Book Release: रोजमर्रा की उलझनों से रूबरू कराती… ‘क्या करूं उलझने सुलझती ही नहीं’

पुस्तक की समीक्षा करने से पहले पुस्तक के नाम की चर्चा करना चाहूंगा क्या करूं उलझने सुलझती ही नहींl यह संरचना का एक गुलदस्ता जिसमें रोचक प्रस्तुतियां दी गई है  यह किताब जिंदगी की सुबह से शाम तक घटनाओं से दो चार होने की प्रक्रिया ही है जिसे बड़े सलीखे से प्रस्तुत किया गया है।

किताब बड़ी रोचक एवं आकर्षित करने वाली रचनाओं से परिपूर्ण है। पुस्तक की भाषा शैली अद्भुत है और रचनाशीलता का समावेश है। पाठकों को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखने में सफल इस किताब की संप्रेषण क्षमता भी अपने आप में सलीके से प्रस्तुत की गई है। इसमें सर्वप्रथम इन्होंने शुरुआत की है तो शुरू करें लेकिन अंत नहीं है। कहानी की शुरुआत एक छोटे कस्बे से शुरू होती है जो कस्बे से छोटे शहर में रूपांतरित हो रहा है और शहर की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सच्चाई का प्रमाण भी है

लेखक ने खुद कहा है कि यह कहानी सड़क की है सड़क से शुरू हुई है और सड़क पर ही खत्म क्योंकि इसके आगे बहुत कुछ भी है और वह प्रतिबद्ध हैं कि जहां बोर होंगे वहां मैं बंद कर दूंगा अपने विचार अनावश्यक नहीं रोपित करूँगा। जो कुछ सड़क कहेगी वहां बयान करूंगा। छपी हुई किताब में कुल 43आलेख है सब का वर्णन करना अल्प समय में संभव प्रतीत नहीं होता है किताब के गुण दोष पर बात करता हूं और इस किताब की बहुत सारी खूबियां कुछ कमियों पर मैं बात करना चाहूंगा। लेखक किस विचारधारा के हैं उन्होंने अपने प्रस्तावना अभिलेख में स्पष्ट कर दिया जो काबिले तारीफ है।

इन्होंने अपने कुछ क्षण प्रकृति के संघ में उल्लेख किया है की चिड़िया गौरैया कोयलिया अन्य परिंदे वृक्ष तालियां हरे-भरे पेड़ आकाश भास्कर उसकी कणिकाएं आपको अपनी और आकर्षित करते हैं क्योंकि इनकी विराट सत्ता के दर्शन होते हैं। लेखक ने आगे लिखा कि जिस खूबसूरती की परिकल्पना मात्र से और असीम कृपा से विशिष्ट कृतियों के दर्शन मात्र से आप प्रफुल्लित होते हैं उसकी निकटता आपको कितनी कितनी चिरकालिन  खुशी दे सकती है इसका आपको अंदाजा भी नहीं होगा। अपने आलेख 16 नंबर लेखक ने बहुत सारा गर्भित बातें लिखी है कुछ पल का सुख निसंदेह कुछ पल के सुख के लिए हम बहुत कुछ न्योछावर करने की तैयार रहते हैं।

लेखक ने लिखा है आप कुछ फलों के सुख के लिए वह  सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं जिसकी खुशियां क्षणभंगुर है क्या यह आपको मालूम है कि आज जितनी भी इस समाज में विसंगतियां व्याप्त है इसके पीछे हमारी प्रवृत्तियां अत्यंत सक्रिय और क्रियाशील है हम ऐसा प्रयास क्यों नहीं करते कि हम हर पल हर क्षण खुशी के समंदर में हिलोरे लेते रहें क्या ऐसा कुछ हो सकता है ऐसे कई अन सुलझे प्रश्न को अपनी किताब में लेखक ने बड़े सटीक तरीके से उठाया है एवं उसका समाधान देने का भी प्रयास किया है एक महत्वपूर्ण आलेख अति सर्वत्र वर्जयेत मैं उन्होंने बड़ी मौजू बात कही है।

आप जरा ध्यान से विचार करें कि अति शब्द से अपनी सुरक्षा कैसे की जाए आप अपनी अति भावुकता से अपने आप को अनेक मुसीबत में डाल लेते हैं और आपका दयालु हृदय आपको अनावश्यक उलझन में फंसा देता है और अति कठोरता आपके लिए अभिशाप बन जाती है और अति क्रोध की परिणति विकराल रूप धारण कर लेती है इस अति शब्द की मीमांसा तथा विवेचना बड़े ही तार्किक तरीके से लेखक ने प्रस्तुत किया है। किताब क्योंकि श्री गुप्ता जी ने स्वयं प्रकाशित की है तो जाहिर है कि इसकी साज साज बहुत सुंदर है लिखने में गलतियां कम है परंतु कई आलेखों में कठिन

शब्दों का उपयोग किया है जो की पाठक की पठनीय गति को भंग भी करते हैं, महात्मा गांधी और प्रेमचंद हमेशा सरल लिखा करते थे तुलसीदास ने भी बहुत सरल लिखा है इसीलिए उनकी रचनाएं आज हर घर में पढ़ी जाती है और उनका पाठक वर्ग सिर्फ देश  में ही नहीं पूरे विश्व में फैला हुआ है।

इसीलिए मुकेश गुप्ता जी को अपनी अगली किताब में सरलतम शब्दों का प्रयोग कर रचनाओं को बोधगम्य में बनाना चाहिए। लेखक ने परंपरागत तथा  जीवन की कथावस्तु तथा सभी पात्रों को चुना है जो सटीक हैंलेकिन लेखक ने लेखक की प्रतिबद्धता को प्रतिपादित किया है लेखक ने मानवीय जीवन और मानवीय प्रवृत्तियों को सही ढंग से उभार कर सामने रखा है।

रोजमर्रा की बातें जो हम विस्मृत कर देते हैं उसे बहुत अच्छे ढंग से उभर कर आलेखों के कैनवास पर उभरा है मैं उन्हें बहुत-बहुत साधुवाद देता हूं ऐसी कृतियों से समाज में जागरूकता के लाने का प्रयास होता रहना चाहिए और ऐसे प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूं बधाई देता हूं और शुभकामनाएं देता हूं और पाठकों के लिए सलाह है कि इस खरीद कर पढ़ें यह जन उपयोगी है।

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