Metro-अनुराग बसु की ‘मेट्रो इन दिनों’ : बदलते पारिवारिक मूल्यों और रिश्तों की संगीतमयी दास्तान

अनुराग बसु की 'मेट्रो इन दिनों' : बदलते पारिवारिक मूल्यों और रिश्तों की संगीतमयी दास्तान

-सुभाष मिश्र

अनुराग बसु की हालिया फिल्म मेट्रो इन दिनों न केवल रिश्तों की उलझनों को उजागर करती है, बल्कि बदलते भारतीय समाज और पारिवारिक मूल्यों का आईना भी है। 18 साल पहले आई लाइफ इन ए मेट्रो और अब 2025 की यह फिल्म दोनों ही महानगरीय जीवन की विसंगतियों, भावनाओं और रिश्तों की पेचीदगियों को केंद्र में रखती हैं।

दरअसल हम अनुराग बसु की ‘मेट्रों इन दिनों’ के बहाने नये बदलते समाज और पारिवारिक रिश्तों की बात करना चाहतें हैं। 18 साल पहले आई अनुराग बसु की फिल्म लाइफ इन मेट्रो से 18 साल में मेट्रों इन दिनों तक क्या कुछ बदला है इस नजरिए से भी इस फिल्म को देखा जाना चाहिए। यह बदलते भारतीय समाज की वो सच्चाई है जो घर की चार दीवारी, बेडरूम या कहे लाल कारपेट के नीचे दबी हुई है, जिसे उजागर करने और होने से समाज परिवार डरता है।

पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश और अबके छतीसगढ़ से यूं तो बहुत से नामचीन कलाकारों का रिश्ता नाता है। छत्तीसगढ़ से हबीब तनवीर, किशोर साहू, सत्यदेव दुबे, शंकर शेष, जयंत देशमुख, अशोक मिश्रा जैसे नाम है। जिन्होने सिनेमा और नाटक के जरिए मुम्बई के सिने जगत में अपना और छतीसगढ़ का नाम रौशन किया। इसी कड़ी में रंगकर्मी सुब्रतो बसु और उनकी रंगकर्मी पत्नी दीपशिखा बसु भी भिलाई से मुंबई जाते हैं और वहां टीवी सीरियल के जरिए अपनी पहचान बनाने संघर्ष करते हैं। उनके साथ उनके बेटे अनुराग बसु मुंबई जाते हैं और मुंबई विश्विद्यालय से स्नातक करके एफटीआईआई पुणे में सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई करते है। फिर 1995 में टेलीविजन धारावाहिक तारा, कोशिश, एक आशा जैसे धारावाहिक का निर्देशन करके अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। 2003 से कुछ तो है फिल्म के जरिए उन्होंने फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखता है। मर्डर, गैंगस्टर, बर्फी, लुडो और लाइफ इन ए मेट्रो जैसी सफल फिल्मों से अपनी खास पहचान बनाई।

लाइफ इन ए मेट्रो बनाम मेट्रो इन दिनों: रिश्तों की नई परतें

2007 की लाइफ इन ए मेट्रो और 2025 की मेट्रो इन दिनों दोनों एंथोलॉजी शैली में बनी फिल्में हैं। पहली फिल्म जहां एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स, करियर प्रेशर और शादी की पवित्रता को लेकर गंभीर थी, वहीं मेट्रो इन दिनों हल्के-फुल्के लेकिन भावनात्मक ढंग से ब्रेकअप, अकेलापन, माफ़ी, आत्म-मूल्य और मध्य आयु की उलझनों की बात करती है। पहली फिल्म में शहरी भागदौड़ और रिश्तों की टूटन थी, जबकि नई फिल्म में सोशल मीडिया, ओवरइन्फॉर्मेशन और नई पीढ़ी के कन्फ्यूजन की बात है। अब रिश्ते फ्लुइड हैं, पुरुष ज्यादा इमोशनल हैं और महिलाएं नैरेटिव को आगे ले जा रही हैं।

फिल्म की कहानी और पात्र

फिल्म की मुख्य कहानी शिवानी (नीना गुप्ता) और संजीव (शाश्वत चटर्जी) की दो बेटियों के इर्द-गिर्द घूमती है। बड़ी बेटी काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) और उसके पति मांटी (पंकज त्रिपाठी) के 19 साल पुराने रिश्ते में उपरी तौर पर सब सही दिखता है, पर अंदर ही अंदर दरारें हैं। दूसरी ओर चुमकी (सारा अली खान), एक एचआर प्रोफेशनल है जो अपने बास के दुर्व्यवहार और अपने प्रेम जीवन के द्वंद्व में उलझी है। ट्रैवल ब्लॉगर पार्थ (आदित्य रॉय कपूर), उसका दोस्त आकाश (अली फजल) और श्रुति (फातिमा सना शेख) की प्रेमकहानी भावनात्मक उलझनों को सामने लाती है। नीना गुप्ता और अनुपम खेर का परिपक्व प्रेम और कॉलेज रीयूनियन में पुराने रिश्तों की पुनर्खोज फिल्म में गहराई लाती है। प्रीतम के संगीत के साथ फिल्म की कहानी हर मोड़ पर एक नए स्वर देती है, जिसे गायक-कलाकार चौक-चौराहों पर लाइव प्रस्तुत करते हैं।

कलाकारों का प्रदर्शन और निर्देशन

पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की केमिस्ट्री विश्वसनीय है। अली फजल और फातिमा सना शेख का अभिनय सहज है। नीना गुप्ता और अनुपम खेर दिल छूते हैं, वहीं सारा अली खान अपने किरदार में सीमित प्रभाव छोड़ती हैं। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी (अनुराग और अभिषेक बसु द्वारा) भी उल्लेखनीय है।

संगीत और शायरी का प्रयोग

अनुराग बसु और संगीतकार प्रीतम की जोड़ी ने इस बार गज़़ल को मॉडर्न तरीके से पेश किया है। कैसर-उल-जाफऱी और ग़ालिब के शेरों को नए अंदाज़ में गूँथा गया है। संगीत फिल्म की आत्मा बन जाता है, जो दृश्य बदलने पर कहानी के साथ बहता है।

समाज और रिश्तों की बदलती तस्वीर

18 साल में समाज में रिश्तों की परिभाषा बदली है। अब परिवार खून से नहीं, भावनाओं से बनते हैं। शादी, तलाक, रीमैरेज, सिंगल पेरेंटिंग और सेल्फ-वर्थ जैसे मुद्दों को फिल्म में खूबसूरती से पिरोया गया है। मेट्रो इन दिनों दिखाती है कि शहर के कोलाहल में भी रिश्ते पनप सकते हैं, यदि माफ़ी, समझ और संवाद को जगह दी जाए। यह फिल्म सिनेमाघरों के बाद नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध होगी और अनुराग बसु की सिग्नेचर स्टाइल—यानी रिश्तों की जटिलता, संगीत की आत्मीयता और शहर की हलचल को फिर से स्थापित करती है।

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