Supreme Court : न्यायपालिका का सकारात्मक हस्तक्षेप

Supreme Court :

अजीत द्विवेदी

 

Supreme Court : न्यायपालिका का सकारात्मक हस्तक्षेप

 

Supreme Court : सर्वोच्च अदालत ने विधायिका की शुचिता को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा सकारात्मक हस्तक्षेप किया है। सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यों की एक संविधान पीठ इस बात पर विचार करेगी कि सदन के अंदर रिश्वत लेने पर सांसद या विधायक को मुकदमे से मिलने वाली छूट जारी रहनी चाहिए या उसे खत्म कर दिया जाए? यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है, जो राजनीति की नैतिकता से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने इस सवाल पर विचार किया था और संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत सांसदों को मिली छूट को बरकरार रखा था। पांच जजों की बेंच ने 1998 में अपना फैसला सुनाया था और पिछले 25 साल से यह नजीर है। अब सात जजों की बेंच इस फैसले पर पुनर्विचार करेगी।

Supreme Court : यह एक संयोग है कि जिस विवाद के बाद पांच जजों की बेंच ने इस सवाल पर विचार किया था और जिस विवाद के बाद अब सात जजों की बेंच इसी सवाल पर फिर से विचार करेगी वो दोनों विवाद झारखंड मुक्ति मोर्चा से जुड़े हैं। पहला मामला 1993 का है, जब केंद्र की पीवी नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन सहित पांच सांसदों ने कथित तौर पर रिश्वत ली थी। इस मामले में सर्वोच्च अदालत ने सांसदों को मिले संसदीय विशेषाधिकार का हवाला देकर उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। यह फैसला 1998 में आया था और पिछले 25 साल से इसे संवैधानिक प्रावधानों के साथ मिला कर देखा जाता है।

Supreme Court : दूसरा मामला, जिसके बाद सात जजों की संविधान पीठ बनाई गई है, झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक सीता सोरेन का है। आरोप है कि जामा विधानसभा सीट की विधायक के तौर पर उन्होंने 2012 में राज्यसभा चुनाव में एक खास उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने के लिए पैसे लिए थे। जब इस मामले की सीबीआई जांच की मांग हुई तब सीता सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट के 1998 के फैसले का हवाला दिया था और कहा था कि सांसदों और विधायकों को सदन के अंदर किए गए किसी भी काम या भाषण के लिए आपराधिक मुकदमे से छूट मिली हुई है। तभी से यह मामला विचारधीन है और 2019 में तब के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने इसे व्यापक प्रभाव और सार्वजनिक महत्व का बताते हुए पांच जजों की बेंच के सामने भेजा था। अब चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने भी कहा है कि यह राजनीतिक नैतिकता पर प्रभाव डालने वाला महत्वपूर्ण मुद्दा है इसलिए इस पर बड़ी बेंच को सुनवाई करना चाहिए। इसके बाद सात जजों की बेंच का गठन कर दिया गया।

इस मसले पर सात जजों की संविधान पीठ का विचार करना एक नए दौर की शुरुआत का संकेत है। यह स्पष्ट रूप से विधायिका के अधिकारों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप है तभी केंद्र सरकार की ओर से देश के सबसे बड़े कानून अधिकारी वेंकटरमणी ने इसका विरोध किया। इस मामले में संवैधानिक स्थिति चाहे जो हो सार्वजनिक जीवन से जुड़ी नैतिकता की कसौटी पर यह सही नहीं है। किसी भी प्रावधान के तहत किसी सांसद या विधायक को रिश्वत लेने की छूट कैसे दी जा सकती है? वैचारिक विचलन का मामला अलग है लेकिन रिश्वत लेना तो विशुद्ध रूप से भ्रष्टाचार का मामला है, जिसे अगर विधायिका के अंदर छूट दी गई तो बाहर कैसे साफ-सुथरा शासन, प्रशासन सुनिश्चित किया जा सकेगा? तर्क के लिए कहा जा सकता है कि केंद्र की मनमोहन सिंह की सरकार के समय कई सांसदों पर पैसे लेकर सवाल पूछने का आरोप लगा था। एक स्टिंग ऑपरेशन की वीडियो में कई सांसद प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेते दिखाए गए थे और संसद ने उनकी सबकी सदस्यता खत्म कर दी थी।

