Valley Srinagar घाटी, श्रीनगर में बहुत कुछ आगे बढ़ता हुआ!

Valley Srinagar

Valley Srinagar  श्रुति व्यास

Valley Srinagar  उपराज्यपाल मनोज सिंह ने भूमि सम्बन्धी कानूनों को बदलना शुरू कर दिया है और मंदिरों को उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा दिलाने और मंदिरों का पुनर्निर्माण करने के लिए टीमों का गठन हो गया है। वे पंडितों की व्यथा को भी समझते हैं और सुन्नियों के गुस्से को भी। और दोनों से निपटने का उनका तरीका एक ही है – पर्याप्त दूरी बनाये रखो। जैसा कि उन्होंने बताया उनकी प्राथमिकता वे समुदाय हैं जो असली अर्थों में अल्पसंख्यक बन गए हैं – कश्मीरी हिन्दू, बकरवाल, पहाड़ी, गुज्जर और शिया।

Valley Srinagar  कश्मीर डायरी: श्रीनगर से लौट कर श्रुति व्यास

Valley Srinagar  अपनी रिपोर्ट उस बैठक से शुरू करती हूं जो केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की हालिया श्रीनगर यात्रा के दौरान हुई थी। उनसे मिलने और संवाद के खातिर उस बैठक में कई राजनेता और नौकरशाह थे। उसी में जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी के एक बड़े नेता ने अमित शाह से कहा कि समाज की मुख्यधारा में शामिल हो चुके कई अतिवादियों के बच्चे जीवन में आगे बढऩे के अवसरों से वंचित हैं। इसलिए क्योंकि उनके पिताओं का अतीत उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। इसके पहले कि अमित शाह कोई जवाब देते, उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने विनम्र परन्तु दृढ स्वर में उन नेता से कहा, “आप जब यह मुद्दा लेकर मेरे पास आए थे तो मैंने कहा था कि आप लिस्ट प्रोवाईड करें ऐसे नामों की ताकि हर केस पर इन्डीवीजुवली काम किया जाए। साठ दिन हो गए है मैं लिस्ट का इंतजार कर रहा हूं।”

Valley Srinagar  पूरे कमरे में सन्नाटा खिंच गया। निश्चित तौर पर गृहमंत्री उपराज्यपाल के रूख से खुश हुए होंगे। ‘अपनी पार्टी’ के जनाब नेता बगलें झांकने लगे। जहां तक मनोज सिन्हा का सवाल है, वे अपने स्वभाव अनुसार वे गंभीरता ओढ़े रहे और अगले एजेंडा व मुलाकाती की ओर बढ़ गए।

Valley Srinagar  उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की इस तरह की कार्यप्रणाली और स्वभाव के चलते हाल में जब मैं’ कश्मीर गई तब मुझे कुछ ऐसी बातें भी सुनाई दीं जो कम से कम धारा 370 के हटाए जाने के बाद से तो मैंने नहीं सुनीं थीं। माहौल में तब गुस्सा था तो अनिश्चितता का माहौल भी।

मगर अब मूड बदला है। मनोज सिन्हा के शासन की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे। ऊपर से नीचे तक लोगों ने सिन्हा की जमकर तारीफ की। मनोज सिन्हा आज दो साल से जम्मू-कश्मीर का राज चला रहे हैं। मैं पिछले साल जब कश्मीर गई थी तब लोग उन्हें और उनके इरादों को समझना शुरू ही कर रहे थे। सिन्हा भी अपने लिए बिल्कुल नए इलाके और उसके लोगों के दिलों में झांकने की कोशिश में थे।

इस साल मैंने पाया कि दोनों एक दूसरे को समझ चुके है। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक ‘बाहरी’ व्यक्ति को कश्मीर में एक राजनेता और एक अच्छे प्रशासक दोनों के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। सिन्हा ने सन् 2020 के 6 अगस्त को गिरीशचन्द्र मुर्मू के 9 माह के निरुद्यम कार्यकाल के बाद कश्मीर का राजकाज संभाल था। उस समय कश्मीर के लोग एक अजीब सी ख़ामोशी की गिरफ्त में थे। लोगों गुस्से में थे, भौचक्के थे, उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनके साथ धोखा हुआ है।

मुर्मू, जो कि एक पूर्व नौकरशाह थे, ने नए जम्मू-कश्मीर में अनिश्चितता के भाव को और गहरा ही किया था। इस असफलता के बाद मोदी और शाह दूसरी बार गलती नहीं करना चाहते थे। उन्हें पता था कि उन्हें श्रीनगर में एक ऐसा मजबूत राजनेता चाहिए जो उनके निर्णय से उत्पन्न अनेकानेक चुनौतियों से निपट सके। उन्हें मनोज सिन्हा के रूप में ऐसा व्यक्ति मिल गया जैसा उन्हें चाहिए था।

