रायपुर। छत्तीसगढ़ में 58 प्रतिशत आरक्षण को लेकर विवाद अब संविधान, न्यायपालिका के आदेशों के पालन तथा राज्य प्रशासन की जवाबदेही से जुड़ा संवेदनशील मुद्दा बन गया है। पूर्व विधायक एवं छत्तीसगढ़ वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र पांडे ने राज्य सरकार पर हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करने का गंभीर आरोप लगाया है तथा इस संबंध में प्रधानमंत्री कार्यालय को शिकायत पत्र भेजा है।
वीरेंद्र पांडे एवं अभ्यर्थी विकास त्रिपाठी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि प्रदेश में दोहरे आरक्षण की व्यवस्था लागू है। हाईकोर्ट अपनी भर्तियों में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू कर रही है जबकि राज्य सरकार 1994 अधिनियम के तहत 58 प्रतिशत आरक्षण लागू कर रही है।
वीरेंद्र पांडे ने कहा कि इंदिरा साहनी मामले में स्पष्ट निर्णय है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। छत्तीसगढ़ में जनसंख्या के आधार पर अतिरिक्त आरक्षण लागू किया जा रहा है। मामला लंबे समय से कोर्ट में लंबित है। 2012 में राज्य सरकार ने एससी, एसटी एवं ओबीसी के आरक्षण प्रतिशत बदलकर कुल 58 प्रतिशत कर दिया था। गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की याचिका पर हाईकोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार असाधारण परिस्थितियों एवं ठोस सांख्यिकीय आधार की शर्त पूरी करने में विफल रही तथा 58 प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया।
राज्य सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश नहीं दिया, जिससे हाईकोर्ट का निर्णय प्रभावी बना रहा।
2025 में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों में जारी आरक्षण गणना के अनुसार कुल प्रभावी आरक्षण लगभग 68 प्रतिशत तक पहुंच गया, जिससे अनारक्षित वर्ग के अवसर सीमित हो गए। इससे विवाद और गहरा गया तथा मेरिट बनाम आरक्षण की बहस फिर शुरू हो गई। पूर्व विधायक के अनुसार, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों ने कोर्ट के स्पष्ट आदेशों के बावजूद 58 प्रतिशत आरक्षण पर भर्ती एवं प्रवेश प्रक्रिया जारी रखी, जिससे संवैधानिक संस्थाओं एवं राज्य शासन के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई।
वीरेंद्र पांडे ने चेतावनी दी कि यदि सुप्रीम कोर्ट 50 प्रतिशत की सीमा के पक्ष में फैसला देती है तो 58 प्रतिशत आरक्षण पर आधारित सभी भर्तियां कानूनी संकट में पड़ सकती हैं। उन्होंने 58 प्रतिशत आरक्षण पर की गई भर्तियों की समीक्षा, उच्च स्तरीय जांच तथा भर्ती एवं प्रवेश प्रक्रिया को 50 प्रतिशत की संवैधानिक सीमा के अनुरूप करने की मांग की।
छत्तीसगढ़ में आरक्षण विवाद अब सामाजिक नीति से आगे बढ़कर संविधान, न्यायपालिका एवं प्रशासनिक जवाबदेही का प्रतीक बन चुका है। आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट की अंतिम सुनवाई एवं राज्य सरकार का रुख इस विवाद के समाधान या गहराने का निर्धारण करेगा।