Prayagraj : लोकगीतों में क्रांतिकारियों के लिये छिपे संदेश से खौफजदा थी ‘गोरी’ सरकार

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Prayagraj : लोकगीतों में छिपे संदेशों से खौफजदा रहती थी ‘गोरी’ सरकार

Prayagraj : प्रयागराज !   आजादी की लड़ाई के दौरान राष्ट्र चेतना के गीत और लोकगीतों में क्रांतिकारियों के लिये छिपे संदेश से अंग्रेज सरकार इस कदर खौफजदा थी कि उसने लोकगीतों पर प्रतिबंध लगाकर गीतकारों और उसके रचयिता को जेल की काल कोठरी में बंद कर यातना दी थीं। उनकी बर्बरता और जेल की यातनाओं की कहानी एक एक कड़ी जोड़कर नायिकाओं ने कजरी के रूप में पिरोया।

उस दौरान किसी को भी खुलेआम अपनी अभिव्यक्ति करने का अधिकार नही था। तब नायक और नायिकाओं ने तीज: त्यौहारों और विशेष कार्यक्रमों में गीत, लोकगीत कजरी, आल्हा, और ठुमरी के माध्यम को अंग्रेजो के जुल्मों की दास्तां का विरोध करने का जरिया बनाया। नायिकाओ ने काला पानी की सजा पाए रणबांकुरों पर ढहाए जा रहे जुल्मो की कहानी को लोकगीतों की रानी कजरी के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया।

स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों के खिलाफ देश संगठित हो एक स्वर में उठ खड़ा हुआ। इस संग्राम के नायक-नायिकाओं की वीर गाथा लोकगीतों के माध्यम से फूट पड़ी। उनके रचे आल्हा, बिरहा, कजरी आदि गीत के रंग में उतरकर प्रतिबंध के बावजूद समाज में चहुंओर फैल गए। आज की पीढ़ी के लिए कल्पना भी कठिन है कि श्रेष्ठता ग्रंथि के अहंकार से भरी ब्रितानी सरकार ने उनके पूर्वजों पर कैसे-कैसे जुल्म ढ़ाए। ऐसे में कुछ लोकगीतों को सुनकर यह सहज ही समझा जा सकता है कि अंग्रेजों के अत्याचारों की क्या रवानगी रही होगी। लोकगीतों में यह पीड़ा और क्षोभ परिलक्षित होता है।

व्यंजना आर्ट एण्ड कल्चर सोसायटी की संस्थापक और प्रयागराज की नामचीन कजरी गायिका डॉ मधु शुक्ला ने “यूनीवार्ता” से बताया कि स्वतंत्रता आंदोलन में कजरी ने लोक चेतना का अलख जगाया। अनेक कजरियों में बलिदानियों को नमन और महात्मा गाँधी के सिद्धांतों को रेखांकित किया गया। ऐसी ही एक कजरी “चरखा कातो, मानो गाँधी जी की बतियाँ, विपतिया कटि जइहें ननदी”। कुछ कजरियों के माध्यम से अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों पर प्रहार भी किया गया। “कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी”। इन पंक्तियों में काले बादलों का घिरना, गुलामी के प्रतीक को चित्रित किया गया है। “केतनो लाठी गोली खइलें, केतनो डामन (अण्डमान का अपभ्रंस) फाँसी चढ़िले, केतनों पीसत होइहें जेहल (जेल) में चकरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी”।

डा शुक्ला ने बताया कि उस दौरान लोगों को अपनी बातों को प्रत्यक्ष रूप से कहने की आजादी नहीं होती थी। लिहाजा अपनी बातों को गीतों के जरिये एक दूसरे तक पहुंचाने का यह एक सशक्त माध्यम भी था। महिलाओं ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार को भी कजरी में पिरोया “हमका मंगाईदा राजा खद्दर की चुनरियाँ बिदेसी जिन ले आया बालमा ।“

उन्होंने बताया कि उनकी संस्था अब तक आठ अन्तर्राष्ट्रीय और तीन राष्ट्रीय स्तर पर कान्फ्रेंस करा चुकी है। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति को बढ़ावा देने वाली सोसायटी “स्पिक मैके” की उत्तर प्रदेश की कोआर्डिनेटर भी हैं।

व्यंजना संस्था की संस्थापक ने बताया कि भारतीय परंपरा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। स्वतंत्रता संग्राम में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस महासंग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को दुश्मन का मुकाबला करने और घर में बैठे ऐसे नौजवानों को कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए जगाने का काम भी किया।“लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु,मरद से बनिके लुगइया आए हरि, पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु, राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।”

उन्होंने बताया दमन और अत्याचार के बाद भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ। पराधीनता के इस कठिन समय में हमारी लोकचेतना ने राष्ट्र की अस्मिता को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाई। हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकार हमारी संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रतीकों का गुणगान व लोकचित्त में बसे चरित्रों का गाथागायन कर जनजागरण का दायित्व संभाला, वह प्रणम्य है।

उन्होंने कजरी की उत्पत्ति के बारे में बताया कि इसका कहीं लिखित प्रमाणिक प्रमाण नहीं मिलता। परंतु यह निश्चित है कि मानव को जब स्वर एवं शब्द मिले और लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच है। प्राचीन काल से मिर्जापुर जिले का विंध्यवासिनी धाम शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा विंध्यवासिनी का ही गुणगान मिलता है।