मनोज सिन्हा खांटी राजनीतिज्ञ हैं और हिन्दी क्षेत्र में राजनीति के चतुर खिलाड़ी रहे हैं। शुरू में ऐसा लगा कि शायद मनोज सिन्हा इस काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं हैं। कश्मीर को एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो सरकारी मशीनरी से काम करवा सके, अपने निर्णयों को लागू कर सके, मध्यस्थता करने में सक्षम हो और दिल्ली व जम्मू-कश्मीर के बीच एक मज़बूत सेतु का काम कर सके। जम्मू-कश्मीर में जो राजनैतिक खालीपन आ गया था उसकी पूर्ति के लिए राजनीतिज्ञ की जरूरत थी। जबकि स्थानीय पत्रकारों और इंटरनेट की दुनिया में अपने विचार रखने वालों को लग रहा था कि एक प्रमुख भाजपाई राजनेता को उपराज्यपाल बनाए जाने का अर्थ यह है कि कश्मीर में जल्द ही चुनाव होंगे।

कई लोगों ने कहा कि सिन्हा का कार्यकाल सत्यपाल मलिक से भी छोटा और ज्यादा कड़वाहट भरा होगा। मगर आज दो साल बाद, चुनाव का कहीं अतापता नहीं है और सिन्हा बिना किसी रोकटोक के राज चला रहे हैं। उनके राज में कश्मीरी कुछ निश्चिन्त और शांत हुए हैं।

इससे पहले राजनीति में खासी सफलता हासिल करने के बाद भी मनोज सिन्हा अखिल भारतीय स्तर पर पहचान नहीं लिए हुए थे। सन 2017 में उनके उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की चर्चाएं हुई थी। परन्तु नियति ने उनके लिए अलग योजना तैयार कर रखी थी। सन 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद वे राजनैतिक परिदृश्य से लगभग गायब हो गए थे।

यही कारण है कि उन्हें उपराज्यपाल नियुक्त करने की घोषणा जम्मू-कश्मीर और खासकर श्रीनगर व घाटी में चकित करने वाली थी, जिसने कई तरह की कानाफूसियों को जन्म दिया। विशेषकर इसलिए क्योंकि एन.एन. वोहरा और जगमोहन सहित उनके पूर्ववर्ती राज्यपाल (उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य था) मूलत: प्रशासक होते हुए भी, कश्मीर के ज़मीनी हालात से वाकिफ थे और अपने बेदाग़ आचरण और प्रशासनिक मसलों पर पकड़ के चलते उन्होंने चुनाव के लिए माहौल तैयार करने और राजनैतिक प्रक्रिया की बहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

हालांकि तब भी यह माना गया था कि कोई बाहरी व्यक्ति राज्य के लोगों, विशेषकर कश्मीरियों, को समझ नहीं सकता। इसलिए न तो राज्य पर शासन कर सकता है और ना ही वहां के लोगों के दिलों पर।

मनोज सिन्हा को पूर्वी उत्तर प्रदेश से सीधे कश्मीर में एयरड्राप किया गया। वे न तो वहां की गंभीर समस्याओं से वाकिफ थे और ना ही उनके विभिन्न पहलुओं से। परन्तु फिर भी उन्होंने पुराने सारे मिथकों को ध्वस्त किया है। और यह श्रीनगर और घाटी की जानकार चर्चाओं से समझ आता है।
पिछले दो वर्षों में उन्होंने कश्मीर की नब्ज़ पकड़ ली है। कश्मीर की उनकी समझ शायद कश्मीरी अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों से भी बेहतर है।

बाहरी होने के नाते उनकी स्लेट एकदम साफ़ है और उनके अतीत का बोझ उनके साथ नहीं चल रहा है। वे जो कहते हैं, वह करते हैं और जो करते हैं, वह कहते हैं। आम लोगों में उनकी स्वीकार्यता है और वे राज्य को चलायमान रखे हुए हैं।

शांत और गंभीर व्यक्तित्व के मनोज सिन्हा, दृढता और साहस से काम कर रहे हैं। चाहे मसला विकास का हो या पुनर्वास का, व्यवस्था को पटरी पर वापस लाने का हो या फिर पुलिस और सेना व स्थानीय लोगों की राय और नौकरशाहों के बीच समन्वय बनाने का – उनकी पकड़ और दक्षता साफ़ देखी जा सकती है। लोग उनके व्यवहार के मुरीद हैं, उनकी राजनैतिक भद्रता की कायल हैं और उनकी प्रशासनिक निपुणता से प्रसन्न हैं।

