज की सुरक्षा के लिए कार्यरत है, को स्वयं सामाजिक उत्पीडऩ का सामना करना पड़ रहा है।

आज का युवा वर्ग धीरे-धीरे विवाह जैसे पारंपरिक संस्थानों से विमुख हो रहा है। लिव-इन रिलेशनशिप की बढ़ती स्वीकार्यता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति इस बात का प्रमाण है कि समाज बदल रहा है। युवा अब नौकरी, आर्थिक स्थिरता और व्यक्तिगत खुशी को जाति या सामाजिक बंधनों से ऊपर रख रहे हैं। फिर भी, तंवर समाज जैसे संगठनों के रूढिग़त फैसले इस बदलाव को रोकने की कोशिश करते हैं। यह टकराव न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि सामाजिक प्रगति को भी बाधित करता है।

इस घटना से यह स्पष्ट है कि सामाजिक सुधार और जागरूकता की आवश्यकता है। समाज को यह समझना होगा कि जाति या सामुदायिक नियम संवैधानिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकते। सरकार और सामाजिक संगठनों को मिलकर ऐसी योजनाओं और जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देना चाहिए जो अंतरजातीय विवाह को सामान्य बनाएं और सामाजिक स्वीकार्यता को प्रोत्साहित करें। पुलिस और प्रशासन को भी ऐसे मामलों में त्वरित और कठोर कार्रवाई करनी चाहिए।

बिलासपुर की यह घटना एक चेतावनी है कि हमारा समाज अभी भी जातिगत और सामुदायिक बंधनों की जकड़ में है। डीएसपी मेखलेंद्र प्रताप सिंह और उनके परिवार का बहिष्कार न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि यह संवैधानिक मूल्यों और मानवाधिकारों का भी उल्लंघन है। यह समय है कि हम सामाजिक रूढिय़ों को तोड़ें और प्रेम, समानता और स्वतंत्रता को अपनाएं। क्योंकि अंतत: यह नहीं मायने रखता कि आपकी जाति क्या है, बल्कि यह मायने रखता है कि आपका जीवनसाथी आपके साथ कितना सही और सुखी है। कानून और संविधान हमारे साथ है, अब समाज को भी इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है।

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