Tough times for regional parties क्षेत्रीय पार्टियों के लिए मुश्किल समय

Tough times for regional parties

अजीत द्विवेदी

Tough times for regional parties क्षेत्रीय पार्टियों के लिए मुश्किल समय

Tough times for regional parties इस बात पर बहुत चर्चा हुई है कि इतिहास अपने को दोहरा रहा है और जिस तरह आजादी के बाद कांग्रेस दशकों तक भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत रही थी उसी तरह अब भाजपा भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत है और दशकों तक रहेगी।

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चुनाव रणनीतिकार और बिहार में सुराज अभियान चले रहे प्रशांत किशोर ने इसकी एक सैद्धांतिक रूप-रेखा प्रस्तुत की थी, जिसके बाद विपक्षी पार्टियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने उनको भाजपा का आदमी ठहराया था। लेकिन वे अपनी व्याख्या में गलत नहीं हैं।

Tough times for regional parties आजादी के बाद की कांग्रेस की तरह आज भाजपा केंद्रीय ताकत है और देश की राजनीति उस के ईर्द-गिर्द घूम रही है। आने वाले किसी चुनाव में अगर वह हार भी जाती है तो उसका अंत नहीं होने जा रहा है या निकट भविष्य में वह कमजोर नहीं होने जा रही है। वह अगले कई दशक तक केंद्रीय ताकत बनी रहेगी और उसे रिप्लेस करने में समय लगेगा।

Tough times for regional parties इस हकीकत को स्वीकार करते ही यह भी दिखाई देता है कि एक और मामले में इतिहास अपने को दोहरा रहा है। कांग्रेस जब राजनीति की केंद्रीय ताकत थी, तब देश में अनेक राजनीतिक पार्टियां थीं और बड़े वैचारिक आधार वाले मजबूत नेता था। लेकिन कांग्रेस के सामने किसी की हैसियत नहीं थी। पहले दो दशक तक तो कांग्रेस से निकले समाजवादी या स्वतंत्र पार्टी के नेता ही कांग्रेस के समानांतर राजनीति करते रहे थे। बाद में जब कांग्रेस कमजोर होने लगी तब प्रादेशिक पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ।

Tough times for regional parties उस समय भारतीय जनसंघ मुख्यधारा की पार्टी थी, लेकिन उसका आधार बहुत सीमित था। तभी ऐसा लग रहा है कि भाजपा के मजबूत होने के साथ साथ बाकी सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक पार्टियों की ताकत कम हो रही है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि प्रादेशिक पार्टियों के लिए अभी अच्छा समय नहीं चल रहा है।

Tough times for regional parties हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा के अलावा बाकी सभी पार्टियां खत्म हो जाएंगी, जैसा कि बिहार में अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दावा किया था। कांग्रेस के समय भी भारतीय जनसंघ के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों का मजबूत आधार था और समाजवादी व स्वतंत्र पार्टी का भी विस्तार पूरे देश में था।

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बहरहाल, चाहे सुनियोजित योजना के तहत हो या स्वाभाविक राजनीतिक गति की वजह से हो लेकिन कई राज्यों में प्रादेशिक पार्टियां कमजोर हो रही हैं। खास कर उत्तर भारत में यह देखने को मिल रहा है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में किसी जमाने में राज करने वाली बहुजन समाज पार्टी बहुत मुश्किल दौर से गुजर रही है।

विधानसभा में बसपा का सिर्फ एक विधायक जीत सका है। सोचें, जिस पार्टी का राज महज 10 साल पहले खत्म हुआ हो वह पार्टी एक विधायक पर सिमट जाए! कह सकते हैं कि बसपा ने संगठन का लोकतांत्रिक ढांचा नहीं बनाया तो एक नेता के चमत्कार पर आधारित पार्टी का यह हस्र होना ही था।

लेकिन बसपा के कमजोर होने या हाशिए पर जाने के पीछे सिर्फ यहीं एक कारण नहीं है। उसका वोट बैंक हथियाने की भाजपा की राजनीति भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस हकीकत को जानते हुए भी उसने पिछले विधानसभा चुनाव में परोक्ष रूप से भाजपा की मदद की। जाहिर है उसका कारण कुछ और रहा होगा, जिसके बारे में लोगों को पता नहीं है।

क्षेत्रीय पार्टियों के कमजोर होने की व्याख्या इस रूप में भी की जा रही है कि भाजपा के जितने भी सहयोगी थे, उनको भाजपा ने ही कमजोर या खत्म किया है। बिहार में जनता दल यू इसकी मिसाल है। उसके साथ रहते हुए भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान को शह दी और उन्होंने जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतार कर उसे बड़ा नुकसान पहुंचाया।

जदयू के कंधे पर सवार होकर भाजपा नंबर दो पार्टी बन गई और जदयू अपने अस्तित्व की जद्दोजहद में है। लेकिन जदयू ने समय रहते भाजपा की इस योजना को समझा और उससे नाता तोड़ कर समान विचार वाली मंडल राजनीति से निकली पार्टी राजद के साथ फिर तालमेल कर लिया। उधर महाराष्ट्र में शिव सेना का हाल भी जदयू जैसा है। शिव सेना के कंधे पर सवार होकर भाजपा वहां एक नंबर की पार्टी बन गई है और शिव सेना अस्तित्व बचाने केज्

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