Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सूखा घर के दरवाजे पर दे रहा दस्तक

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Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सूखा घर के दरवाजे पर दे रहा दस्तक

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Drought is knocking at the door of the house

– सुभाष मिश्र

अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ
एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर
साथ जाएगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझ से पहले
कितनी लकड़ी लगेगी
शमशान की टालवाला पूछेगा
गऱीब से गऱीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में

पर्यावरण दिवस के मौके पर दुनियाभर में चल रहे विमर्श के बीच कवि नरेश सक्सेना की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात शुरू करते हैं। पर्यावरण की चिंता इसलिए ज्यादा हो रही है क्योंकि आज पानी संकट में है। जंगल संकट में, हवा बीमार होती जा रही है, ऐसे में मानव समेत समस्त प्रणियों के सामने खुद को जिंदा रखने की चुनौती बनती जा रही है। ये एक देश की समस्या नहीं है जिस तरह से मानव ने प्रकृति पर अतिक्रमण किया है, उससे आज दुनियाभर में शुद्ध हवा, पानी की कमी होते जा रही है। विश्व पटल के इतर अगर आप छत्तीसगढ़ पर ही नजर दौड़ाएं तो आपको समझ आ जाएगा कि हमने जल स्त्रोत के साथ किस तरह खिलवाड़ किया है। यहां तालाबों की परंपरा रही है। रायपुर जैसे शहर में कभी 100 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाब थे लेकिन इनमें से कई को शहर निगल चुका है। बेजा कब्जा भूमाफियाओं की भेंट चढ़ चुके हैं। पुरखों के धरोहर तालाबों की बात छिड़ी तो अनुपम मिश्र याद आते हैं। उनकी प्रसिद्ध किताब आज भी खरे हैं तालाब ने उस भारतीय समाज का पता बताया जो सदियों से अपने नदी-सरोवरों में पानी का संचय करता आ रहा है। इसे अनुपम मिश्र ने साफ माथे का समाज कहा। अनुपम मिश्र रामचरितमानस की प्रसिद्ध चौपाई नारे की तरह दुहराते थे
समिटि-समिटि जल भरहिं तलाबा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा। तुलसीदास कह रहे हैं कि तालाबों में संचित होता जल देखकर लगता है जैसे सज्जनों के पास सद्गुण इक_े हो रहे हों। छत्तीसगढ़ में तालाबों के संरक्षण के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। सौन्दर्य से लेकर चौपाटी बसाने का काम किया जा रहा है लेकिन तालाब लगातार सिमटते और दूषित होते जा रहे हैं। गर्मी का मौसम चल रहा है हर तरफ लगभग हर मोहल्ले में टैंकर दौड़ रहे हैं। पानी के लिए संघर्ष चल रहा है लेकिन यही हालात रहे तो आने वाले वर्षों में ये समस्या और गहरा सकती है। एक तरफ पानी कम हो रहा है तो दूसरी तरफ प्लास्टिक पर रोक लगाने में हम नाकाम रहे हैं। सिंगल यूज प्लास्टिक धड़ल्लेे से इस्तेमाल हो रहा है। इसके चलते नदी-नाले से लेकर समुद्र भी प्रदूषित हो रहे हंै। कई जलीय जीव इसके कारण मारे जा रहे हैं, जमीन बंजर हो रही है, लेकिन इसे चलन से बाहर करने में हम नाकाम हैं। आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि दुनियाभर में सवा दो करोड़ टन प्लास्टिक हर साल नदी-नाले, झीलों और समुद्र में डंप किए जा रहे हैं। यूएनओ ने भी दुनियाभर के देशों से प्लास्टिक के उत्पादन को घटाने की अपील की है। यूरोप में पिछले साल कई देशों में सूखे की मार झेली थी। इस साल भी कुछ बेहतर हालात नहीं दिख रहे हैं। फ्रांस की कई नदियां अभी से सूख गई हैं। जबकि अभी यहां गर्मी अपने शबाब पर पहुंची नहीं है। दक्षिण अफ्रीका की राजधानी शहर केपटाउन को दुनिया का पहला जल-विहीन शहर घोषित किया गया है, क्योंकि इसकी सरकार ने 14 अप्रैल, 2023 के बाद पानी की आपूर्ति करने में असमर्थता दिखाई है। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो पर्यावरण दिवस पर विमर्श ही करते रह जाएंगे और दूर दिख रहा सूखा घर के दरवाजे पर दस्तक
देने में देरी नहीं लगाएगा।

प्रशंगवश- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता-
हाँ, वह पगडंडी
अब रसातल में चली गई है।
अभ्यासवश ही मैं यहाँ खड़ा हूँ
दौड़कर पार भी कर जाना चाहता हूँ
चीथड़ों-सी पड़ी इस धरती को
जिसकी दरारों में
आकाश तक के पैर फंस गए हैं,
और सूरज सारी हरियाली
के साथ लुढ़क गया है।
अभ्यासवश ही मैं यहाँ हूँ
जलहीन कूपों की आँखों में झाँकता,
जलती धरती के माथे पर
ठंडे हाथ रखता।
(शायद कोई अंकुर उगे)
अभ्यासवश ही देखता हूँ, सुनता हूँ,
बोलता हूँ, चुप रहता हूँ,
ख़ाली ज़मीन को घेरता हूँ
और बाड़े बनाने के लिए
काँटे उठा-उठाकर लाता हूँ।
‘तुम एक भयानक सूखे से घिर गए हो—
लोग मुझसे कहते हैं।
(शायद यह हमदर्दी है!)
कोई कुछ देने आया है दे जाए,
लूट लेने आया है ले जाए।
मुझे सभी एक जैसे लगते हैं।
किसी का होना न होना
कोई मतलब नहीं रखता।
सूखा—
हाँ, अब मुझमें कुछ उगेगा नहीं
अब कहीं कोई प्रतिक्षा नहीं होगी,
एक ख़ाली पेट की तरह
मेरी आत्मा पिचक गई है
और ईश्वर मरे हुए डाँगर-सा गँधा रहा है।

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