कह सकते है काम बोलता है और मनोज सिन्हा का काम बोल रहा है।
विकास हो रहा है और राजनैतिक स्थिरता– भले ही वह बहुत मज़बूत न दिखती हो – महसूस की जा सकती है। सडक़ें बन रहीं हैं, मेडी-सिटी की योजना तैयार है, एक सिनेमा हॉल खुल गया है और अन्य खुलने वाले हैं, पर्यटक आ रहे हैं और घाटी में बाहर का निवेश आने की चर्चा आम है। मनोज सिन्हा अख़बारों की सुखिऱ्यों में छाए रहते हैं और इससे नेट पर सक्रिय नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी समर्थकों में गुस्सा है।

हाल में जब मैं उपराज्यपाल से मिलने गई तब वहां बैठे एक सज्जन, घाटी में व्याप्त अनिश्चितता से काफी दुखी लग रहे थे। सिन्हा ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “सोच बदलने में समय लगता है।” उन्हें यह भरोसा है कि केंद्र सरकार की नीतियों से सोच और राज्य दोनों में बदलाव आएगा। सिन्हा जानते हैं कि इस बदलाव को लाने में उनकी केंद्रीय भूमिका है और इसलिए वे निर्णय लेने में सकुचाते नहीं हैं। वे जानते हैं कि भाजपा नेता और उपराज्यपाल बतौर उनसे क्या अपेक्षित है और वे ठीक वही कर रहे हैं।

दो सालों में उन्होंने कश्मीर के बारे में पर्याप्त जान लिया है। वे कश्मीर में लोगों का अभिवादन ‘आदाब’ से और जम्मू में ‘नमस्ते’ से करते हैं। उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने और पसंद करने वाले लोग गुरेज़ घाटी से लेकर राजौरी तक फैले हैं। उन्होंने भूमि सम्बन्धी कानूनों को बदलना शुरू कर दिया है और मंदिरों को उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा दिलाने और मंदिरों का पुनर्निर्माण करने के लिए टीमों का गठन हो गया है। वे पंडितों की व्यथा को भी समझते हैं और सुन्नियों के गुस्से को भी। और दोनों से निपटने का उनका तरीका एक ही है – पर्याप्त दूरी बनाये रखो। जैसा कि उन्होंने बताया उनकी प्राथमिकता वे समुदाय हैं जो असली अर्थों में अल्पसंख्यक बन गए हैं – कश्मीरी हिन्दू, बकरवाल, पहाड़ी, गुज्जर और शिया। जम्मू, जिसे हमेशा हाशिए पर रखा गया, पर भी उनका फोकस है। शायद ही ऐसा कोई मुख्यमंत्री होगा जिसने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के प्रधानमंत्री मोदी के नारे को उतनी गंभीरता से लिया होगा जितना कि मनोज सिन्हा ने लिया है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने अपनी योग्यता साबित कर दी है। वे हमेशा चमकीले रंगों वाला कुर्ता-पजामा या कुर्ता-धोती पहनते हैं और उनके माथे पर हमेशा तिलक रहता है। जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल के रूप में उन्होंने अपनी एक विरासत खड़ी कर दी है जो केवल एक खांटी राजनीतिज्ञ से कहीं आगे तक जाती है और जिसका पता शायद उन्हें भी नहीं है। वे काम करते हैं और करवाना भी जानते हैं। दो साल के अपने कार्यकाल में उन्होंने जम्मू-कश्मीर पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है और इसमें उनके करिश्माई व्यक्तित्व का कम योगदान नहीं है।

यही कारण है कि न तो मनोज सिन्हा और न उनके राज से किसी को कोई नाराजगी है। मैंने जितने भी लोगों से बात की उनमें से किसी ने भी उन्हें खराब या गलत नहीं बताया। लोग उनकी शख्सियत को पसंद करते हैं और उस बालसुलभ मीठी मुस्कान को भी जिसका उपयोग वे कब-जब ही करते हैं। वे एक अच्छे राजनीतिज्ञ हैं और परिस्थितियों ने उन्हें एक योग्य टास्क मास्टर बना दिया है। मनोज सिन्हा कश्मीर में जो कुछ कर रहे हैं वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय है।

इस बात को आगे की कसौटी में सबको याद रखना चाहिए। उनका राजनैतिक भविष्य क्या होगा, भाजपा कश्मीर में चुनाव में कैसा प्रदर्शन करेगी और जब वे कश्मीर छोड़ेंगे तब वे कितने संतुष्ट होंगे और कश्मीर कितना सामान्य होगा, यह तो समय ही बताएगा। परंतु अभी के लिए तो हम यह कह ही सकते हैं कि गाजीपुर के इस राजनेता को कश्मीरियों के दिलों में जगह मिलती हुई है।

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