:राजकुमार मल:
भाटापारा- फूल मधुमक्खियां के लिए प्रमुख पराग स्त्रोत। बेहद घनी संरचना होती है इसलिए पक्षियों के प्राकृतिक आवास की सुविधा। छाल इतने महत्वपूर्ण कि बुखार, दस्त और मधुमेह जैसी बीमारियां दूर करने में सहायक है लेकिन खत्म होने की स्थिति में है।
कसई एक ऐसा पर्णपाती वृक्ष है, जिसकी मौजूदगी केवल दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर के साथ सरगुजा, कोरिया, जांजगीर और गौरेला-पेंड्रा- मरवाही के जंगलों तक ही रह गई है। शेष छत्तीसगढ़ में यह नजर नहीं आता क्योंकि विकास के नाम पर कटाई बेखौफ जारी है। अवैध कटाई भी बड़ी वजह बनी हुई है।
इसलिए अहम है प्रजाति
कसई के खत्म होते वृक्षों को देखते हुए वानिकी वैज्ञानिक इसलिए चिंता में हैं क्योंकि न केवल औषधिय गुणों से भरपूर है कसई के वृक्ष बल्कि पर्यावरणीय स्थायित्व बनाए रखने में मदद मिलती है इस पेड़ से। उच्च तापमान और जलवायु अनुकूलन जैसे गुणों के साथ जड़ों से मृदा अपरदन को रोकने में यह प्रजाति सक्षम मानी गई है। जैव विविधता को समर्थन देने वाले इसके फूल मधुमक्खियों के लिए प्रमुख पराग स्रोत हैं, तो घनी संरचना पक्षियों को प्राकृतिक आवास की सुविधा देती है।

फूल, पत्तियां और छाल
छाल से बुखार, दस्त, मधुमेह से राहत देने वाली औषधि बनाई जाती है। इसके अलावा छाल में टैनिन की भरपूर मात्रा की वजह से चमड़ा उद्योग से भरपूर मांग निकलती है। फलों और पत्तियों का भी उपयोग आयुर्वेदिक औषधियां बनाने के काम में किया जा रहा है। नई कोंपल पशु चारा के रूप में सहायता कर रहीं हैं। घनी संरचना की वजह से इसका रोपण प्राकृतिक बाड़ के लिए भी किया जा सकता है।

संरक्षण की आवश्यकता
तेजी से कम होते कसई के वृक्षों की यह हालत देखते हुए वानिकी वैज्ञानिकों ने कसई वनों के अवैधानिक दोहन पर फौरन रोक की जरूरत बताई है और कहा है कि नर्सरी आधारित पौधारोपण कार्यक्रम में इस प्रजाति को प्राथमिकता से शामिल करना होगा। इसके अलावा वानिकी योजनाओं और कृषि वानिकी मॉडल में भी जगह देनी होगी क्योंकि कसई एक ऐसा वृक्ष है, जो मानव, पशु-पक्षी और कीट का जीवन सहज बनाने में मदद करता है।

पारिस्थितिकी संतुलन की रीढ़
कसई जैसे स्थानीय वृक्ष प्रजातियाँ हमारे पारिस्थितिक संतुलन की रीढ़ हैं। यह न केवल मधुमक्खियों जैसे परागणकर्ताओं और पक्षियों के लिए आश्रय का कार्य करता है, बल्कि जलवायु अनुकूलन, मृदा संरक्षण और पारंपरिक औषधीय उपयोगों के कारण ग्रामीण जीवन और जैव विविधता दोनों के लिए अनमोल है। वर्तमान में इसकी घटती संख्या चिंता का विषय है। समय रहते इसके संरक्षण, पुनर्स्थापन और स्थानीय स्तर पर इसके महत्व को समझाना अनिवार्य है। वानिकी योजनाओं, कृषि वानिकी मॉडल तथा नर्सरी कार्यक्रमों में इस प्रजाति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियों को इसका लाभ मिल सके।
अजीत विलियम्स, साइंटिस्ट (फॉरेस्ट्री), बीटीसी कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड रिसर्च स्टेशन, बिलासपुर