प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से – चुनावी रेवड़ी से लोकतंत्र को खतरा

Electoral Revdi threatens democracy

प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से – चुनावी रेवड़ी से लोकतंत्र को खतरा

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Electoral Revdi threatens democracy

– सुभाष मिश्र

देश में नेताओं के वादों को लेकर कई बार माजाक बनते रहे हैं। माना जाता है हमारे देश में राजनेता वाहवाही के लिए कई ऐसे वादे कर देते हैं जिन्हें पूरा कर पाना न तो उनके बस में होता और न ही इसके लिए उनमें कोई इच्छा शक्ति होती।
हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। अगर लोग अपने मताधिकार को मुर्गे औऱ शराब के नाम पर नीलाम करेंगे, तो फिर देश का किस तरह भला होगा अंदाजा लगाया जा सकता है। हाल ही में निर्वाचन आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को चि_ी लिखकर चुनावी घोषणा पत्रों को ज्यादा तार्किक, व्यवहारिक और धरातल पर जनता के ज्यादा करीब लाने के लिए कहा है। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को सभी वादों को डिटेल में बताने का प्रस्ताव दिया। आयोग ने सभी दलों से 19 अक्टूबर तक अपनी राय भेजने के लिए कहा है।

कुछ समय पहले तक छत्तीसगढ़ के एक बड़े नेता खुलकर सभाओं से कहते थे कि अगर कोई नेता शराब बांटने आए तो ले लेना लेकिन वोट हमें देना। चुनावों में इससे शराब की कितनी भूमिका है समझा जा सकता है। इसी तरह कोरबा में चुनाव के वक्त वोटर्स को रिझाने के लिए चिकन खिलाने का इंतजाम कुछ नेताओं ने किया था। बाद में जब विकास कार्य नहीं हुए, सड़कें बदहाल हो गई तो कुछ जागरुक लोगों ने अनोखे अंदाज में विरोध प्रदरिशन करते हुए एक गाना बनाया था जो बहुत वायरल भी हुआ था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल जुलाई में रेवड़ी संस्कृति या कथित मुफ्त उपहारों को देश के विकास के लिए खतरनाक बताया, तब से ही इस पर बहस हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि इन रेवड़ी कल्चर से निपटने के लिए एक निकाय बनाने की आवश्यकता है।

अब सोचने वाली बात है कि नेता जो वादे करते हैं, क्या वो राजे-महाराजे हैं? क्योंकि ये तो राजतंत्र की प्रक्रिया हुआ करती थी जब कोई असहाय या गरीब अपनी मजबूरी लेकर राजा के पास पहुंचते थे तो वो उनकी फरियाद सुनकर कुछ मदद कर दिया करते थे, मुफ्त में कुछ दे दिया करते थे जिसे अमूमन खैरात भी कहा जाता था। लेकिन जब ये राजतंत्र नहीं है ये खैरात जनता क्यों ले? यहां तो जनता सर्वोपरि है और लोकतंत्र के चुने हुए लोग हमें हमारे ही टैक्स से सुविधाएं देने वाले प्रतिनिधि।

हालंकि मुफ्त ‘रेवड़ी व कल्याणकारी योजनाओं में संतुलन कायम करना आवश्यक है, परंतु वोट खिसकने के डर से राजनीतिक दल इस बारे में मौन धारण किये रहते हैं, बल्कि न चाहते हुए भी इसे प्रोत्साहन भी देते हैं। फ्री बीज या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने एवं राजनीतिक धरातल मजबूत करने का हथियार हैं। सीधे शब्दों में कहें तो तमाम मुफ्त पेशकशों को लेकर अधिकांश राज्यों की अपनी एक स्वाभाविक सीमा है।

हाला ही में हमने यूपी, पंजाब के चुनावों में कई ऐसे वादे देखने और सुनने को मिला जिन्हें अगर ये राज्य पूरा करने जाते हैं तो इनकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल होना तय है। कुछ इसी तरह से वादे आम आदमी पार्टी गुजरात में करती नजर आ रही है। आज जिस तरह से सरकारें गरीबों के हित के नाम पर मुफ्त की स्कीम लांच कर रही है वास्तव में वह इससे अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति कर रही है। इस तरह देश के गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। वह कहते हैं कि मुफ्तखोरी की राजनीतिक से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है।

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