Jandhara Multi Media Group : जनधारा मल्टी मिडिया ग्रुप के प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से : जाति जनगणना मजबूरी या जरूरत !

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Jandhara Multi Media Group : जनधारा मल्टी मिडिया ग्रुप के प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से : जाति जनगणना मजबूरी या जरूरत !

 

 

Jandhara Multi Media Group सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को बिहार सरकार को जाति-आधारित सर्वेक्षण के नतीजे प्रकाशित करने से रोकने के लिए अंतरिम निर्देश पारित करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने कहा, “जब तक प्रथम दृष्टया कोई मजबूत मामला न हो, हम किसी भी चीज़ पर रोक नहीं लगाएंगे।” उन्होंने उन याचिकाकर्ताओं को धन्यवाद दिया, जिन्होंने बिहार में जाति-आधारित सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज करने के पटना उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की थी। इससे पहले पटना हाई कोर्ट ने मंगलवार को बिहार में जाति आधारित गणना एवं आर्थिक सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली आधा दर्जन याचिकाओं को खारिज कर दिया था। आधिकारिक तौर पर यह जानकारी दी गयी कि जाति आधारित गणना का 80 फीसद काम पूरा हो गया है।

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया. आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया. तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं.

साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.

मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका. इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए.

चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए. आख़िरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राज़ी होना पड़ा.
2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए.

इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई. लेकिन इसमें हासिल किए गए आंकड़े भी कभी सार्वजानिक नहीं किए गए.

जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है.

इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि ‘साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं. इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे ग़लतियों से भरे और अनुपयोगी थे.’

केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी.

जातिगत जनगणना के पक्ष में बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि इस तरह की जनगणना करवाने से जो आंकड़े मिलेंगे उन्हें आधार बना कर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समाज के उन तबक़ों तक पहुँचाया जा सकेगा, जिन्हें उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.

अगस्त 2018 में केंद्र सरकार ने 2021 में की जाने वाली जनगणना की तैयारियों का विवरण देते हुए कहा था, कि इस जनगणना में “पहली बार ओबीसी पर डेटा एकत्र करने की भी परिकल्पना की गई है”. लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने इस बात से किनारा कर लिया. दरअसल केंद्र में जब भी कोई सरकार आती है, तो वो अपना हाथ खींच लेती है. और जब वो विपक्ष में होती है तो वो जातिगत जनगणना के पक्ष में बोलती है. ऐसा बीजेपी के साथ भी हुआ और कांग्रेस के साथ भी हुआ.”

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Jandhara Multi Media Group  एक तरफ जातिगत जनगणना की बात और उस पर बहस हो रही है जबकि देश में हर दशक में होने वाली जनगणना 2021 में होनी थी लेकिन अभी तक नहीं हुई अब कब होगी इसका जवाब फिलहाल कोई नहीं दे पा रहा है. जबकि इन्हीं आंकड़ों की बदौलत ही सरकार राज्य को बजट आवंटित करती है. स्कूल बनाने से लेकर निर्वाचन क्षेत्र की सीमा को निर्धारित करने में इन आंकड़ों की भूमिका अहम होती है. लेकिन पहली बार ऐसा है कि हर दशक में होने वाली जगणना में देरी हो रही है, जो जनगणना 2021 में होने वाली थी, वह अभी तक नहीं हुई है और कब होगी, इसको लेकर भी स्पष्टता नहीं है.

जातिगत जनगणना की बात आते ही अक्सर बहुत सी चिंताएं और सवाल भी उठे खड़े होते हैं. इनमें से एक बड़ी चिंता ये है कि जातिगत जनगणना से जो आंकड़े मिलेंगे उनके आधार पर देश भर में आरक्षण की नई मांगें उठनी शुरू हो जाएँगी. बड़ा सवाल ये है कि क्या भारत जैसे विभिन्नता वाले देश में इस तरह की जनगणना की आवश्यकता है या इसी विभिन्नता के कारण इसकी ज्यादा आवश्यकता नहीं है ये समझना होगा, एक तरफ जाति की अवधारणा को लगातार कम करने की भी कोशिश हो रही है. ऐसे में क्या इस तरह की जनगणना समाज को और कई भागों में तो नहीं बांट देगी इस सवाल का जवाब भी ढूंढना होगा.

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