Mahavir Jayanti महावीर जयंती विशेष : अहिंसा परमो धर्म:

Mahavir Jayanti

Mahavir Jayanti महावीर जयंती विशेष

Mahavir Jayanti सर्वप्रथम आप सभी को सम्पूर्ण विश्व को अहिंसा, शांति एवं विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाले भगवान महावीर जी के जंयती पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।

मानव-कल्याण और सभ्य समाज के निर्माण के लिए उनके जीवन से त्याग, तप, अहिंसा व करुणा की अथाह प्रेरणा मिलती है। उनकी दिव्य शिक्षाएं सदैव प्रासंगिक बनी रहेंगी।

महावीर के जीवन में बड़ा मीठा प्रसंग है। वे संन्यस्त होना चाहते थे। उनकी मां ने कहा कि मेरे जीते नहीं। वे चुप हो गए। बात ही छोड़ दी संन्यास की। जैसे कोई आग्रह ही न था संन्यास का।

आग्रह तो अहंकार का होता है। संन्यास का भी क्या आग्रह! छोड़ने का भी क्या आग्रह! पकड़ने के आग्रह से जब छूट गए, तो छोड़ने का आग्रह भी छोड़ देना चाहिए। अगर कोई दूसरा होता, तो जिद पकड़ जाता। मां जितना रोकती, उतनी जिद बढ़ती। घर के लोग जितने परेशान होते, उतनी ही अकड़ आती कि मैं तो संन्यासी होकर रहूंगा।

Mahavir Jayanti  दुनिया में सौ में से निन्यानबे संन्यासी, दूसरों की वजह से हो जाते हैं, रोकने वालों की वजह से। क्योंकि जब भी कोई रोकता है, तब बड़ा अहंकार को मजा आता है कि हम कोई महान कार्य करने जा रहे हैं।

लेकिन महावीर चुप ही हो गए। मां भी शायद सोची होगी कि यह भी कैसा संन्यास! एक बार कहा नहीं, कि चुप हो गया! सभी माताएं कहती हैं। यह कोई नई बात थी कि महावीर की मां ने कहा कि मत लो संन्यास मेरे जीते—जी। मैं मर जाऊंगी। ऐसा सभी माताएं कहती हैं। कोई मां मरी है कभी किसी के संन्यास लेने से! यह तो मा—बाप के कहने के ढंग हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। मां भी थोड़ी चिंतित हुई होगी कि यह भी संन्यास कैसा संन्यास था!

फिर मां मरी। मरघट से लौटते थे। रास्ते में अपने बड़े भाई को कहा कि अब तो ले सकता हूं? रास्ते ही में! अभी विदा ही करके लौटते थे। बड़े भाई ने कहा, यह भी कोई बात हुई? इधर मां मर गई है, इधर हम परेशान हो रहे हैं और तुम्हें संन्यास की पडी है! एक दुख काफी है, अब तुम और यह दुख मेरे ऊपर मत लाओ। चुप रहो, यह बात ही मत उठाना

अब जब बड़े भाई ने कहा, चुप रहो, तो वे चुप हो गए। हमें भी लगेगा, यह भी कैसा संन्यासी है। यह तो होगा ही नहीं कभी, ऐसा अगर चला तो। क्योंकि कोई न कोई मिल ही जाएगा। बड़ा घर रहा होगा, बड़ा परिवार था। राज—परिवार था, संबंधी रहे होंगे। ऐसे अगर हर एक के कहने से रुके, तब तो जन्म—जन्म बीत जाएं, महावीर का संन्यास होने वाला नहीं। भाई ने भी सोचा होगा कि यह भी कैसा संन्यास है! एक दफा कहो नहीं कि यह चुप हो जाता है। यह जैसे रास्ते ही देखता है कि तुम रोक दो बस, हम रुक जाएं! मगर नहीं, बात कुछ और थी। महावीर आग्रही नहीं थे। संन्यास का भी क्या आग्रह करना! छोड़ने का भी क्या आग्रह करना! नहीं तो वह पकड़ने जैसा ही हो गया। संन्यास को भी क्या पकड़ना ! जब संसार ही छोड़ दिया, तो संन्यास को क्या पकड़ना ! तो वह ठीक। लेकिन धीरे—धीरे घर के लोगों को लगा कि वे घर में हैं ही नहीं। रहते घर में हैं। भोजन करते, उठते—बैठते, लेकिन ऐसे शून्यवत हो रहे कि उनके होने का किसी को पता ही न चलता।

Mahavir Jayanti  आखिर भाई और घर के लोग मिले। उन्होंने कहा, अब इसे रोकना व्यर्थ है। यह तो जा ही चुका। सिर्फ शरीर है घर में। शरीर को भी रोकने के लिए हम क्यों पापी बनें ! नहीं तो कहने को होगा कि हमारी वजह से यह संन्यस्त न हुआ। और यह हो ही गया। यह यहां है नहीं। इसकी मौजूदगी यहां मालूम नहीं पड़ती। किसी को पता ही नहीं चलता महीनों, दिन बीत जाते हैं कि महावीर कहा है ! वह अपने में ही समाया है।

 

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तो घर के लोगों ने ही हाथ जोड़कर कहा कि अब तुम जा ही चुके हो, तो अब तुम हमको नाहक अपराधी मत बनाओ। अब तुम जाओ ही। अब तुम यहां हो ही नहीं, अब रोकें हम किसको ! रोकना किसको है ! जब उन्होंने ऐसा कहा, तो महावीर उठकर चल दिए।

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