Former Governor of Reserve Bank : सवाल भारत की माली दशा का!

Former Governor of Reserve Bank :

हरिशंकर व्यास

Former Governor of Reserve Bank : सवाल भारत की माली दशा का!

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Former Governor of Reserve Bank : सवाल भारत की माली दशा का!

 

Reserve Bank : रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है तो सोचने की जरूरत है। उन्होंने भरोसा जताया है कि भारत की स्थिति श्रीलंका या पाकिस्तान जैसी नहीं होने जा रही है। भारत की आर्थिक समस्याएं श्रीलंका और पाकिस्तान जैसी नहीं हैं। भारत के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है और विदेशी कर्ज भी कम है। राजन ने विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने में रिजर्व बैंक की तारीफ की। उनका यह कहना इसलिए ठीक है क्योंकि श्रीलंका और पाकिस्तान के संकट का कोर कारण विदेशी करेंसी के खाली खजाने का है। इसकी वजह से श्रीलंका ईंधन, खाने-पीने के सामान और दवाईयों का आयात नहीं कर पाया। निर्यात कम और आयात ज्यादा थे तो अपने आप डॉलर का खजाना खाली होता गया और दिवालिया।

Reserve Bank : मगर ऐसा असंतुलन तो भारत के विदेश व्यापार में भी है। यूक्रेन की लड़ाई के बाद पेट्रोलियम पदार्थों के आयात का भारत बिल सुरसा की तरह बढ़ा है। भारत के शेयर बाजार में विदेशी सटोरियों का डॉलर में जो पैसा लगा हुआ था वह भारत से लौटता हुआ है। ऐसे ही एनआरआई द्वारा डॉलर भेजना भी घटा है। कुल मिलाकर भारत के विदेशी मुद्रा कोष में आवक के बजाय जावक अधिक है तो श्रीलंका जैसी दशा क्या नहीं बनेगी? मगर रघुराम राजन इस तथ्य से आश्वस्त है कि भारत का करेंसी रिजर्व अच्छा-खासा है। ध्यान रहे 22 जुलाई को भारत का रिजर्व 571.76 अरब डॉलर था। मगर इसमें डॉलर में लिए अल्पकालिक कर्जों की अदायगी से जब मार्च 2023 तक एकदम गिरावट आएगी तो क्या होगा? क्या डॉलर में नए कर्ज लेकर रिजर्व को भरा-पूरा रखा जाएगा?

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Reserve Bank : ऐसा संभव है। फिर भले रुपए के मुकाबले डॉलर महंगा हो चुका हो तथा रिकॉर्ड तोड़ ब्याज दर पर कर्ज लेना पड़े लेकिन सरकार आर्थिकी की गुलाबी तस्वीर बनाए रखने के लिए अगले साल अधिक और महंगे कर्ज ले सकती है।

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Reserve Bank : सवाल है कि महंगाई और वित्तीय घाटे के बढ़ते सिनेरियो में भारत के लिए कर्ज लेना क्या मुश्किल नहीं बनेगा? केंद्र सरकार ने तमाम तरह के सच्चे-झूठे आंकड़ों और शेयर बाजार को ऊंचा बनाए रखने के लिए जितनी तरह के उपाय किए हैं उनका भांडा क्या छह-आठ महीनों में खुलता हुआ नहीं होगा?

Reserve Bank : भारत की आर्थिकी बनाम श्रीलंका और पाकिस्तान की स्थितियों का एक बुनियादी फर्क यह है कि भारत की 140 करोड़ लोगों की आबादी दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। यह बाजार अपने भीतर लोगों की हैसियत का इतना भारी फर्क लिए हुए है कि भारत की अर्थव्यवस्था वैसे कभी मर याकि बेमूल्य-कबाड़ नहीं हो सकती है जैसे श्रीलंका की हुई है। भारत की आबादी और आकार दोनों गारंटी है जो मरा हाथी भी सवा लाख का! 140 करोड़ लोगों में क्योंकि आठ-दस प्रतिशत लोग क्रिमी लेयर हैं।

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 दो नंबर की कमाई से मलाई खाते हैं तो कोविड के घर बैठे निठल्लेपन के बाद इस आबादी से अपने आप पैसा बाजार में घूमा है। कल एक ऑटो कंपनी ने अपना नया मॉडल लांच किया। कहते हैं एक मिनट में ही उसकी हजारों में बुकिंग हो गई। आला कंपनियों की कमाई के भी सालाना नतीजे जबरदस्त हैं। विदेशी निवेशक शेयर बाजार से अपना पैसा निकाल रहे हैं तो देशी संस्थागत निवेशक और सरकारी फंड़ों का पैसा मनमाने ढंग से शेयर बाजार में इस मकसद से उढेला जा रहा है कि कुछ भी हो शेयर बाजार ज्यादा नहीं गिरे। ऐसे ही रुपया ज्यादा नहीं गिरे तो रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप भी भरपूर है।

Reserve Bank : यह सब हो सकना इसलिए संभव है क्योंकि भारत 140 करोड़ लोगों का देश है और कोई आठ-दस प्रतिशत आबादी (सरकारी कर्मचारियों, वेतनधारियों, ठेकेदारों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं, कॉरपोरेट और व्यापारियों-उद्यमियों) इतना पैसा लिए हुए है, जिससे शेयर बाजार, सोने के सर्राफा बाजार, ऑटो सेक्टर, पर्यटन-सैर-सपाटा,-यात्रा, रियल एस्टेट, खरीददारी, सर्विसेज में मांग बनी होती है।

