-सुभाष मिश्र
इस साल विम्बलडन का रोमांचक फाइनल जीतते ही स्पेन के युवा टेनिस खिलाड़ी अल्कराज की गिनती दुनिया के महानतम खिलाडिय़ों के साथ होने लगी। टेनिस इतिहास के सबसे सफलतम खिलाड़ी फेडरर, नडाल, जोकोविक के साथ उनकी तुलना होने लगी। दुनिया भर के टेनिस एक्सपर्ट ने इसके बाद बयान जारी किए, कई लेख इस पर लिखे गए। कुछ तो यहां तक कहने से बाज नहीं आए कि इन तीन प्लेयर्स की ही लगातार जीत से बतौर एक दर्शक ये खेल बोरिंग लगने लगा था। अल्कराज पर इन दिग्गजों के स्वर्णिम युग से बाहर लाकर इस खेल को नई ऊंचाई पर ले जाने का भारी भरकम दबाव बन गया। इसका साफ असर यूएस ओपन और कनाडा ओपन में दिखा। यूएस ओपन में अल्कराज अपने खिताब की रक्षा के लिए फाइनल तक का सफर भी तय नहीं कर पाए, जबकि मीडिया ने शुरू से ही जोकोविक और उनके बीच फाइनल की बात चल रही थी। हम अभी भी मानते हैं कि अल्कराज आगे भी कई ग्रैंडस्लैम और टूर्नामेंट जीतेंगे, लेकिन जिस तरह इस उभरती प्रतिभा से अतिरेक उम्मीद लगाई गई उससे कहीं न कहीं असर खेल पर पड़ता है। खासतौर पर जब खिलाड़ी या किसी भी फिल्ड का व्यक्ति नया हो। अगर फेडरर और नडाल को भी एक या दो साल में ही सेम्प्रास और अगासी के बराबर मान लिया जाता, तो शायद उन पर भी इसी तरह का दबाव बन जाता। खैर इस तरह की तुलना औऱ अतिरेक उम्मीदों का दबाव टेनिस में ही नहीं क्रिकेट, फुटबॉल समेत तमाम खेलों में देखने को मिलता है। कई बार इस दबाव में प्रतिभाओं को बिखरते भी देखा गया है। खेल ही नहीं इसी तरह का दबाव फिल्म, पढ़ाई-लिखाई से लेकर आम घरों में भी देखने को मिलता है। एक नए शख्स और बेहद सफल दूसरे शख्स के बीच शुरुआती दौर में होने वाली तुलना कई बार बुस्टर का काम करता है, लेकिन अक्सर इससे कई बार व्यक्ति दबाव में भी आ जाता है। सामाजिक उम्मीद के साथ ही अपनों की अतिरेक उम्मीद कई बार घातक साबित होती है। इसे आप आज के दौर में करियर बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चों पर भी देख सकते हैं।
देश के बड़े कोचिंग हब कोटा में इस साल 23 बच्चों ने मौत को गले लगा लिया है। ये बच्चे डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना लिए यहां आए थे, लेकिन वो यहां की पढ़ाई से खुद को असहज महसूस करने लगे उन्हें लगने लगा कि वो इसमें सफल नहीं हो पाएँगे। कहीं न कहीं ये दबाव उन्हें इस तरह के आत्मघाती कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। कई बार माता-पिता महंगी कोचिंग में एडमिशन दिलाकर बच्चों से अच्छे नतीजे की उम्मीद पाल लेते हैं, जबकि होना ये चाहिए कि इस दौरान बच्चों की मनोस्थिति पर लगातार नजर होनी चाहिए।
आजकल माता-पिता अपने बच्चों को लेकर बहुत अत्यधिक महत्वाकांक्षी हो गये हैं, बात पढ़ाई की हो या कैरियर निर्माण की, पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन के लिए माता-पिता बच्चों पर असामान्य रूप से दबाब डालते हैं। बच्चों में ऑल राउंडर गुणों की अपेक्षा करते हैं। विद्यालय में 5 से 12 वर्ष के बच्चों में भारी स्कूल बैग का चलन दिख रहा है। कम उम्र से ही माता पिता बच्चों को बोझिल कर रहे हैं। आजकल माता पिता प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में अपने बच्चों पर बाल्यावस्था से ही भिन्न-भिन्न रूपों में दबाब बनाते दिख रहे हैं।
भारत में समाजीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा समय के साथ प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है। कैरियर व परिणाम को तरजीह दी जाने लगी है। बच्चों की योग्यता का मूल्यांकन शिक्षा पद्धति से की जा रही है। आज पढ़ाई में लोगों का जुनून सवार दिख रहा है। छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन, शीर्ष स्थान पाने के लिये दबाब रहता है, कई बार यह दबाब परिवार, भाई-बहन, समाज के कारण होता है। भारत में 15 से 29 वर्ष की उम्र के किशोरों व युवा वयस्कों के बीच आत्महत्या की दर सर्वाधिक है। परीक्षा में विफलता देश में होने वाली आत्महत्यों के शीर्ष 10 कारणों में से एक है जबकि पारिवारिक समस्या शीर्ष 3 में है। शहरी इलाकों में अमीर व पढ़े लिखे परिवारों के युवा वयस्कों में आत्महत्या करने की प्रवृति अधिक होती है। हमें इस बात को समझना होगा कि हर बच्चे की अपनी खासियत और कमजोरी होती है, वो मशीन नहीं है जो हर बार एक जैसा प्रदर्शन करें। हमें अपनी उम्मीदों का अतिरिक्त दबाव उन पर डालना बंद करना होगा नहीं तो ये फूल खिलने से पहले ही बिखर जाएंगे।