Editor in chief सुभाष मिश्र की कलम से -चुनावी वादे और सत्ता की सीढ़ी

From the pen of Editor in chief Subhash Mishra - Election promises and the ladder of power

सुभाष मिश्र

 

वादों का मौसम आ चुका है, सपना दिखाने का मौसम आ चुका है। चुनाव सर पर है सरकारें अपने पांच साल का रिपोर्ट कार्ड लेकर जनता के बीच पहुंच रही हैं। जब संसद में पीएम मोदी अविश्वास प्रस्ताव को अपने लिए बड़ा मौका बताते हैं तो उनके पीछे यही मतलब होता है कि उन्हें एक मौका विपक्ष को कमतर बताने का साथ ही उन्हें अपनी योजनाओं की सफलता बताने का भी एक बहाना मिल गया है। हाल ही में ऐसा ही मौका छत्तीसगढ़ में भाजपा ने यहां की भूपेश सरकार को दिया था। कहा जाता है राजनीति मौका को ताडऩे और उसे अपने पक्ष में भुनाने की भी कला है तो चुनाव के पहले मिले इन मौकों को कैसे सरकारों ने भुनाया वो आप जानते हैं। इन दिनों सरकारें नए वादा करने से पहले ये बताने की कोशिश कर रही हैं कि उन्होंने वादे से ज्यादा डिलिवर किया है।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 2018 चुनाव के वक्त जो वादे किए थे उनमें से कई पूरे हो गए। साथ ही कई ऐसे बड़े काम करने का दावा सरकार ने किया है जिनका जिक्र घोषणा पत्र में नहीं था। इसी तरह मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार लोगों के सामने आपने कामकाज को बयां करते हुए यही लाइन कह रही है कि हमने जो कहा था उससे ज्यादा किया है। यहां कांग्रेस ने जो सबसे बड़े वादे किए थे उनमें धान के समर्थन मूल्य से जुड़ा वादा था, किसानों का कृषि ऋण माफ करने का वादा था। जिसे सरकार ने गठन के तुरंत बाद पूरा कर दिया था। इसके अलावा लोहंडीगुड़ा में किसानों की जमीन वापसी का वादा था जिसे सरकार गठन होने के 21 दिनों के भीतर पूरा किया गया था। भूपेश सरकार ने 1707 किसानों को उनकी लगभग 4400 एकड़ जमीन वापस कर अपना वादा पूरा किया था। हालांकि, शराबबंदी और संविदा कर्मचारियों का नियमिकतीकरण जैसे वादे अभी भी पूरा होने का इंतजार कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश में इस चुनावी मौसम में नेता अपने पक्ष में वोटों की पैदावार बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ऊसर पड़ी ज़मीन को फिर जोतने आ गये हैं। जो सरकार बीस साल से चल रही है, वह फिर लौट आने की लिप्सा से भरकर गऱीब और असहाय मतदाता स्त्रियों को लाडली बहना कहकर पुकार रही है। उन्हें खजाने से मुफ़्त पैसे बांटे रही है।

जो सरकार बीस वर्षों से मध्यप्रदेश में अभावग्रस्त नर-नारियों के दुख दूर नहीं कर सकी, अब वह फिर चुनाव जीतने के लिए उन्हें जनहित के नाम पर मुफ़्त पैसे बांटती हुई ऐसी लग रही है जैसे अपने पक्ष में भरपूर वोटों की पैदावार बढ़ाने के लिए वोटरों को अग्रिम समर्थन मूल्य का भुगतान कर रही हो। पिछले कुछ माह से शिवराज सिंह सरकार के कामकाज और घोषणाओं पर गौर किया जाए तो यह बात साफ नजर आती है कि शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार उन वर्गों को खुश करने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती जो चुनावी नतीजों को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। मसलन महिला, युवा और किसान के लिए सरकार की ओर से योजनाओं को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। एक तरफ प्रधानमंत्री रेवड़ी कल्चर का विरोध करते हैं, इसे बंद कराने की दुहाई देते हैं तो दूसरी तरफ शिवराज सिंह रेवडिय़ों की एक तरह झड़ी लगा रहे हैं। ये बड़ा विरोधाभास भाजपा की कथनी और करनी में उभर कर सामने आ रहा है। एक तरफ आप मुफ्त और छूट के लोकलुभावन वादे कर सत्ता की सीढ़ी बनाते हैं और दूसरी तरफ आपके सबसे बड़े नेता इसे बंद करने की दुहाई देते हैं। मौसम चुनाव का है इसलिए वादे तो किए ही जाएंगे, इसमें रेवडिय़ां तो बांटी ही जाएंगी। चाहे इससे कोई नाराज होता हो तो हो, इकॉनामी पर प्रतिकूल असर पड़ रहा हो तो पड़े, हमारा क्या जाता है। हमें तो कुर्सी चाहिए, फिर 5 साल देखा जाएगा कि कितनी मिठाई बांटनी है और उसमें कितना चाशनी डालना है…।

प्रसंगवश- इसी चुनावी मौसम और छाए राजनीतिक बादल पर ध्रुव शुक्ल लिखते हैं-
दो दल हैं प्रतिद्वंद्वी
दोनों हो गये रामानंदी
दोनों ने पहना है भगवा
दोनों वोटर पीछे लगवा
दोनों का है एक ही ढाबा
दोनों का अब एक ही बाबा
दोनों भगवा तम्बू तनावा
दोनों हनूमान जस गावा
दोनों करें राज पर दावा
दोनों लडऩे आये चुनावा
दोनों का वोटर पर धावा
दोनों मन में लोभ जगावा
वोटर को अब समझ न आवा
किसे हरावा, किसे जितावा।।

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