तथ्य है कि कोविड के महामारी काल के बाद भारत की आबादी के गरीब और अमीर के हिस्सों का अंतर और बढ़ा है। इसमें एक तरफ वे बदनसीब लोग हैं, जो नौकरी, रोजगार और कमाई नहीं रहने या उसके घटने से बेहाल हैं तो दूसरी तरफ वह आबादी है, जिससे घर बैठे पैसा कमाया या पुराना पैसा जमा हुआ पड़ा हुआ है तभी अब खर्च करने की तलब है।

इसलिए भारत अब उस दौर में है, जिसमें सरकार और दस करोड़ लोग आर्थिकी में अपने-अपने कारणों से नकली तेजी बनाए रखें हुए है। विकास दर में गिरावट के बावजूद भारत का आंकड़ा चीन और यूरोप-अमेरिका से अधिक बेहतर रहेगा लेकिन वास्तविकताओं में वह कोविड काल से पहले, नोटबंदी के बाद शुरू हुए सिलसिले की गिरावट की भरपाई नहीं करते हुए होगा।

इसलिए डॉ. रघुराम राजन का यह आशावाद ठीक है कि भारत में श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे हालात नहीं बनेंगे। मगर उन्होंने भारत के सुनहरे भविष्य और आर्थिक विकास को ले कर ज्यादा बड़ी चेतावनी दे डाली है। उन्होंने श्रीलंका का हवाला देते हुए कहा है कि जब कोई देश अपने अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर नौकरी के संकट को दूर करने का प्रयास करता है, तो यहीं हालात (श्रीलंका जैसे) बनने लगते हैं।

उन्ही के शब्दों में- आज भारत में कुछ वर्गों में यह भावना है कि लोकतंत्र भारत को पीछे धकेल रहा है। जबकी हमारा भविष्य हमारे उदार लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को मजबूत करने में है, उन्हें कमजोर करने में नहीं है, और यह वास्तव में हमारे विकास के लिए आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह देश को कमजोर बना देगा और विदेशी दखल की संभावनाएं बढऩे लगेंगी।

जाहिर है भारत की आर्थिकी आखिरकार राजनीति से बिगड़ेगी। दक्षिण एशिया का यह संयोग गजब है जो एक बांग्लादेश के अपवाद को छोड़ कर बाकी सभी देशों में राजनीति की वजह से आर्थिकी बरबाद है या बरबादी की ओर है। राजनीति के कारण भारत में छोटे-लघु एमएसएमई सेक्टर का बाजा बजा है। बेरोजगारी भयावह हुई है। छोटे उद्यमी हों या बड़े सबके लिए पूंजी जुटाना और बैंकों को हैंडल करना मुश्किल बन गया है। एक जानकार ने पते की बात कही कि कंपनियों के सालाना रिजल्ट इसलिए भी ठीक-ठाक बन रहे हैं ताकि जिन बैंकों से उन्होंने कर्ज लिया हुआ है उनकी निगाहों से बचे रहे। निश्चित ही स्टील, सीमेंट आदि की तमाम बड़ी कंपनियों ने अपने उत्पाद के दामों में बेहिसाब बढ़ोतरी करके खूब मुनाफा कमाया है मगर इससे पूरी आबादी महंगाई में जिस तरह पीस रही है, असमानता और बेरोजगारी जैसे बढ़ रही तो इस सबके साल-दो साल बाद क्या नतीजे खराब नहीं होंगे?

सोचें, कॉरपोरेट और सरकार दोनों की तरफ से विकास की गुलाबी तस्वीर और मुनाफे व विकास के बड़े-बड़े आंकड़े वहीं रोजगार जीरो और उलटे बेरोजगारी बढऩे, तनख्वाहे घटने के आंकड़े तथा हकीकत।

तभी भारत के अंदरूनी आर्थिकी चक्र में 90 फीसदी आबादी का जीवन फ्री राशन, खैरात और रेवडिय़ों पर निर्भर है, नौजवान सरकारी नौकरियों की ओर दौड़ाता हुआ है। सोचें, इस आंकड़े पर कि आठ साल में 22 करोड़ नौजवानों ने सरकारी नौकरियों के लिए आवदेन किया और नौकरी कितनों को मिली? सात लाख को! तभी भारत और श्रीलंका का फर्क है कि सडक़ों पर उतरे श्रीलंका के नौजवान कतई वैसे दीन-हीन-बेबस नहीं दिख रहे थे जैसे भारत में नौजवानों की भीड़ या अग्निपथ के खिलाफ उतरे लडक़ों के चेहरों से झलक रहा था।

पते की बात यह भी है कि आर्थिकी की दशा का फैसला (जो श्रीलंका और पाकिस्तान के संकटों का भी एक कारण है) वैश्विक हालातों से होना है। भूल जाएं कि रूस-यूक्रेन की लड़ाई का आर्थिक असर उतार पर है। सर्दियों में विश्व राजनीति के तनाव और बढ़ेंगे। वैश्विक मंदी और करेंसी के वित्तीय खतरे भी बढऩे हैं। उस नाते दुनिया में इतनी तरह की अनिश्चितताएं बन गई हैं, जिससे अपने आप उन देशों का सर्वाधिक बाजा बजना है, जहां अर्थशास्त्र के बजाय फैसले राजनीति से हुए हैं या हो रहे हैं।

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