डा शुक्ला ने बताया कि उस दौरान लोगों को अपनी बातों को प्रत्यक्ष रूप से कहने की आजादी नहीं होती थी। लिहाजा अपनी बातों को गीतों के जरिये एक दूसरे तक पहुंचाने का यह एक सशक्त माध्यम भी था। महिलाओं ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार को भी कजरी में पिरोया “हमका मंगाईदा राजा खद्दर की चुनरियाँ बिदेसी जिन ले आया बालमा ।“

उन्होंने बताया कि उनकी संस्था अब तक आठ अन्तर्राष्ट्रीय और तीन राष्ट्रीय स्तर पर कान्फ्रेंस करा चुकी है। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति को बढ़ावा देने वाली सोसायटी “स्पिक मैके” की उत्तर प्रदेश की कोआर्डिनेटर भी हैं।

व्यंजना संस्था की संस्थापक ने बताया कि भारतीय परंपरा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। स्वतंत्रता संग्राम में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस महासंग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को दुश्मन का मुकाबला करने और घर में बैठे ऐसे नौजवानों को कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए जगाने का काम भी किया।“लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु,मरद से बनिके लुगइया आए हरि, पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु, राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।”

उन्होंने बताया दमन और अत्याचार के बाद भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ। पराधीनता के इस कठिन समय में हमारी लोकचेतना ने राष्ट्र की अस्मिता को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाई। हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकार हमारी संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रतीकों का गुणगान व लोकचित्त में बसे चरित्रों का गाथागायन कर जनजागरण का दायित्व संभाला, वह प्रणम्य है।

उन्होंने कजरी की उत्पत्ति के बारे में बताया कि इसका कहीं लिखित प्रमाणिक प्रमाण नहीं मिलता। परंतु यह निश्चित है कि मानव को जब स्वर एवं शब्द मिले और लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच है। प्राचीन काल से मिर्जापुर जिले का विंध्यवासिनी धाम शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है। अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा विंध्यवासिनी का ही गुणगान मिलता है।

डा शुक्ला ने बताया कि कजरी और सावन एक दूसरे के पर्याय माने गए हैं। लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है कजरी इसका उदाहरण है। हिंदी कवि अमीर खुसरो,भारत में मुगल साम्राज्य का आखिरी शहंशाह और उर्दू के नामचीन शायर बहादुरशाह जफर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मोहम्मद ‘शाद’, हिन्दी के कवि अम्बिका दत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरी नारायण उपाध्याय ‘प्रेमधन’ आदि भी कजरी के आकर्षण से मुक्त नहीं रह सके। भारतेंदु हरिशचन्द्र ने भी कजरियों की रचनाकर लोकविधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया। भारत रत्न सम्मान से अलंकृत उस्ताद विसमिल्ला खान की शहनाई पर तो कजरी के बोल बेमिसाल हो जाती थी।

कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गाई जाती हों, पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना का अलख जगाने का भी काम किया है। कजरी केवल श्रृंगार और विरह के लोकगीतों तक ही सीमित नहीं है इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की गूंज भी सुनाई देती है। सावन के गीत और झूले इतिहास बनकर हमारी समृद्ध परंपरा से लुप्त होते जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि कजरी में श्रृंगार रस की प्रधानता के साथ करूण रस का भी मिश्रण होता है। रागों के मिश्रण की शैली भी है।

उन्होंने बताया कि समृद्धशाली कजरी गायन शैली को क्षेत्रीयता की सीमा से निकालकर राष्ट्रीयता का दर्जा दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले उप-शास्त्रीय और शास्त्रीय गायक और गायिकाओं के टूटते आर्थिक तानेबने के कारण समृद्धशाली लोकगीतों की ‘रानी कजरी’ लुप्तप्राय सी हो गयी है। आज इस कला के कद्रदान ढूंढ़ने से नहीं मिलते है पहले रात रात भर कजरी के दंगल होते थे एक से बढ़कर एक कजरी गाई जाती थी कलाकार कजरी की तुरंत रचना करके प्रस्तुति दंगल लड़ते पर आज ये परंपरा देखने को ही नहीं मिलती शहर क्या गावों में भी इस प्रकार के कजरी दंगल नहीं होते ।नयी पीढ़ी इस विधा को रूढिवादिता की संज्ञा देकर इसका तिरस्कार कर रही है, वहीं पाश्चात्य शैली की चादर ओढ़कर अपनी संस्कृति और संस्कार से दूर होती जा रही है।

 

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Prayagraj :  डा शुक्ला ने बताया कि भारत गांवों का देश है और ग्रामीण जीवन का प्राण लोक संगीत में बसता है। लोकगीत ग्रामीणांचलो में महज मनोरंजन का साधन नहीं अपितु उनकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। एक समृद्ध परंपरा होने के बाद भी सरकार एवं श्रोताओं की उपेक्षा से क्षेत्रीय कलाकारों के बीच दर्द का माहौल बन गया है। लोक संगीत और लोक साहित्य आहिस्ता आहिस्ता लोक जीवन से पीछे छूटता जा रहा है। आज न/न गायक रह गए और नहीं उनके कद्रदान। आधुनिकता ने उसको भी निगल लिया। अब न पेड़ो पर पडने वाले झूले रहे और न/न साथ झूलने और गाने वाली सहेलियां, अब सावन सूना-सूना सा लगता है।