no opinion on hijab हिजाब पर एक मत नहीं

no opinion on hijab

अजय दीक्षित

no opinion on hijab हिजाब पर एक मत नहीं

opinion on hijab हमारा एक ही देश है । एक संविधान है । सभी के लिए एक ही कानून है । अदालत की व्यवस्था भी समान है, लेकिन दो सुप्रीम न्यायाधीशों के एक ही विषय पर फैसला अलग बंटे हुए हैं । यह हैरानी की बात नहीं है, न्यायिक अनिश्चितता की स्थिति है ।

opinion on hijab  न्यायाधीशों की बंटी राय के आधार कानून की अलग-अलग व्याख्या न्यायाधीशों के विवेक और विशेषाधिकार हो सकते हैं । इसी बहस के दौरान मुद्दा सामने आया कि अदालतों को धार्मिक गुत्थियों की व्याख्या नहीं करनी चाहिए। अदालतों को धर्मनिरपेक्ष करार दिया गया है, लिहाजा के धर्म के किसी एक पक्ष पर अपना अभिमत नहीं दे सकतीं ।

opinion on hijab अयोध्या विवाद के दौरान भी यह मुद्दा उभरा था । यदि किसी जगह संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन किया जाता है, तो अदालत का हस्तक्षेप स्वाभाविक है । आखिर यह कौन तय करेगा कि अमुक धार्मिक मुद्दे पर अदालत मामले की सुनवाई से ही इंकार कर दे अथवा मामले की न्यायिक समीक्षा की जाए ? सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने राम मन्दिर पर भी फैसला सुनाया था और तीन तलाक पर भी न्यायिक व्याख्या की थी ।

opinion on hijab दोनों पर कानूनन फैसले दिये जा चुके हैं, जो लागू भी हैं । अब हिजाब का मुद्दा किन धार्मिक मूल्यों और रीति-रिवाजों का उल्लंघन कर रहा है, जो यह बहस उभरी है कि अदालतें धार्मिक विषयों की सुनवाई और व्याख्यान करें । धार्मिक विवादों की सुनवाई किन अदालतों में होगी ? आखिर विवादों का निपटारा तो कानूनन ही करना पड़ेगा, तो कानून की सम्यक व्याख्या कौन करेगा ? मुस्लिम सांसद, नेता, मौलाना मुफ्ती ऐसे भी हैं, जिन्होंने कहा है कि हिजाब सरीखे मज़हबी और इस्लामी मामलों में अदालतें हस्तक्षेप न करें । उनके लिए कुरान और पैगम्बर के फरमान अन्तिम हैं और वे उन्हीं का पालन करेंगे ।

opinion on hijab सवाल यह भी है कि क्या ऐसे मामलों की सुनवाई सरिया अदालतें करेंगी ? क्या उन्हें भी संवैधानिक वैधता दी जायेगी ? बहरहाल कुरान में लिवास और हिजाब को लेकर कोई फरमान नहीं है । सिर्फ गरिमा का उल्लेख किया गया है, जो औरतों और मर्दों दोनों पर लागू होता है । ऐसा केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खां सरीखे इस्लामी स्कॉलर समेत कई मुस्लिम विद्वानों ने कहा है । हम तो कुरान और इस्लाम के अध्येता भी नहीं हैं, लिहाजा हमारा कथन अतिक्रमण होगा अब सांसद ओवैसी या सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने कुरान और इस्लाम की जो व्याख्याएं दी हैं, उन्हें ब्रह्म वाक्य नहीं माना जा सकता । ये किन आयतों के उद्धरण दे रहे हैं या गैर-हिजाब वाली रवायत को आवारगी करार दे रहे हैं, उन पर भी ढेरों असहमतियां हैं । कर्नाटक के सन्दर्भ में ही छात्राओं और महिलाओं का एक तबका हिजाब को कुरान का हुक्म मानता है, जबकि दूसरा तबका बुर्के, हिजाब, चादर आदि परम्परागत मज़हबी परिधानों के धुर खिलाफ है । ईरान एक इस्लामी देश है और वहां बुर्का या हिजाब पहनना कानूनन एक व्यवस्था है ।

opinion on hijab उल्लंघन करने वाले को जेल में डालना तय है । फिर भी वहां व्यापक तौर पर हिजाब के प्रति जन विद्रोह भडक़ उठा है । पुलिस की गोलीबारी में 210 से ज्यादा औरतें और अन्य लोग मारे जा चुके हैं और 2000 से अधिक आन्दोलनकारी जेलों में हैं । बहरहाल हिजाब पर कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जिस पाबंदी को उचित माना था, उसके पक्षधर जस्टिस हेमंत गुप्ता हैं, जबकि जस्टिस सुधांशु धूलिया ने उस फैसले को रद्द करने का फैसला दिया है ।

opinion on hijab दोनों न्यायाधीशों ने संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए), 21 और 25 के तहत अपने अपने न्यायिक विवेक की व्याख्या की है । उस पर कोई सवाल नहीं, क्योंकि अब तीन न्यायाधीशों की नई पीठ इस मामले को सुनेगी और यह तय है कि कोई निश्चित फैसला सामने आयेगा । आशंकाएं कि जेहादी, कट्टरपंथी तत्व ऐसे धार्मिक मुद्दे सुनने वाले न्यायाधीशों को ही मारने की धमकियां सकते हैं । सरकार उन्हें किसी भी स्तर की सुरक्षा मुहैया करा सकती है । सवाल है कि क न्यायाधीश ऐसी स्थिति में विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों की सुनवाई करेंगे ? सुनवाई अलग होने के प्रश्न पर भी विचार होना चाहिए ?

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