लेकिन रिश्वत लेने के आरोप में सदस्यता समाप्त करना और आगे उनके चुनाव लडऩे पर रोक नहीं लगाना कोई सजा नहीं है। एक लोक सेवक को रिश्वत लेने के आरोप में जो सजा होती है वह सजा होनी चाहिए। तभी आम सरकारी सेवकों के लिए नजीर बनेगी।

इसलिए सुप्रीम कोर्ट की यह पहल एक सकारात्मक हस्तक्षेप है। अगर अदालत सुनवाई के दौरान इसका दायरा बढ़ाए और सांसदों व विधायकों को आपराधिक अभियोजन से मिली छूट के सभी पहलुओं पर विचार करे तो ज्यादा बेहतर होगा। ऐसा इसलिए जरूरी लगता है क्योंकि नए संसद भवन के पहले सत्र में ही भाजपा के एक सांसद ने बहुजन समाज पार्टी के एक सांसद के ऊपर बेहद आपत्तिजनक और अभद्र टिप्पणियां कीं। उनको भी संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत किसी भी आपराधिक अभियोजन से छूट मिली हुई है।

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सात जजों की संविधान पीठ को इस मसले पर भी विचार करना चाहिए। रिश्वत का मामला निश्चित रूप से ज्याद महत्वपूर्ण है लेकिन सांसदों का आचरण भी कम अहम नहीं है। उन्होंने एक धर्म विशेष के सांसद के लिए जैसे विशेषणों का इस्तेमाल किया है अगर उसके लिए उनके ऊपर कार्रवाई नहीं होती है तो इससे समाज में ऐसे विशेषणों के इस्तेमाल को स्वीकृति मिलेगी, जो देश की सामाजिक संरचना के लिए ठीक नहीं है। इसलिए रिश्वत के साथ साथ दूसरे मसलों पर विचार किया जाना चाहिए।

इस मामले में जरूरी यह है कि देश की सरकार और विधायिका दोनों इसे सकारात्मक तरीके से लें और इसे न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका और विधायिका का मुद्दा न बनाएं। ध्यान रहे पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के स्पीकर को निर्देश दिया था कि शिव सेना के विधायकों की अयोग्यता के मामले में जल्दी फैसला करें तो उन्होंने दो टूक अंदाज में कहा कि वे न जल्दी फैसला करेंगे और न देरी करेंगे। सोचें, सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को इस मामले में फैसला सुनाया था और विधायकों की अयोग्यता का मामला स्पीकर पर छोड़ा था। अदालत ने संवैधानिक प्रावधानों का बराबर ख्याल रखा लेकिन स्पीकर ने क्या किया? उन्होंने चार महीने तक इस पर कोई सुनवाई नहीं की। जब मामला दोबारा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो उन्होंने आनन फानन में एक सुनवाई कर डाली। तब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने 17 सितंबर को नाराजगी जताते हुए कहा कि स्पीकर मामले को अनिश्चितकाल के लिए नहीं टाल सकते हैं। इस तरह की टिप्पणी अदालत ने महाराष्ट्र के ही राज्यपाल रहे भगत सिंह कोश्यारी के लिए भी की थी, जब उन्होंने राज्य सरकार की ओर से विधान परिषद में नामित करने के लिए भेजे गए 12 नामों को एक साल से ज्यादा समय तक रोके रखा था। हालांकि अदालत के कहने के बावजूद राज्यपाल ने नामों को मंजूरी नहीं दी थी।

यह सही है कि ऐसे मामले में राज्यपाल को और विधायकों की अयोग्यता के मामले में स्पीकर के फैसला करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है लेकिन अनंतकाल तक ऐसे मुद्दों को लंबित रखना भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है। ऐसे मामलों में अगर अदालत कोई टिप्पणी करती है तो उसे सरकार को टकराव का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। इस बीच एक और अच्छी बात यह हुई है कि चीफ जस्टिस ने एक स्थायी संविधान पीठ बनाने की बात कही है ताकि संवैधानिक मसलों पर जल्दी सुनवाई हो सके। बदलते हुए समय के साथ इस तरह की व्यवस्था अंतत: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों को मजबूती देगी।

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